रविवार, 20 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सड़सठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सड़सठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

द्विविद का उद्धार

 

श्रीराजोवाच -

भुयोऽहं श्रोतुमिच्छामि रामस्याद्‌भुतकर्मणः ।

 अनन्तस्याप्रमेयस्य यदन्यत् कृतवान् प्रभुः ॥ १ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

नरकस्य सखा कश्चिद् द्विविदो नाम वानरः ।

 सुग्रीवसचिवः सोऽथ भ्राता मैन्दस्य वीर्यवान् ॥ २ ॥

 सख्युः सोऽपचितिं कुर्वन् वानरो राष्ट्रविप्लवम् ।

 पुरग्रामाकरान् घोषान् अदहद् वह्निमुत्सृजन् ॥ ३ ॥

 क्वचित् स शैलानुत्पाट्य तैर्देशान् समचूर्णयत् ।

 आनर्तान् सुतरामेव यत्रास्ते मित्रहा हरिः ॥ ४ ॥

 क्वचित् समुद्रमध्यस्थो दोर्भ्यां उत्क्षिप्य तज्जलम् ।

 देशान् नागायुतप्राणो वेलाकूले न्यमज्जयत् ॥ ५ ॥

 आश्रमान् ऋषिमुख्यानां कृत्वा भग्नवनस्पतीन् ।

 अदूषयत् शकृत् मूत्रैः अग्नीन् वैतानिकान् खलः ॥ ६ ॥

 पुरुषान् योषितो दृप्तः क्ष्माभृद्द्रोणीगुहासु सः ।

 निक्षिप्य चाप्यधाच्छैलैः पेशस्क्कास्कारीव कीटकम् ॥ ७ ॥

 एवं देशान् विप्रकुर्वन् दूषयंश्च कुलस्त्रियः ।

 श्रुत्वा सुललितं गीतं गिरिं रैवतकं ययौ ॥ ८ ॥

 तत्रापश्यद् यदुपतिं रामं पुष्करमालिनम् ।

 सुदर्शनीयसर्वाङ्गं ललनायूथमध्यगम् ॥ ९ ॥

 गायन्तं वारुणीं पीत्वा मदविह्वललोचनम् ।

 विभ्राजमानं वपुषा प्रभिन्नमिव वारणम् ॥ १० ॥

 दुष्टः शाखामृगः शाखां आरूढः कंपयन् द्रुमान् ।

 चक्रे किलकिलाशब्दं आत्मानं संप्रदर्शयन् ॥ ११ ॥

 तस्य धार्ष्ट्यं कपेर्वीक्ष्य तरुण्यो जातिचापलाः ।

 हास्यप्रिया विजहसुः बलदेवपरिग्रहाः ॥ १२ ॥

 ता हेलयामास कपिः भूक्षेपैः संमुखादिभिः ।

 दर्शयन् स्वगुदं तासां रामस्य च निरीक्षितः ॥ १३ ॥

 तं ग्राव्णा प्राहरत् क्रुद्धो बलः प्रहरतां वरः ।

 स वञ्चयित्वा ग्रावाणं मदिराकलशं कपिः ॥ १४ ॥

 गृहीत्वा हेलयामास धूर्तस्तं कोपयन् हसन् ।

 निर्भिद्य कलशं दुष्टो वासांस्यास्फालयद् बलम् ॥ १५ ॥

 

