बुधवार, 2 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरपनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरपनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

रुक्मिणीहरण

 

श्रीशुक उवाच

वैदर्भ्याः स तु सन्देशं निशम्य यदुनन्दनः

प्रगृह्य पाणिना पाणिं प्रहसन्निदमब्रवीत् १

 

श्रीभगवानुवाच

तथाहमपि तच्चित्तो निद्रां च न लभे निशि

वेदाहम्रुक्मिणा द्वेषान्ममोद्वाहो निवारितः २

तामानयिष्य उन्मथ्य राजन्यापसदान्मृधे

मत्परामनवद्याङ्गी मेधसोऽग्निशिखामिव ३

 

श्रीशुक उवाच

उद्वाहर्क्षं च विज्ञाय रुक्मिण्या मधुसूदनः

रथः संयुज्यतामाशु दारुकेत्याह सारथिम् ४

स चाश्वैः शैब्यसुग्रीव मेघपुष्पबलाहकैः

युक्तं रथमुपानीय तस्थौ प्राञ्जलिरग्रतः ५

आरुह्य स्यन्दनं शौरिर्द्विजमारोप्य तूर्णगैः

आनर्तादेकरात्रेण विदर्भानगमद्धयैः ६

राजा स कुण्डिनपतिः पुत्रस्नेहवशानुगः

शिशुपालाय स्वां कन्यां दास्यन्कर्माण्यकारयत् ७

पुरं सम्मृष्टसंसिक्त मार्गरथ्याचतुष्पथम्

चित्रध्वजपताकाभिस्तोरणैः समलङ्कृतम् ८

स्रग्गन्धमाल्याभरणैर्विरजोऽम्बरभूषितैः

जुष्टं स्त्रीपुरुषैः श्रीमद् गृहैरगुरुधूपितैः ९

पितॄन्देवान्समभ्यर्च्य विप्रांश्च विधिवन्नृप

भोजयित्वा यथान्यायं वाचयामास मङ्गलम् १०

सुस्नातां सुदतीं कन्यां कृतकौतुकमङ्गलाम्

आहतांशुकयुग्मेन भूषितां भूषणोत्तमैः ११

चक्रुः सामर्ग्यजुर्मन्त्रैर्वध्वा रक्षां द्विजोत्तमाः

पुरोहितोऽथर्वविद्वै जुहाव ग्रहशान्तये १२

हिरण्यरूप्य वासांसि तिलांश्च गुडमिश्रितान्

प्रादाद्धेनूश्च विप्रेभ्यो राजा विधिविदां वरः १३

एवं चेदिपती राजा दमघोषः सुताय वै

कारयामास मन्त्रज्ञैः सर्वमभ्युदयोचितम् १४

मदच्युद्भिर्गजानीकैः स्यन्दनैर्हेममालिभिः

पत्त्यश्वसङ्कुलैः सैन्यैः परीतः कुण्डिनं ययौ १५

तं वै विदर्भाधिपतिः समभ्येत्याभिपूज्य च

निवेशयामास मुदा कल्पितान्यनिवेशने १६

तत्र शाल्वो जरासन्धो दन्तवक्त्रो विदूरथः

आजग्मुश्चैद्यपक्षीयाः पौण्ड्रकाद्याः सहस्रशः १७

कृष्णरामद्विषो यत्ताः कन्यां चैद्याय साधितुम्

यद्यागत्य हरेत्कृष्णो रामाद्यैर्यदुभिर्वृतः १८

योत्स्यामः संहतास्तेन इति निश्चितमानसाः

आजग्मुर्भूभुजः सर्वे समग्रबलवाहनाः १९

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने विदर्भराजकुमारी रुक्मिणीजीका यह सन्देश सुनकर अपने हाथसे ब्राह्मणदेवताका हाथ पकड लिया और हँसते हुए यों बोले ।। १ ।।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहाब्राह्मणदेवता ! जैसे विदर्भराजकुमारी मुझे चाहती हैं, वैसे ही मैं भी उन्हें चाहता हूँ। मेरा चित्त उन्हींमें लगा रहता है। कहाँतक कहूँ, मुझे रातके समय नींदतक नहीं आती। मैं जानता हूँ कि रुक्मीने द्वेषवश मेरा विवाह रोक दिया है ।। २ ।। परंतु ब्राह्मणदेवता ! आप देखियेगा, जैसे लकडिय़ोंको मथकरएक-दूसरेसे रगडक़र मनुष्य उनमेंसे आग निकाल लेता है, वैसे ही युद्धमें उन नामधारी क्षत्रियकुल-कलङ्कोंको तहस-नहस करके अपनेसे प्रेम करनेवाली परमसुन्दरी राजकुमारीको मैं निकाल लाऊँगा ।। ३ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! मधुसूदन श्रीकृष्णने यह जानकर कि