॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पैंसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
श्रीबलरामजीका
व्रजगमन
सङ्कर्षणस्ताः कृष्णस्य सन्देशैर्हृदयंगमैः ।
सान्त्वयामास भगवान्नानानुनयकोविदः ॥ १६ ॥
द्वौ मासौ तत्र चावात्सीन्मधुं माधवं एव च ।
रामः क्षपासु भगवान् गोपीनां रतिमावहन् ॥ १७ ॥
पूर्णचन्द्रकलामृष्टे कौमुदीगन्धवायुना ।
यमुनोपवने रेमे सेविते स्त्रीगणैर्वृतः ॥ १८ ॥
वरुणप्रेषिता देवी वारुणी वृक्षकोटरात् ।
पतन्ती तद्वनं सर्वं स्वगन्धेनाध्यवासयत् ॥ १९ ॥
तं गन्धं मधुधाराया वायुनोपहृतं बलः ।
आघ्रायोपगतस्तत्र ललनाभिः समं पपौ ॥ २० ॥
उपगीयमानचरितो वनिताभिर्हलायुध ।
वनेषु व्यचरत्क्षीवो मदविह्वललोचनः ॥ २१ ॥
स्रग्व्येककुण्डलो मत्तो वैजयन्त्या च मालया ।
बिभ्रत्स्मितमुखाम्भोजं स्वेदप्रालेयभूषितम् ॥ २२ ॥
स आजुहाव यमुनां जलक्रीडार्थमीश्वरः ।
निजं वाक्यमनादृत्य मत्त इत्यापगां बलः ॥
अनागतां हलाग्रेण कुपितो विचकर्ष ह ॥ २३ ॥
पापे त्वं मामवज्ञाय यन्नायासि मयाहुता ।
नेष्ये त्वां लाङ्गलाग्रेण शतधा कामचारिणीम् ॥ २४ ॥
एवं निर्भर्त्सिता भीता यमुना यदुनन्दनम् ।
उवाच चकिता वाचं पतिता पादयोर्नृप ॥ २५ ॥
राम राम महाबाहो न जाने तव विक्रमम् ।
यस्यैकांशेन विधृता जगती जगतः पते ॥ २६ ॥
परं भावं भगवतो भगवन्मामजानतीम् ।
मोक्तुमर्हसि विश्वात्मन् प्रपन्नां भक्तवत्सल ॥ २७ ॥
ततो व्यमुञ्चद्यमुनां याचितो भगवान् बलः ।
विजगाह जलं स्त्रीभिः करेणुभिरिवेभराट् ॥ २८ ॥
कामं विहृत्य सलिलादुत्तीर्णायासीताम्बरे ।
भूषणानि महार्हाणि ददौ कान्तिः शुभां स्रजम् ॥ २९ ॥
वसित्वा वाससी नीले मालां आमुच्य काञ्चनीम् ।
रेये स्वलङ्कृतो लिप्तो माहेन्द्र इव वारणः ॥ ३० ॥
अद्यापि दृश्यते राजन् यमुनाकृष्टवर्त्मना ।
बलस्यानन्तवीर्यस्य वीर्यं सूचयतीव हि ॥ ३१॥
एवं सर्वा निशा याता एकेव रमतो व्रजे ।
रामस्याक्षिप्तचित्तस्य माधुर्यैर्व्रजयोषिताम् ॥ ३२ ॥
परीक्षित् !
भगवान् बलरामजी नाना प्रकारसे अनुनय-विनय करने में बड़े निपुण थे। उन्होंने
भगवान् श्रीकृष्ण के हृदयस्पर्शी और लुभावने सन्देश सुना-सुनाकर गोपियोंको
सान्त्वना दी ।। १६ ।। और वसन्त के दो महीने—चैत्र और वैशाख वहीं बिताये। वे रात्रिके समय गोपियोंमें रहकर उनके
प्रेमकी अभिवृद्धि करते। क्यों न हो, भगवान् राम ही जो ठहरे
! ।। १७ ।। उस समय कुमुदिनीकी सुगन्ध लेकर भीनी-भीनी वायु चलती रहती, पूर्ण चन्द्रमाकी चाँदनी छिटककर यमुनाजीके तटवर्ती उपवन को उज्ज्वल कर
देती और भगवान् बलराम गोपियों के साथ वहीं विहार करते ।। १८ ।। वरुणदेव ने अपनी
पुत्री वारुणीदेवीको वहाँ भेज दिया था। वह एक वृक्ष के खोडऱ से बह निकली। उसने
अपनी सुगन्धसे सारे वनको सुगन्धित कर दिया ।। १९ ।। मधुधारा की वह सुगन्ध वायुने
बलरामजीके पास पहुँचायी, मानो उसने उन्हें उपहार दिया हो !
