॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौंसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
नृग राजाकी
कथा
श्रीबादरायणिरुवाच
एकदोपवनं राजन्जग्मुर्यदुकुमारकाः
विहर्तुं साम्बप्रद्युम्न चारुभानुगदादयः १
क्रीडित्वा सुचिरं तत्र विचिन्वन्तः पिपासिताः
जलं निरुदके कूपे ददृशुः सत्त्वमद्भुतम् २
कृकलासं गिरिनिभं वीक्ष्य विस्मितमानसाः
तस्य चोद्धरणे यत्नं चक्रुस्ते कृयान्विताः ३
चर्मजैस्तान्तवैः पाशैर्बद्ध्वा पतितमर्भकाः
नाशक्नुरन्समुद्धर्तुं कृष्णायाचख्युरुत्सुकाः ४
तत्रागत्यारविन्दाक्षो भगवान्विश्वभावनः
वीक्ष्योज्जहार वामेन तं करेण स लीलया ५
स उत्तमःश्लोककराभिमृष्टो
विहाय सद्यः कृकलासरूपम्
सन्तप्तचामीकरचारुवर्णः
स्वर्ग्यद्भुतालङ्करणाम्बरस्रक् ६
पप्रच्छ विद्वानपि तन्निदानं
जनेषु विख्यापयितुं मुकुन्दः
कस्त्वं महाभाग वरेण्यरूपो
देवोत्तमं त्वां गणयामि नूनम् ७
दशामिमां वा कतमेन कर्मणा
सम्प्रापितोऽस्यतदर्हः सुभद्र
आत्मानमाख्याहि विवित्सतां नो
यन्मन्यसे नः क्षममत्र वक्तुम् ८
श्रीशुक उवाच
इति स्म राजा सम्पृष्टः कृष्णेनानन्तमूर्तिना
माधवं प्रणिपत्याह किरीटेनार्कवर्चसा ९
नृग उवाच
नृगो नाम नरेन्द्रो ऽहमिक्ष्वाकुतनयः प्रभो
दानिष्वाख्यायमानेषु यदि ते कर्णमस्पृशम् १०
किं नु तेऽविदितं नाथ सर्वभूतात्मसाक्षिणः
कालेनाव्याहतदृशो वक्ष्येऽथापि तवाज्ञया ११
यावत्यः सिकता भूमेर्यावत्यो दिवि तारकाः
यावत्यो वर्षधाराश्च तावतीरददं स्म गाः १२
पयस्विनीस्तरुणीः शीलरूप-
गुणोपपन्नाः कपिला हेमसृङ्गीः
न्यायार्जिता रूप्यखुराः सवत्सा
दुकूलमालाभरणा ददावहम् १३
स्वलङ्कृतेभ्यो गुणशीलवद्भ्यः
सीदत्कुटुम्बेभ्य ऋतव्रतेभ्यः
तपःश्रुतब्रह्मवदान्यसद्भ्यः
प्रादां युवभ्यो द्विजपुङ्गवेभ्यः १४
गोभूहिरण्यायतनाश्वहस्तिनः
कन्याः सदासीस्तिलरूप्यशय्याः
वासांसि रत्नानि परिच्छदान्रथा-
निष्टं च यज्ञैश्चरितं च पूर्तम् १५
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—प्रिय परीक्षित् ! एक दिन
साम्ब, प्रद्युम्र, चारुभानु और गद आदि
यदुवंशी राजकुमार घूमनेके लिये उपवनमें गये ।। १ ।। वहाँ बहुत देरतक खेल खेलते हुए
उन्हें प्यास लग आयी। अब वे इधर-उधर जलकी खोज करने लगे। वे एक कूएँके पास गये;
उसमें जल तो था नहीं, एक बड़ा विचित्र जीव दीख
पड़ा ।। २ ।। वह जीव पर्वतके समान आकारका एक गिरगिट था। उसे देखकर उनके आश्चर्यकी
सीमा न रही। उनका हृदय करुणासे भर आया और वे उसे बाहर निकालनेका प्रयत्न करने लगे
।। ३ ।। परंतु जब वे राजकुमार उस गिरे हुए गिरगिटको चमड़े और सूतकी रस्सियोंसे
बाँधकर बाहर न निकाल सके, तब कुतूहलवश उन्होंने यह आश्चर्यमय
वृत्तान्त भगवान् श्रीकृष्णके पास जाकर निवेदन किया ।। ४ ।। जगत्के जीवनदाता
कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण उस कूएँपर आये। उसे देखकर उन्होंने बायें हाथसे
खेल-खेलमें—अनायास ही उसको बाहर निकाल लिया ।। ५ ।। भगवान्
