॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौंसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
नृग राजाकी
कथा
कस्यचिद्द्विजमुख्यस्य भ्रष्टा गौर्मम गोधने
सम्पृक्ताविदुषा सा च मया दत्ता द्विजातये १६
तां नीयमानां तत्स्वामी दृष्ट्रोवाच ममेति तम्
ममेति परिग्राह्याह नृगो मे दत्तवानिति १७
विप्रौ विवदमानौ मामूचतुः स्वार्थसाधकौ
भवान्दातापहर्तेति तच्छ्रुत्वा मेऽभवद्भ्रमः १८
अनुनीतावुभौ विप्रौ धर्मकृच्छ्रगतेन वै
गवां लक्षं प्रकृष्टानां दास्याम्येषा प्रदीयताम् १९
भवन्तावनुगृह्णीतां किङ्करस्याविजानतः
समुद्धरतं मां कृच्छ्रात्पतन्तं निरयेऽशुचौ २०
नाहं प्रतीच्छे वै राजन्नित्युक्त्वा स्वाम्यपाक्रमत्
नान्यद्गवामप्ययुतमिच्छामीत्यपरो ययौ २१
एतस्मिन्नन्तरे यामैर्दूतैर्नीतो यमक्षयम्
यमेन पृष्टस्तत्राहं देवदेव जगत्पते २२
पूर्वं त्वमशुभं भुङ्क्ष उताहो नृपते शुभम्
नान्तं दानस्य धर्मस्य पश्ये लोकस्य भास्वतः २३
पूर्वं देवाशुभं भुञ्ज इति प्राह पतेति सः
तावदद्रा क्षमात्मानं कृकलासं पतन्प्रभो २४
ब्रह्मण्यस्य वदान्यस्य तव दासस्य केशव
स्मृतिर्नाद्यापि विध्वस्ता भवत्सन्दर्शनार्थिनः २५
स त्वं कथं मम विभोऽपिथः परात्मा
योगेश्वरः श्रुतिदृशामलहृद्विभाव्यः
साक्षादधोक्षज उरुव्यसनान्धबुद्धेः
स्यान्मेऽनुदृश्य इह यस्य भवापवर्गः २६
देवदेव जगन्नाथ गोविन्द पुरुषोत्तम
नारायण हृषीकेश पुण्यश्लोकाच्युताव्यय २७
अनुजानीहि मां कृष्ण यान्तं देवगतिं प्रभो
यत्र क्वापि सतश्चेतो भूयान्मे त्वत्पदास्पदम् २८
नमस्ते सर्वभावाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये
कृष्णाय वासुदेवाय योगानां पतये नमः २९
इत्युक्त्वा तं परिक्रम्य पादौ स्पृष्ट्वा स्वमौलिना
अनुज्ञातो विमानाग्र्यमारुहत्पश्यतां नृणाम् ३०
एक दिन किसी
अप्रतिग्रही (दान न लेनेवाले), तपस्वी ब्राह्मणकी एक गाय बिछुडक़र मेरी गौओंमें आ मिली। मुझे इस बातका
बिलकुल पता न चला। इसलिये मैंने अनजानमें उसे किसी दूसरे ब्राह्मणको दान कर दिया
।। १६ ।। जब उस गायको वे ब्राह्मण ले चले, तब उस गायके असली
स्वामीने कहा—‘यह गौ मेरी है।’ दान ले
जानेवाले ब्राह्मणने कहा—‘यह तो मेरी है, क्योंकि राजा नृगने मुझे इसका दान किया है’ ।। १७ ।।
वे दोनों ब्राह्मण आपसमें झगड़ते हुए अपनी-अपनी बात कायम करनेके लिये मेरे पास
आये। एकने कहा—‘यह गाय अभी-अभी आपने मुझे दी है’ और दूसरेने कहा कि ‘यदि ऐसी बात है तो तुमने मेरी
गाय चुरा ली है।’ भगवन् ! उन दोनों ब्राह्मणोंकी बात सुनकर
मेरा चित्त भ्रमित हो गया ।। १८ ।। मैंने धर्मसंकटमें पडक़र उन दोनोंसे बड़ी
अनुनय-विनय की और कहा कि ‘मैं बदलेमें एक लाख उत्तम गौएँ
दूँगा। आपलोग मुझे यह गाय दे दीजिये ।। १९ ।। मैं आपलोगोंका सेवक हूँ। मुझसे
