॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पैंसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
श्रीबलरामजीका
व्रजगमन
श्रीशुक उवाच
बलभद्रः कुरुश्रेष्ठ भगवान् रथमास्थितः ।
सुहृद्दिदृक्षुरुत्कण्ठः प्रययौ नन्दगोकुलम् ॥ ०१ ॥
परिष्वक्तश्चिरोत्कण्ठैर्गोपैर्गोपीभिरेव च ।
रामोऽभिवाद्य पितरावाशीर्भिरभिनन्दितः ॥ ०२ ॥
चिरं नः पाहि दाशार्ह सानुजो जगदीश्वरः ।
इत्यारोप्याङ्कमालिङ्ग्य नेत्रैः सिषिचतुर्जलैः ॥ ०३ ॥
गोपवृद्धांश्च विधिवद्यविष्ठैरभिवन्दितः ।
यथावयो यथासख्यं यथासम्बन्धमात्मनः ॥ ०४ ॥
समुपेत्याथ गोपालान् हास्यहस्तग्रहादिभिः ।
विश्रान्तं सुखमासीनं पप्रच्छुः पर्युपागताः ॥ ०५ ॥
पृष्टाश्चानामयं स्वेषु प्रेमगद्गदया गिरा ।
कृष्णे कमलपत्राक्षे सन्न्यस्ताखिलराधसः ॥ ०६ ॥
कच्चिन्नो बान्धवा राम सर्वे कुशलमासते ।
कच्चित्स्मरथ नो राम यूयं दारसुतान्विताः ॥ ०७ ॥
दिष्ट्या कंसो हतः पापो दिष्ट्या मुक्ताः सुहृज्जनाः ।
निहत्य निर्जित्य रिपून् दिष्ट्या दुर्गं समाश्रीताः ॥ ०८ ॥
गोप्यो हसन्त्यः पप्रच्छू रामसन्दर्शनादृताः ।
कच्चिदास्ते सुखं कृष्णः पुरस्त्रीजनवल्लभः ॥ ०९ ॥
कच्चित्स्मरति वा बन्धून् पितरं मातरं च सः ।
अप्यसौ मातरं द्रष्टुं सकृदप्यागमिष्यति ।
अपि वा स्मरतेऽस्माकमनुसेवां महाभुजः ॥ १०॥
मातरं पितरं भ्रातॄन् पतीन् पुत्रान् स्वसॄनपि ।
यदर्थे जहिम दाशार्ह दुस्त्यजान् स्वजनान् प्रभो ॥ ११ ॥
ता नः सद्यः परित्यज्य गतः सञ्छिन्नसौहृदः ।
कथं नु तादृशं स्त्रीभिर्न श्रद्धीयेत भाषितम् ॥ १२ ॥
कथं नु गृह्णन्त्यनवस्थितात्मनो
वचः कृतघ्नस्य बुधाः पुरस्त्रियः ।
गृह्णन्ति वै चित्रकथस्य सुन्दर-
स्मितावलोकोच्छ्वसितस्मरातुराः ॥ १३ ॥
किं नस्तत्कथया गोप्यः कथाः कथयतापराः ।
यात्यस्माभिर्विना कालो यदि तस्य तथैव नः ॥ १४ ॥
इति प्रहसितं शौरेर्जल्पितं चारुवीक्षितम् ।
गतिं प्रेमपरिष्वङ्गं स्मरन्त्यो रुरुदुः स्त्रियः ॥ १५ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! भगवान्
बलरामजीके मनमें व्रजके नन्दबाबा आदि स्वजन सम्बन्धियोंसे मिलनेकी बड़ी इच्छा और
उत्कण्ठा थी। अब वे रथपर सवार होकर द्वारका से नन्दबाबाके व्रजमें आये ।। १ ।। इधर
उनके लिये व्रजवासी गोप और गोपियाँ भी बहुत दिनों से उत्कण्ठित थीं। उन्हें अपने
बीचमें पाकर सबने बड़े प्रेमसे गले लगाया। बलरामजी ने माता यशोदा और नन्दबाबा को
प्रणाम किया। उन लोगोंने भी आशीर्वाद देकर उनका अभिनन्दन किया ।। २ ।। यह कहकर कि ‘बलरामजी ! तुम जगदीश्वर हो, अपने छोटे भाई
श्रीकृष्णके साथ सर्वदा हमारी रक्षा करते रहो, उनको गोदमें
ले लिया और अपने प्रेमाश्रुओंसे उन्हें भिगो दिया ।। ३ ।। इसके बाद बड़े-बड़े
गोपोंको बलरामजीने और छोटे-छोटे गोपोंने बलरामजीको नमस्कार किया। वे अपनी आयु,
मेल-जोल और सम्बन्धके अनुसार सबसे मिले-जुले ।। ४ ।। ग्वालबालोंके
पास जाकर किसीसे हाथ मिलाया, किसीसे मीठी-मीठी बातें कीं,
किसीको खूब हँस-हँसकर गले लगाया। इसके बाद जब बलरामजीकी थकावट दूर
हो गयी, वे आरामसे बैठ गये, तब सब
ग्वाल उनके पास आये। इन ग्वालोंने कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णके लिये समस्त भोग,
स्वर्ग और मोक्षतक त्याग रखा था। बलरामजीने जब उनके और उनके
घरवालोंके सम्बन्धमें कुशलप्रश्र किया, तब उन्होंने
प्रेम-गद्गद वाणीसे उनसे प्रश्र किया ।। ५-६ ।। ‘बलरामजी !
