॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छाछठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
पौण्ड्रक और
काशिराज का उद्धार
शिरः पतितमालोक्य राजद्वारे सकुण्डलम्
किमिदं कस्य वा वक्त्रमिति संशिशिरे जनाः २५
राज्ञः काशीपतेर्ज्ञात्वा महिष्यः पुत्रबान्धवाः
पौराश्च हा हता राजन्नाथ नाथेति प्रारुदन् २६
सुदक्षिणस्तस्य सुतः कृत्वा संस्थाविधिं पतेः
निहत्य पितृहन्तारं यास्याम्यपचितिं पितुः २७
इत्यात्मनाभिसन्धाय सोपाध्यायो महेश्वरम्
सुदक्षिणोऽर्चयामास परमेण समाधिना २८
प्रीतोऽविमुक्ते भगवांस्तस्मै वरमदाद्विभुः
पितृहन्तृवधोपायं स वव्रे वरमीप्सितम् २९
दक्षिणाग्निं परिचर ब्राह्मणैः सममृत्विजम्
अभिचारविधानेन स चाग्निः प्रमथैर्वृतः ३०
साधयिष्यति सङ्कल्पमब्रह्मण्ये प्रयोजितः
इत्यादिष्टस्तथा चक्रेकृष्णायाभिचरन्व्रती ३१
ततोऽग्निरुत्थितः कुण्डान्मूर्तिमानतिभीषणः
तप्तताम्रशिखाश्मश्रुरङ्गारोद्गारिलोचनः ३२
दंष्ट्रोग्रभ्रुकुटीदण्ड कठोरास्यः स्वजिह्वया
आलिहन्सृक्वणी नग्नो विधुन्वंस्त्रिशिखं ज्वलत् ३३
पद्भ्यां तालप्रमाणाभ्यां कम्पयन्नवनीतलम्
सोऽयधावद्वृतो भूतैर्द्वारकां प्रदहन्दिशः ३४
तमाभिचारदहनमायान्तं द्वारकौकसः
विलोक्य तत्रसुः सर्वे वनदाहे मृगा यथा ३५
अक्षैः सभायां क्रीडन्तं भगवन्तं भयातुराः
त्राहि त्राहि त्रिलोकेश वह्नेः प्रदहतः पुरम् ३६
श्रुत्वा तज्जनवैक्लव्यं दृष्ट्वा स्वानां च साध्वसम्
शरण्यः सम्प्रहस्याह मा भैष्टेत्यवितास्म्यहम् ३७
सर्वस्यान्तर्बहिःसाक्षी कृत्यां माहेश्वरीं विभुः
विज्ञाय तद्विघातार्थं पार्श्वस्थं चक्रमादिशत् ३८
तत्सूर्यकोटिप्रतिमं सुदर्शनं
जाज्वल्यमानं प्रलयानलप्रभम्
स्वतेजसा खं ककुभोऽथ रोदसी
चक्रं मुकुन्दास्त्रं अथाग्निमार्दयत् ३९
कृत्यानलः प्रतिहतः स रथान्गपाणेर्
अस्त्रौजसा स नृप भग्नमुखो निवृत्तः
वाराणसीं परिसमेत्य सुदक्षिणं तं
सर्त्विग्जनं समदहत्स्वकृतोऽभिचारः ४०
चक्रं च विष्णोस्तदनुप्रविष्टं
वाराणसीं साट्टसभालयापणाम्
सगोपुराट्टालककोष्ठसङ्कुलां
सकोशहस्त्यश्वरथान्नशालिनीम् ४१
दग्ध्वा वाराणसीं सर्वां विष्णोश्चक्रं सुदर्शनम्
भूयः पार्श्वमुपातिष्ठत्कृष्णस्याक्लिष्टकर्मणः ४२
य एनं श्रावयेन्मर्त्य उत्तमःश्लोकविक्रमम्
समाहितो वा शृणुयात्सर्वपापैः प्रमुच्यते ४३
इधर काशीमें
राजमहलके दरवाजेपर एक कुण्डलमण्डित मुण्ड गिरा देखकर लोग तरह- तरहका सन्देह करने
लगे और सोचने लगे कि ‘यह क्या है, यह किसका सिर है ?’ ।। २५ ।। जब यह मालूम हुआ कि वह
तो काशिनरेश का ही सिर है, तब रानियाँ, राजकुमार, राजपरिवारके लोग तथा नागरिक रो-रोकर विलाप
करने लगे—‘हा नाथ ! हा राजन् ! हाय-हय ! हमारा तो सर्वनाश हो
गया’ ।। २६ ।। काशिनरेशका पुत्र था सुदक्षिण। उसने अपने
पिताका अन्त्येष्टि-संस्कार करके मन-ही-मन यह निश्चय किया कि अपने पितृघातीको
मारकर ही मैं पिताके ऋणसे ऊऋण हो सकूँगा। निदान वह अपने कुलपुरोहित और आचार्योंके
साथ अत्यन्त एकाग्रतासे भगवान् शङ्करकी आराधना करने लगा ।। २७-२८ ।। काशी नगरीमें
उसकी आराधनासे प्रसन्न होकर भगवान् शङ्करने वर देनेको कहा। सुदक्षिणने यह अभीष्ट
वर माँगा कि मुझे मेरे पितृघातीके वधका उपाय बतलाइये ।। २९ ।। भगवान् शङ्करने कहा—‘तुम ब्राह्मणोंके साथ मिलकर यज्ञके देवता ऋत्विग्भूत दक्षिणाग्नि की
अभिचारविधिसे आराधना करो। इससे वह अग्रि प्रमथगणोंके साथ प्रकट होकर