अनजानमें यह अपराध बन गया है। मुझपर आपलोग कृपा कीजिये और मुझे इस घोर कष्टसे तथा
घोर नरकमें गिरनेसे बचा लीजिये’ ।। २० ।। ‘राजन् ! मैं इसके बदलेमें कुछ नहीं लूँगा।’ यह कहकर
गायका स्वामी चला गया। ‘तुम इसके बदलेमें एक लाख ही नहीं,
दस हजार गौएँ और दो तो भी मैं लेनेका नहीं।’ इस
प्रकार कहकर दूसरा ब्राह्मण भी चला गया ।। २१ ।। देवाधिदेव जगदीश्वर ! इसके बाद
आयु समाप्त होनेपर यमराजके दूत आये और मुझे यमपुरी ले गये। वहाँ यमराजने मुझसे
पूछा— ।। २२ ।। ‘राजन् ! तुम पहले अपने
पापका फल भोगना चाहते हो या पुण्यका ? तुम्हारे दान और
धर्मके फलस्वरूप तुम्हें ऐसा तेजस्वी लोक प्राप्त होनेवाला है, जिसकी कोई सीमा ही नहीं है’ ।। २३ ।। भगवन् ! तब
मैंने यमराजसे कहा—‘देव ! पहले मैं अपने पापका फल भोगना
चाहता हूँ।’ और उसी क्षण यमराजने कहा—‘तुम
गिर जाओ।’ उनके ऐसा कहते ही मैं वहाँसे गिरा और गिरते ही समय
मैंने देखा कि मैं गिरगिट हो गया हूँ ।। २४ ।। प्रभो ! मैं ब्राह्मणोंका सेवक,
उदार, दानी और आपका भक्त था। मुझे इस बातकी
उत्कट अभिलाषा थी कि किसी प्रकार आपके दर्शन हो जायँ। इस प्रकार आपकी कृपासे मेरे
पूर्वजन्मोंकी स्मृति नष्ट न हुई ।। २५ ।। भगवन् ! आप परमात्मा हैं। बड़े-बड़े
शुद्ध-हृदय योगीश्वर उपनिषदोंकी दृष्टिसे (अभेददृष्टिसे) अपने हृदयमें आपका ध्यान
करते रहते हैं। इन्द्रियातीत परमात्मन् ! साक्षात् आप मेरे नेत्रोंके सामने कैसे आ
गये ! क्योंकि मैं तो अनेक प्रकारके व्यसनों, दु:खद
कर्मोंमें फँसकर अंधा हो रहा था। आपका दर्शन तो तब होता है, जब
संसारके चक्करसे छुटकारा मिलनेका समय आता है ।। २६ ।। देवताओंके भी आराध्यदेव !
पुरुषोत्तम गोविन्द ! आप ही व्यक्त और अव्यक्त जगत् तथा जीवोंके स्वामी हैं।
अविनाशी अच्युत ! आपकी कीर्ति पवित्र है। अन्तर्यामी नारायण ! आप ही समस्त
वृत्तियों और इन्द्रियोंके स्वामी हैं ।। २७ ।। प्रभो ! श्रीकृष्ण ! मैं अब
देवताओंके लोकमें जा रहा हूँ। आप मुझे आज्ञा दीजिये। आप ऐसी कृपा कीजिये कि मैं
चाहे कहीं भी क्यों न रहूँ, मेरा चित्त सदा आपके चरणकमलोंमें
ही लगा रहे ।। २८ ।। आप समस्त कार्यों और कारणोंके रूपमें विद्यमान हैं। आपकी
शक्ति अनन्त है और आप स्वयं ब्रह्म हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
सच्चिदानन्दस्वरूप सर्वान्तर्यामी वासुदेव श्रीकृष्ण ! आप समस्त योगोंके स्वामी,
योगेश्वर हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ।। २९ ।।
राजा नृगने इस
प्रकार कहकर भगवान्की परिक्रमा की और अपने मुकुटसे उनके चरणोंका स्पर्श करके प्रणाम
किया। फिर उनसे आज्ञा लेकर सबके देखते-देखते ही वे श्रेष्ठ विमानपर सवार हो गये ।।
३० ।।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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