उसकी महँक से आकृष्ट होकर बलरामजी गोपियोंको लेकर वहाँ पहुँच गये और उनके साथ उसका
पान किया ।। २० ।। उस समय गोपियाँ बलरामजीके चारों ओर उनके चरित्रका गान कर रही
थीं, और वे मतवाले-से होकर वनमें विचर रहे थे। उनके नेत्र
आनन्दमदसे विह्वल हो रहे थे ।। २१ ।। गलेमें पुष्पोंका हार शोभा पा रहा था।
वैजयन्तीकी माला पहने हुए आनन्दोन्मत्त हो रहे थे। उनके एक कानमें कुण्डल झलक रहा
था। मुखारविन्दपर मुसकराहटकी शोभा निराली ही थी। उसपर पसीनेकी बूँदें हिमकणके समान
जान पड़ती थीं ।। २२ ।। सर्वशक्तिमान् बलरामजीने जलक्रीडा करनेके लिये यमुनाजीको
पुकारा। परंतु यमुनाजीने यह समझकर कि ये तो मतवाले हो रहे हैं, उनकी आज्ञाका उल्लङ्घन कर दिया; वे नहीं आयीं। तब
बलरामजीने क्रोधपूर्वक अपने हलकी नोकसे उन्हें खींचा ।। २३ ।। और कहा ‘पापिनी यमुने ! मेरे बुलानेपर भी तू मेरी आज्ञाका उल्लङ्घन करके यहाँ नहीं
आ रही है, मेरा तिरस्कार कर रही है ! देख, अब मैं तुझे तेरे स्वेच्छाचारका फल चखाता हूँ। अभी-अभी तुझे हलकी नोकसे
सौ-सौ टुकड़े किये देता हूँ’ ।। २४ ।।जब बलरामजीने यमुनाजीको
इस प्रकार डाँटा- फटकारा, तब वे चकित और भयभीत होकर
बलरामजीके चरणोंपर गिर पड़ीं और गिड़गिड़ाकर प्रार्थना करने लगीं— ।। २५ ।। ‘लोकाभिराम बलरामजी ! महाबाहो ! मैं आपका
पराक्रम भूल गयी थी। जगत्पते ! अब मैं जान गयी कि आपके अंशमात्र शेषजी इस सारे
जगत्को धारण करते हैं ।। २६ ।। भगवन् ! आप परम ऐश्वर्यशाली हैं। आपके वास्तविक स्वरूपको
न जाननेके कारण ही मुझसे यह अपराध बन गया है। सर्वस्वरूप भक्तवत्सल ! मैं आपकी
शरणमें हूँ। आप मेरी भूल- चूक क्षमा कीजिये, मुझे छोड़
दीजिये’ ।। २७ ।।
अब यमुनाजीकी
प्रार्थना स्वीकार करके भगवान् बलरामजी ने उन्हें क्षमा कर दिया और फिर जैसे
गजराज हथिनियों के साथ क्रीडा करता है,
वैसे ही वे गोपियोंके साथ जलक्रीडा करने लगे ।। २८ ।। जब वे यथेष्ट
जल-विहार करके यमुनाजीसे बाहर निकले, तब लक्ष्मीजीने उन्हें
नीलाम्बर, बहुमूल्य आभूषण और सोनेका सुन्दर हार दिया ।। २९
।। बलरामजीने नीले वस्त्र पहन लिये और सोनेकी माला गलेमें डाल ली। वे अङ्गराग
लगाकर, सुन्दर भूषणोंसे विभूषित होकर इस प्रकार शोभायमान हुए
मानो इन्द्र का श्वेतवर्ण ऐरावत हाथी हो ।। ३० ।। परीक्षित् ! यमुनाजी अब भी
बलरामजीके खींचे हुए मार्गसे बहती हैं और वे ऐसी जान पड़ती हैं, मानो अनन्तशक्ति भगवान् बलरामजीका यश-गान कर रही हों ।। ३१ ।। बलरामजीका
चित्त व्रजवासिनी गोपियों के माधुर्य से इस प्रकार मुग्ध हो गया कि उन्हें समयका
कुछ ध्यान ही न रहा, बहुत-सी रात्रियाँ एक रातके समान व्यतीत
हो गयीं। इस प्रकार बलरामजी व्रजमें विहार करते रहे ।। ३२ ।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे बलदेवविजये यामुनाकर्षणं नाम पञ्चषष्टितमोऽध्यायः
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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