यदिब्राह्मणोंके अभक्तपर प्रयोग करोगे तो वह तुम्हारा संकल्प सिद्ध करेगा।’
भगवान् शङ्करकी ऐसी आज्ञा प्राप्त करके सुदक्षिणने अनुष्ठानके
उपयुक्त नियम ग्रहण किये और वह भगवान् श्रीकृष्णके लिये अभिचार (मारणका पुरश्चरण)
करने लगा ।। ३०-३१ ।। अभिचार पूर्ण होते ही यज्ञकुण्डसे अति भीषण अग्नि मूर्तिमान्
होकर प्रकट हुआ। उसके केश और दाढ़ी-मूँछ तपे हुए ताँबेके समान लाल-लाल थे। आँखोंसे
अंगारे बरस रहे थे ।। ३२ ।। उग्र दाढ़ों और टेढ़ी भृकुटियोंके कारण उसके मुखसे
क्रूरता टपक रही थी। वह अपनी जीभसे मुँहके दोनों कोने चाट रहा था। शरीर नंग-धड़ंग
था। हाथमें त्रिशूल लिये हुए था, जिसे वह बार-बार घुमाता
जाता था और उसमेंसे अग्रिकी लपटें निकल रही थीं ।। ३३ ।। ताडक़े पेडक़े समान
बड़ी-बड़ी टाँगें थीं। वह अपने वेगसे धरतीको कँपाता हुआ और ज्वालाओंसे दसों
दिशाओंको दग्ध करता हुआ द्वारकाकी ओर दौड़ा और बात-की-बातमें द्वारकाके पास जा
पहुँचा। उसके साथ बहुत-से भूत भी थे ।। ३४ ।। उस अभिचारकी आगको बिलकुल पास आयी हुई
देख द्वारकावासी वैसे ही डर गये, जैसे जंगलमें आग लगनेपर
हरिन डर जाते हैं ।। ३५ ।। वे लोग भयभीत होकर भगवान्के पास दौड़े हुए आये;
भगवान् उस समय सभामें चौसर खेल रहे थे, उन
लोगोंने भगवान्से प्रार्थना की—‘तीनों लोकोंके एकमात्र
स्वामी ! द्वारका नगरी इस आगसे भस्म होना चाहती है। आप हमारी रक्षा कीजिये। आपके
सिवा इसकी रक्षा और कोई नहीं कर सकता’ ।। ३६ ।। शरणागतवत्सल
भगवान्ने देखा कि हमारे स्वजन भयभीत हो गये हैं और पुकार-पुकारकर विकलताभरे
स्वरसे हमारी प्रार्थना कर रहे हैं; तब उन्होंने हँसकर कहा—
‘डरो मत, मैं तुमलोगोंकी रक्षा करूँगा’
।। ३७ ।।
परीक्षित् !
भगवान् सबके बाहर-भीतरकी जाननेवाले हैं। वे जान गये कि यह काशीसे चली हुई
माहेश्वरी कृत्या है। उन्होंने उसके प्रतीकारके लिये अपने पास ही विराजमान
चक्रसुदर्शनको आज्ञा दी ।। ३८ ।। भगवान् मुकुन्दका प्यारा अस्त्र सुदर्शनचक्र
कोटि-कोटि सूर्योंके समान तेजस्वी और प्रलयकालीन अग्नि के समान जाज्वल्यमान है।
उसके तेजसे आकाश, दिशाएँ और अन्तरिक्ष चमक उठे
और अब उसने उस अभिचार-अग्रिको कुचल डाला ।। ३९ ।। भगवान् श्रीकृष्णके अस्त्र
सुदर्शनचक्रकी शक्तिसे कृत्यारूप आगका मुँह टूट-फूट गया, उसका
तेज नष्ट हो गया, शक्ति कुण्ठित हो गयी और वह वहाँसे लौटकर
काशी आ गयी तथा उसने ऋत्विज् आचार्योंके साथ सुदक्षिणको जलाकर भस्म कर दिया। इस
प्रकार उसका अभिचार उसीके विनाशका कारण हुआ ।। ४० ।। कृत्याके पीछे-पीछे
सुदर्शनचक्र भी काशी पहुँचा। काशी बड़ी विशाल नगरी थी। वह बड़ी-बड़ी अटारियों,
सभाभवन, बाजार, नगरद्वार,
द्वारोंके शिखर, चहारदीवारियों, खजाने, हाथी, घोड़े, रथ और अन्नोंके गोदामसे सुसज्जित थी। भगवान् श्रीकृष्णके सुदर्शनचक्रने
सारी काशी को जलाकर भस्म कर दिया और फिर वह परमानन्दमयी लीला करनेवाले भगवान्
श्रीकृष्णके पास लौट आया ।। ४१-४२ ।।
जो मनुष्य
पुण्यकीर्ति भगवान् श्रीकृष्ण के इस चरित्र को एकाग्रता के साथ सुनता या सुनाता
है, वह सारे पापोंसे छूट जाता है
।। ४३ ।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे पौण्ड्रकादिवधो नाम षट्षष्टितमोऽध्यायः
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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