वसुदेवजी आदि हमारे सब भाई-बन्धु सकुशल हैं न ? अब आपलोग
स्त्री-पुत्र आदिके साथ रहते हैं, बाल-बच्चेदार हो गये हैं;
क्या कभी आपलोगोंको हमारी याद भी आती है ?।। ७
।। यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि पापी कंसको आपलोगोंने मार डाला और अपने
सुहृद्-सम्बन्धियोंको बड़े कष्टसे बचा लिया। यह भी कम आनन्दकी बात नहीं है कि
आपलोगोंने और भी बहुत-से शत्रुओंको मार डाला या जीत लिया और अब अत्यन्त सुरक्षित
दुर्ग (किले) में आपलोग निवास करते हैं’ ।। ८ ।।
परीक्षित् !
भगवान् बलरामजीके दर्शनसे, उनकी प्रेमभरी चितवनसे
गोपियाँ निहाल हो गयीं। उन्होंने हँसकर पूछा—‘क्यों बलरामजी
! नगर-नारियोंके प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण अब सकुशल तो हैं न ?।।
९ ।। क्या कभी उन्हें अपने भाई-बन्धु और पिता-माताकी भी याद आती है ! क्या वे अपनी
माताके दर्शनके लिये एक बार भी यहाँ आ सकेंगे ! क्या महाबाहु श्रीकृष्ण कभी
हमलोगोंकी सेवाका भी कुछ स्मरण करते हैं ।। १० ।। आप जानते हैं कि स्वजन-सम्बन्धियोंको
छोडऩा बहुत ही कठिन है। फिर भी हमने उनके लिये माँ-बाप, भाई-बन्धु,
पति-पुत्र और बहिन-बेटियोंको भी छोड़ दिया। परंतु प्रभो ! वे
बात-की-बातमें हमारे सौहार्द और प्रेमका बन्धन काटकर, हमसे
नाता तोडक़र परदेश चले गये; हमलोगोंको बिलकुल ही छोड़ दिया।
हम चाहतीं तो उन्हें रोक लेतीं; परंतु जब वे कहते कि हम
तुम्हारे ऋणी हैं—तुम्हारे उपकारका बदला कभी नहीं चुका सकते,
तब ऐसी कौन-सी स्त्री है, जो उनकी मीठी-मीठी
बातोंपर विश्वास न कर लेती’ ।। ११-१२ ।। एक गोपीने कहा—‘बलरामजी ! हम तो गाँवकी गँवार ग्वालिनें ठहरीं, उनकी
बातोंमें आ गयीं। परंतु नगरकी स्त्रियाँ तो बड़ी चतुर होती हैं। भला, वे चञ्चल और कृतघ्न श्रीकृष्णकी बातोंमें क्यों फँसने लगीं; उन्हें तो वे नहीं छका पाते होंगे !’ दूसरी गोपीने
कहा—‘नहीं सखी, श्रीकृष्ण बातें
बनानेमें तो एक ही हैं। ऐसी रंग-बिरंगी मीठी-मीठी बातें गढ़ते हैं कि क्या कहना !
उनकी सुन्दर मुसकराहट और प्रेमभरी चितवनसे नगर-नारियाँ भी प्रेमावेशसे व्याकुल हो
जाती होंगी और वे अवश्य उनकी बातोंमें आकर अपनेको निछावर कर देती होंगी’ ।। १३ ।। तीसरी गोपीने कहा—‘अरी गोपियो ! हमलोगोंको
उसकी बातसे क्या मतलब है ? यदि समय ही काटना है तो कोई दूसरी
बात करो। यदि उस निष्ठुरका समय हमारे बिना बीत जाता है तो हमारा भी उसीकी तरह,
भले ही दु:खसे क्यों न हो, कट ही जायगा’
।। १४ ।। अब गोपियोंके भाव-नेत्रोंके सामने भगवान् श्रीकृष्णकी
हँसी, प्रेमभरी बातें, चारु चितवन,
अनूठी चाल और प्रेमालिङ्गन आदि मूर्तिमान् होकर नाचने लगे। वे उन
बातोंकी मधुर स्मृतिमें तन्मय होकर रोने लगीं ।। १५ ।।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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