॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरपनवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
रुक्मिणीहरण
प्राप्तौ
श्रुत्वा स्वदुहितुरुद्वाहप्रेक्षणोत्सुकौ
अभ्ययात्तूर्यघोषेण
रामकृष्णौ समर्हणैः ३२
मधुपर्कमुपानीय
वासांसि विरजांसि सः
उपायनान्यभीष्टानि
विधिवत्समपूजयत् ३३
तयोर्निवेशनं
श्रीमदुपाकल्प्य महामतिः
ससैन्ययोः
सानुगयोरातिथ्यं विदधे यथा ३४
एवं
राज्ञां समेतानां यथावीर्यं यथावयः
यथाबलं
यथावित्तं सर्वैः कामैः समर्हयत् ३५
कृष्णमागतमाकर्ण्य
विदर्भपुरवासिनः
आगत्य
नेत्राञ्जलिभिः पपुस्तन्मुखपङ्कजम् ३६
अस्यैव
भार्या भवितुं रुक्मिण्यर्हति नापरा
असावप्यनवद्यात्मा
भैष्म्याः समुचितः पतिः ३७
किञ्चित्सुचरितं
यन्नस्तेन तुष्टस्त्रिलोककृत्
अनुगृह्णातु
गृह्णातु वैदर्भ्याः पाणिमच्युतः ३८
एवं
प्रेमकलाबद्धा वदन्ति स्म पुरौकसः
कन्या
चान्तःपुरात्प्रागाद्भटैर्गुप्ताम्बिकालयम् ३९
पद्भ्यां
विनिर्ययौ द्रष्टुं भवान्याः पादपल्लवम्
सा
चानुध्यायती सम्यङ्मुकुन्दचरणाम्बुजम् ४०
यतवाङ्मातृभिः
सार्धं सखीभिः परिवारिता
गुप्ता
राजभटैः शूरैः सन्नद्धैरुद्यतायुधैः
मृडङ्गशङ्खपणवास्तूर्यभेर्यश्च
जघ्निरे ४१
नानोपहार
बलिभिर्वारमुख्याः सहस्रशः
स्रग्गन्धवस्त्राभरणैर्द्विजपत्न्यः
स्वलङ्कृताः ४२
गायन्त्यश्च
स्तुवन्तश्च गायका वाद्यवादकाः
परिवार्य
वधूं जग्मुः सूतमागधवन्दिनः ४३
आसाद्य
देवीसदनं धौतपादकराम्बुजा
उपस्पृश्य
शुचिः शान्ता प्रविवेशाम्बिकान्तिकम् ४४
तां
वै प्रवयसो बालां विधिज्ञा विप्रयोषितः
भवानीं
वन्दयांचक्रुर्भवपत्नीं भवान्विताम् ४५
नमस्ये
त्वाम्बिकेऽभीक्ष्णं स्वसन्तानयुतां शिवाम्
भूयात्पतिर्मे
भगवान्कृष्णस्तदनुमोदताम् ४६
अद्भिर्गन्धाक्षतैर्धूपैर्वासःस्रङ्माल्य
भूषणैः
नानोपहारबलिभिः
प्रदीपावलिभिः पृथक् ४७
विप्रस्त्रियः
पतिमतीस्तथा तैः समपूजयत्
लवणापूपताम्बूल
कण्ठसूत्रफलेक्षुभिः ४८
तस्यै
स्त्रियस्ताः प्रददुः शेषां युयुजुराशिषः
ताभ्यो
देव्यै नमश्चक्रे शेषां च जगृहे वधूः ४९
मुनिव्रतमथ
त्यक्त्वा निश्चक्रामाम्बिकागृहात्
प्रगृह्य
पाणिना भृत्यां रत्नमुद्रोपशोभिना ५०
राजा भीष्मक
ने सुना कि भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी मेरी कन्याका विवाह देखनेके लिये
उत्सुकतावश यहाँ पधारे हैं। तब तुरही, भेरी आदि बाजे बजवाते हुए पूजाकी सामग्री लेकर उन्होंने उनकी
अगवानी की ।। ३२ ।। और मधुपर्क, निर्मल वस्त्र तथा
उत्तम-उत्तम भेंट देकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की ।। ३३ ।। भीष्मकजी बड़े बुद्धिमान्
थे । भगवान्के प्रति उनकी बड़ी भक्ति थी। उन्होंने भगवान् को सेना और साथियोंके
सहित समस्त सामग्रियों से युक्त निवासस्थान में ठहराया और उनका यथावत्
आतिथ्य-सत्कार किया ।। ३४ ।। विदर्भराज भीष्मकजी के यहाँ निमन्त्रणमें जितने राजा
आये थे, उन्होंने उनके पराक्रम, अवस्था,
बल और धनके अनुसार सारी इच्छित वस्तुएँ देकर सबका खूब सत्कार किया
।। ३५ ।। विदर्भ देशके नागरिकों ने जब सुना कि भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ पधारे हैं,
तब वे लोग भगवान् के निवासस्थानपर आये और अपने नयनोंकी अज्जलिमें