राजा परीक्षित्‌ ने पूछाभगवान्‌ बलरामजी सर्वशक्तिमान् एवं सृष्टि-प्रलय की सीमा से परे, अनन्त हैं। उनका स्वरूप, गुण, लीला आदि मन, बुद्धि और वाणीके विषय नहीं हैं। उनकी एक-एक लीला लोकमर्यादा से विलक्षण है, अलौकिक है। उन्होंने और जो कुछ अद्भुत कर्म किये हों, उन्हें मैं फिर सुनना चाहता हूँ ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! द्विविद नाम का एक वानर था। वह भौमासुर का सखा, सुग्रीव का मन्त्री और मैन्द का शक्तिशाली भाई था ॥ २ ॥ जब उसने सुना कि श्रीकृष्णने भौमासुर को मार डाला, तब वह अपने मित्रकी मित्रताके ऋणसे उऋण होनके लिये राष्ट्र-विप्लव करनेपर उतारू हो गया। वह वानर बड़े-बड़े नगरों, गाँवों, खानों और अहीरोंकी बस्तियोंमें आग लगाकर उन्हें जलाने लगा ॥ ३ ॥ कभी वह बड़े-बड़े पहाड़ोंको उखाडक़र उनसे प्रान्त-के-प्रान्त चकनाचूर कर देता और विशेष करके ऐसा काम वह आनर्त (काठियावाड़) देशमें ही करता था। क्योंकि उसके मित्रको मारनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण उसी देशमें निवास करते थे ॥ ४ ॥ द्विविद वानरमें दस हजार हाथियोंका बल था। कभी-कभी वह दुष्ट समुद्रमें खड़ा हो जाता और हाथोंसे इतना जल उछालता कि समुद्रतटके देश डूब जाते ॥ ५ ॥ वह दुष्ट बड़े-बड़े ऋषि-मुनियोंके आश्रमोंकी सुन्दर-सुन्दर लता-वनस्पतियोंको तोड़-मरोडक़र चौपट कर देता और उनके यज्ञसम्बन्धी अग्रि-कुण्डोंमें मलमूत्र डालकर अग्रियोंको दूषित कर देता ॥ ६ ॥ जैसे भृङ्गी नामका कीड़ा दूसरे कीड़ोंको ले जाकर अपने बिलमें बंद कर देता है, वैसे ही वह मदोन्मत्त वानर स्त्रियों और पुरुषोंको ले जाकर पहाड़ोंकी घाटियों तथा गुफाओंमें डाल देता। फिर बाहरसे बड़ी-बड़ी चट्टानें रखकर उनका मुँह बंद कर देता ॥ ७ ॥ इस प्रकार वह देशवासियोंका तो तिरस्कार करता ही, कुलीन स्त्रियोंको भी दूषित कर देता था। एक दिन वह दुष्ट सुललित संगीत सुनकर रैवतक पर्वतपर गया ॥ ८ ॥

वहाँ उसने देखा कि यदुवंशशिरोमणि बलरामजी सुन्दर-सुन्दर युवतियोंके झुंडमें विराजमान हैं। उनका एक-एक अङ्ग अत्यन्त सुन्दर और दर्शनीय है और वक्ष:स्थलपर कमलोंकी माला लटक रही है ॥ ९ ॥ वे मधुपान करके मधुर संगीत गा रहे थे और उनके नेत्र आनन्दोन्मादसे विह्वल हो रहे थे। उनका शरीर इस प्रकार शोभायमान हो रहा था, मानो कोई मदमत्त गजराज हो ॥ १० ॥ वह दुष्ट वानर वृक्षोंकी शाखाओंपर चढ़ जाता और उन्हें झकझोर देता । कभी स्त्रियोंके सामने आकर किलकारी भी मारने लगता ॥ ११ ॥ युवती स्त्रियाँ स्वभावसे ही चञ्चल और हास-परिहासमें रुचि रखनेवाली होती हैं। बलरामजीकी स्त्रियाँ उस वानरकी ढिठाई देखकर हँसने लगीं ॥ १२ ॥ अब वह वानर भगवान्‌ बलरामजीके सामने ही उन स्त्रियोंकी अवहेलना करने लगा। वह उन्हें कभी अपनी गुदा दिखाता तो कभी भौंहें मटकाता, फिर कभी-कभी गरज-तरजकर मुँह बनाता, घुडक़ता ॥ १३ ॥ वीरशिरोमणि बलरामजी उसकी यह चेष्टा देखकर क्रोधित हो गये। उन्होंने उसपर पत्थरका एक टुकड़ा फेंका। परंतु द्विविद ने उससे अपनेको बचा लिया और झपटकर मधुकलश उठा लिया तथा बलरामजीकी अवहेलना करने लगा। उस धूर्तने मधुकलशको तो फोड़ ही डाला, स्त्रियोंके वस्त्र भी फाड़ डाले और अब वह दुष्ट हँस-हँसकर बलरामजीको क्रोधित करने लगा ॥ १४-१५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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