रुक्मिणीके विवाहकी लग्न परसों रात्रिमें ही है, सारथिको आज्ञा दी कि दारुक ! तनिक भी विलम्ब न करके रथ जोत लाओ।। ४ ।। दारुक भगवान्‌ के रथमें शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नामके चार घोड़े जोतकर उसे ले आया और हाथ जोडक़र भगवान्‌के सामने खड़ा हो गया ।। ५ ।। शूरनन्दन श्रीकृष्ण ब्राह्मणदेवताको पहले रथपर चढ़ाकर फिर आप भी सवार हुए और उन शीघ्रगामी घोड़ोंके द्वारा एक ही रातमें आनर्तदेशसे विदर्भदेशमें जा पहुँचे ।। ६ ।। कुण्डिननरेश महाराज भीष्मक अपने बड़े लडक़े रुक्मीके स्नेहवश अपनी कन्या शिशुपालको देनेके लिये विवाहोत्सवकी तैयारी करा रहे थे ।। ७ ।। नगरके राजपथ, चौराहे तथा गली-कूचे झाड़-बुहार दिये गये थे, उनपर छिडक़ाव किया जा चुका था। चित्र-विचित्र, रंग-बिरंगी, छोटी-बड़ी झंडियाँ और पताकाएँ लगा दी गयी थीं। तोरन बाँध दिये गये थे ।। ८ ।। वहाँके स्त्री-पुरुष पुष्प, माला, हार, इत्र-फुलेल, चन्दन, गहने और निर्मल वस्त्रोंसे सजे हुए थे। वहाँके सुन्दर-सुन्दर घरोंमेंसे अगरके धूपकी सुगन्ध फैल रही थी ।। ९ ।। परीक्षित्‌ ! राजा भीष्मकने पितर और देवताओंका विधिपूर्वक पूजन करके ब्राह्मणोंको भोजन कराया और नियमानुसार स्वस्तिवाचन भी ।। १० ।। सुशोभित दाँतोंवाली परमसुन्दरी राजकुमारी रुक्मिणीजीको स्नान कराया गया, उनके हाथोंमें मङ्गलसूत्र कङ्कण पहनाये गये, कोहबर बनाया गया, दो नये-नये वस्त्र उन्हें पहनाये गये और वे उत्तम-उत्तम आभूषणोंसे विभूषित की गयीं ।। ११ ।। श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने साम, ऋक् और यजुर्वेदके मन्त्रोंसे उनकी रक्षा की और अथर्ववेदके विद्वान् पुरोहितने ग्रहशान्तिके लिये हवन किया ।। १२ ।। राजा भीष्मक कुलपरम्परा और शास्त्रीय विधियोंके बड़े जानकार थे। उन्होंने सोना, चाँदी, वस्त्र, गुड़ मिले हुए तिल और गौएँ ब्रह्मणोंको दीं ।। १३ ।।

इसी प्रकार चेदिनरेश राजा दमघोषने भी अपने पुत्र शिशुपालके लिये मन्त्रज्ञ ब्राह्मणोंसे अपने पुत्रके विवाह-सम्बन्धी मङ्गलकृत्य कराये ।। १४ ।। इसके बाद वे मद चुआते हुए हाथियों, सोनेकी मालाओंसे सजाये हुए रथों, पैदलों तथा घुड़सवारोंकी चतुरङ्गिणी सेना साथ लेकर कुण्डिनपुर जा पहुँचे ।। १५ ।। विदर्भराज भीष्मकने आगे आकर उनका स्वागत-सत्कार और प्रथाके अनुसार अर्चन-पूजन किया। इसके बाद उन लोगोंको पहलेसे ही निश्चित किये हुए जनवासोंमें आनन्दपूर्वक ठहरा दिया ।। १६ ।। उस बारातमें शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्त्र, विदूरथ और पौण्ंड्रक आदि शिशुपालके सहस्रों मित्र नरपति आये थे ।। १७ ।। वे सब राजा श्रीकृष्ण और बलरामजीके विरोधी थे और राजकुमारी रुक्मिणी शिशुपालको ही मिले, इस विचारसे आये थे। उन्होंने अपनेअपने मनमें यह पहलेसे ही निश्चय कर रखा था कि यदि श्रीकृष्ण बलराम आदि यदुवंशियोंके साथ आकर कन्याको हरनेकी चेष्टा करेगा तो हम सब मिलकर उससे लड़ेंगे। यही कारण था कि उन राजाओंने अपनी-अपनी पूरी सेना और रथ, घोड़े, हाथी आदि भी अपने साथ ले लिये थे ।। १८-१९ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




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