भर-भरकर उनके वदनारविन्द का मधुर मकरन्द-रस पान करने लगे ।। ३६ ।। वे आपसमें इस
प्रकार बातचीत करते थे—रुक्मिणी इन्हींकी अर्धाङ्गिनी होनेके
योग्य है, और ये परम पवित्रमूर्ति श्यामसुन्दर रुक्मिणीके ही
योग्य पति हैं। दूसरी कोई इनकी पत्नी होनेके योग्य नहीं है ।। ३७ ।। यदि हमने अपने
पूर्वजन्म या इस जन्ममें कुछ भी सत्कर्म किया हो, तो
त्रिलोक-विधाता भगवान् हमपर प्रसन्न हों और ऐसी कृपा करें कि श्याम-सुन्दर
श्रीकृष्ण ही विदर्भराजकुमारी रुक्मिणीजीका पाणिग्रहण करें’ ।।
३८ ।।
परीक्षित्
! जिस समय प्रेम-परवश होकर पुरवासी-लोग परस्पर इस प्रकार बातचीत कर रहे थे, उसी समय रुक्मिणीजी अन्त:पुरसे निकलकर
देवीजीके मन्दिरके लिये चलीं। बहुतसे सैनिक उनकी रक्षामें नियुक्त थे ।। ३९ ।। वे
प्रेममूर्ति श्रीकृष्णचन्द्रके चरणकमलोंका चिन्तन करती हुई भगवती भवानीके
पादपल्लवोंका दर्शन करनेके लिये पैदल ही चलीं ।। ४० ।। वे स्वयं मौन थीं और माताएँ
तथा सखी-सहेलियाँ सब ओरसे उन्हें घेरे हुए थीं। शूरवीर राजसैनिक हाथोंमें अस्त्र-शस्त्र
उठाये, कवच पहने उनकी रक्षा कर रहे थे। उस समय मृदङ्ग,
शङ्ख, ढोल, तुरही और
भेरी आदि बाजे बज रहे थे ।। ४१ ।। बहुत-सी ब्राह्मणपत्नियाँ पुष्पमाला, चन्दन आदि सुगन्ध-द्रव्य और गहने- कपड़ोंसे सज-धजकर साथ-साथ चल रही थीं और
अनेकों प्रकारके उपहार तथा पूजन आदिकी सामग्री लेकर सहस्रों श्रेष्ठ वाराङ्गनाएँ
भी साथ थीं ।। ४२ ।। गवैये गाते जाते थे, बाजेवाले बाजे
बजाते चलते थे और सूत, मागध तथा वंदीजन दुलहिनके चारों ओर
जय-जयकार करते—विरद बखानते जा रहे थे ।। ४३ ।। देवीजीके
मन्दिरमें पहुँचकर रुक्मिणीजीने अपने कमलके सदृश सुकोमल हाथ-पैर धोये, आचमन कयिा; इसके बाद बाहर-भीतरसे पवित्र एवं
शान्तभावसे युक्त होकर अम्बिकादेवीके मन्दिरमें प्रवेश किया ।। ४४ ।। बहुत-सी
विधि-विधान जाननेवाली बड़ी- बूढ़ी ब्राह्मणियाँ उनके साथ थीं। उन्होंने भगवान्
शङ्करकी अद्र्धाङ्गिनी भवानीको और भगवान् शङ्करजीको भी रुक्मिणीजीसे प्रणाम
करवाया ।। ४५ ।। रुक्मिणीजीने भगवतीसे प्रार्थना की— ‘अम्बिका
माता ! आपकी गोदमें बैठे हुए आपके प्रिय पुत्र गणेशजीको तथा आपको मैं बार-बार
नमस्कार करती हूँ। आप ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि मेरी अभिलाषा पूर्ण हो। भगवान्
श्रीकृष्ण ही मेरे पति हों’ ।। ४६ ।। इसके बाद रुक्मिणीजीने
जल, गन्ध, अक्षत, धूप, वस्त्र, पुष्पमाला,
हार, आभूषण, अनेंकों
प्रकारके नैवेद्य, भेंट और आरती आदि सामग्रियोंसे
अम्बिकादेवीकी पूजा की ।। ४७ ।। तदनन्तर उक्त सामग्रियोंसे तथा नमक, पूआ, पान, कण्ठसूत्र, फल और ईखसे सुहागिन ब्राह्मणियोंकी भी पूजा की ।। ४८ ।। तब ब्राह्मणियोंने
उन्हें प्रसाद देकर आशीर्वाद दिये और दुलहिनने ब्राह्मणियों और माता अम्बिकाको
नमस्कार करके प्रसाद ग्रहण किया ।। ४९ ।। पूजा-अर्चाकी विधि समाप्त हो जानेपर
उन्होंने मौनव्रत तोड़ दिया और रत्नजटित अँगूठीसे जगमगाते हुए करकमलके द्वारा एक
सहेलीका हाथ पकडक़र वे गिरिजामन्दिरसे बाहर निकलीं ।। ५० ।।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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