श्रीकृष्णके करकमलोंका स्पर्श होते ही उसका गिरगिट-रूप जाता रहा और वह एक स्वर्गीय
देवताके रूपमें परणित हो गया। अब उसके शरीरका रंग तपाये हुए सोनेके समान चमक रहा
था। और उसके शरीरपर अद्भुत वस्त्र, आभूषण और पुष्पोंके हार
शोभा पा रहे थे ।। ६ ।। यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण जानते थे कि इस दिव्य पुरुषको
गिरगिट-योनि क्यों मिली थी, फिर भी वह कारण सर्वसाधारणको
मालूम हो जाय, इसलिये उन्होंने उस दिव्य पुरुषसे पूछा—‘महाभाग ! तुम्हारा रूप तो बहुत ही सुन्दर है। तुम हो कौन ? मैं तो ऐसा समझता हूँ कि तुम अवश्य ही कोई श्रेष्ठ देवता हो ।। ७ ।।
कल्याणमूर्ते ! किस कर्मके फलसे तुम्हें इस योनिमें आना पड़ा था ? वास्तवमें तुम इसके योग्य नहीं हो। हमलोग तुम्हारा वृत्तान्त जानना चाहते
हैं। यदि तुम हमलोगोंको वह बतलाना उचित समझो तो अपना परिचय अवश्य दो’ ।। ८ ।।
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! जब अनन्तमूर्ति
भगवान् श्रीकृष्णने राजा नृगसे [क्योंकि वे ही इस रूपमें प्रकट हुए थे] इस प्रकार
पूछा, तब उन्होंने अपना सूर्यके समान जाज्वल्यमान मुकुट
झुकाकर भगवान् को प्रणाम किया और वे इस प्रकार कहने लगे ।। ९ ।।
राजा नृगने
कहा—प्रभो ! मैं महाराज
इक्ष्वाकुका पुत्र राजा नृग हूँ। जब कभी किसीने आपके सामने दानियोंकी गिनती की
होगी, तब उसमें मेरा नाम भी अवश्य ही आपके कानोंमें पड़ा
होगा ।। १० ।। प्रभो ! आप समस्त प्राणियोंकी एक-एक वृत्तिके साक्षी हैं। भूत और
भविष्यका व्यवधान भी आपके अखण्ड ज्ञानमें किसी प्रकारकी बाधा नहीं डाल सकता। अत:
आपसे छिपा ही क्या है ? फिर भी मैं आपकी आज्ञाका पालन करनेके
लिये कहता हूँ ।। ११ ।। भगवन् ! पृथ्वीमें जितने धूलिकण हैं, आकाशमें जितने तारे हैं और वर्षामें जितनी जलकी धाराएँ गिरती हैं, मैंने उतनी ही गौएँ दान की थीं ।। १२ ।। वे सभी गौएँ दुधार, नौजवान, सीधी, सुन्दर, सुलक्षणा और कपिला थीं। उन्हें मैंने न्यायके धनसे प्राप्त किया था। सबके
साथ बछड़े थे। उनके सींगोंमें सोना मढ़ दिया गया था और खुरोंमें चाँदी। उन्हें
वस्त्र, हार और गहनोंसे सजा दिया जाता था। ऐसी गौएँ मैंने दी
थीं ।। १३ ।। भगवन् ! मैं युवावस्थासे सम्पन्न श्रेष्ठ ब्राह्मणकुमारों को—जो सद्गुणी, शीलसम्पन्न, कष्टमें
पड़े हुए कुटुम्बवाले, दम्भरहित तपस्वी, वेदपाठी, शिष्योंको विद्यादान करनेवाले तथा
सच्चरित्र होते—वस्त्राभूषणसे अलंकृत करता और उन गौओंका दान
करता ।। १४ ।। इस प्रकार मैंने बहुत-सी गौएँ, पृथ्वी,
सोना, घर, घोड़े,
हाथी, दासियोंके सहित कन्याएँ, तिलोंके पर्वत, चाँदी, शय्या,
वस्त्र, रत्न, गृह-सामग्री
और रथ आदि दान किये। अनेकों यज्ञ किये और बहुत-से कूएँ, बावली
आदि बनवाये ।। १५ ।।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
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