बुधवार, 2 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरपनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरपनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

रुक्मिणीहरण


श्रुत्वैतद्भगवान्रामो विपक्षीय नृपोद्यमम्

कृष्णं चैकं गतं हर्तुं कन्यां कलहशङ्कितः २०

बलेन महता सार्धं भ्रातृस्नेहपरिप्लुतः

त्वरितः कुण्डिनं प्रागाद्गजाश्वरथपत्तिभिः २१

भीष्मकन्या वरारोहा काङ्क्षन्त्यागमनं हरेः

प्रत्यापत्तिमपश्यन्ती द्विजस्याचिन्तयत्तदा २२

अहो त्रियामान्तरित उद्वाहो मेऽल्पराधसः

नागच्छत्यरविन्दाक्षो नाहं वेद्म्यत्र कारणम्

सोऽपि नावर्ततेऽद्यापि मत्सन्देशहरो द्विजः २३

अपि मय्यनवद्यात्मा दृष्ट्वा किञ्चिज्जुगुप्सितम्

मत्पाणिग्रहणे नूनं नायाति हि कृतोद्यमः २४

दुर्भगाया न मे धाता नानुकूलो महेश्वरः

देवी वा विमुखी गौरी रुद्राणी गिरिजा सती २५

एवं चिन्तयती बाला गोविन्दहृतमानसा

न्यमीलयत कालज्ञा नेत्रे चाश्रुकलाकुले २६

एवं वध्वाः प्रतीक्षन्त्या गोविन्दागमनं नृप

वाम ऊरुर्भुजो नेत्रमस्फुरन्प्रियभाषिणः २७

अथ कृष्णविनिर्दिष्टः स एव द्विजसत्तमः

अन्तःपुरचरीं देवीं राजपुत्रीं ददर्श ह २८

सा तं प्रहृष्टवदनमव्यग्रात्मगतिं सती

आलक्ष्य लक्षणाभिज्ञा समपृच्छच्छुचिस्मिता २९

तस्या आवेदयत्प्राप्तं शशंस यदुनन्दनम्

उक्तं च सत्यवचनमात्मोपनयनं प्रति ३०

तमागतं समाज्ञाय वैदर्भी हृष्टमानसा

न पश्यन्ती ब्राह्मणाय प्रियमन्यन्ननाम सा ३१

 

विपक्षी राजाओंकी इस तैयारी का पता भगवान्‌ बलरामजीको लग गया और जब उन्होंने यह सुना कि भैया श्रीकृष्ण अकेले ही राजकुमारीका हरण करनेके लिये चले गये हैं, तब उन्हें वहाँ लड़ाई-झगड़ेकी बड़ी आशङ्का हुई ।। २० ।। यद्यपि वे श्रीकृष्णका बल-विक्रम जानते थे, फिर भी भ्रातृस्नेहसे उनका हृदय भर आया; वे तुरंत ही हाथी, घोड़े, रथ और पैदलोंकी बड़ी भारी चतुरङ्गिणी सेना साथ लेकर कुण्डिनपुरके लिये चल पड़े ।। २१ ।।

इधर परमसुन्दरी रुक्मिणीजी भगवान्‌ श्रीकृष्णके शुभागमनकी प्रतीक्षा कर रही थीं। उन्होंने देखा श्रीकृष्णकी तो कौन कहे, अभी ब्राह्मणदेवता भी नहीं लौटे ! तो वे बड़ी चिन्तामें पड़ गयीं; सोचने लगीं ।। २२ ।। अहो ! अब मुझ अभागिनीके विवाहमें केवल एक रातकी देरी है। परंतु मेरे जीवनसर्वस्व कमलनयन भगवान्‌ अब भी नहीं पधारे ! इसका क्या कारण हो सकता है, कुछ निश्चय नहीं मालूम पड़ता। यही नहीं, मेरे सन्देश ले जानेवाले ब्राह्मणदेवता भी तो अभीतक नहीं लौटे ।। २३ ।। इसमें सन्देह नहीं कि भगवान्‌ श्रीकृष्णका स्वरूप परम शुद्ध है और विशुद्ध पुरुष ही उनसे प्रेम कर सकते हैं। उन्होंने मुझमें कुछ-न-कुछ बुराई देखी होगी, तभी तो मेरा हाथ पकडऩेके लियेमुझे स्वीकार करनेके लिये उद्यत होकर वे यहाँ नहीं पधार रहे हैं ? ।। २४ ।। ठीक है, मेरे भाग्य ही मन्द हैं ! विधाता और भगवान्‌ शङ्कर भी मेरे अनुकूल नहीं जान पड़ते। यह भी सम्भव है कि रुद्रपत्नी गिरिराजकुमारी सती पार्वतीजी मुझसे अप्रसन्न हों।। २५ ।। परीक्षित्‌ ! रुक्मिणीजी इसी उधेड़-बुनमें पड़ी हुई थीं। उनका सम्पूर्ण मन और उनके सारे मनोभाव भक्तमनचोर भगवान्‌ने चुरा लिये थे। उन्होंने उन्हींको सोचते-सोचते अभी समय हैऐसा समझकर अपने आँसूभरे नेत्र बन्द कर लिये ।। २६ ।। परीक्षित्‌ ! इस प्रकार रुक्मिणीजी भगवान्‌ श्रीकृष्णके शुभागमनकी प्रतीक्षा कर रही थीं। उसी समय उनकी बायीं जाँघ, भुजा और नेत्र फडक़ने लगे, जो प्रियतमके आगमनका प्रिय संवाद सूचित कर रहे थे ।। २७ ।। इतनेमें ही भगवान्‌ श्रीकृष्णके भेजे हुए वे ब्राह्मणदेवता आ गये और उन्होंने अन्त:पुरमें राजकुमारी रुक्मिणीको इस प्रकार देखा, मानो कोई ध्यानमग्न देवी हो ।। २८ ।। सती रुक्मिणीजीने देखा ब्राह्मणदेवताका मुख प्रफुल्लित है। उनके मन और चेहरेपर किसी प्रकारकी घबड़ाहट नहीं है। वे उन्हें देखकर लक्षणोंसे ही समझ गयीं कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण आ गये ! फिर प्रसन्नतासे खिलकर उन्होंने ब्राह्मणदेवतासे पूछा ।। २९ ।। तब ब्राह्मणदेवताने निवेदन किया कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण यहाँ पधार गये हैं।और उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। यह भी बतलाया कि राजकुमारीजी ! आपको ले जानेकी उन्होंने सत्य प्रतिज्ञा की है।। ३० ।। भगवान्‌ के शुभागमनका समाचार सुनकर रुक्मिणीजीका हृदय आनन्दातिरेकसे भर गया। उन्होंने इसके बदलेमें ब्राह्मणके लिये भगवान्‌ के अतिरिक्त और कुछ प्रिय न देखकर उन्होंने केवल नमस्कार कर लिया। अर्थात् जगत् की समग्र लक्ष्मी ब्राह्मणदेवताको सौंप दी ।। ३१ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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