गुरुवार, 24 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इकहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इकहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीकृष्ण भगवान्‌ का इन्द्रप्रस्थ पधारना

 

श्रीशुक उवाच -

इत्युदीरितमाकर्ण्य देवऋषेरुद्धवोऽब्रवीत् ।

 सभ्यानां मतमाज्ञाय कृष्णस्य च महामतिः ॥ १ ॥  

 

श्रीउद्धव उवाच -

यदुक्तं ऋषिणा देव साचिव्यं यक्ष्यतस्त्वया ।

 कार्यं पैतृष्वसेयस्य रक्षा च शरणैषिणाम् ॥ २ ॥

 यष्टव्यम्राजसूयेन दिक् चक्रजयिना विभो ।

 अतो जरासुतजय उभयार्थो मतो मम ॥ ३ ॥

 अस्माकं च महानर्थो ह्येतेनैव भविष्यति ।

 यशश्च तव गोविन्द राज्ञो बद्धान् विमुञ्चतः ॥ ४ ॥

 स वै दुर्विषहो राजा नागायुतसमो बले ।

 बलिनामपि चान्येषां भीमं समबलं विना ॥ ५ ॥

 द्‌वैरथे स तु जेतव्यो मा शताक्षौहिणीयुतः ।

 ब्रह्मण्योऽभ्यर्थितो विप्रैः न प्रत्याख्याति कर्हिचित् ॥ ६ ॥

 ब्रह्मवेषधरो गत्वा तं भिक्षेत वृकोदरः ।

 हनिष्यति न सन्देहो द्‌वैरथे तव सन्निधौ ॥ ७ ॥

 निमित्तं परमीशस्य विश्वसर्गनिरोधयोः ।

 हिरण्यगर्भः शर्वश्च कालस्यारूपिणस्तव ॥ ८ ॥

गायन्ति ते विशदकर्म गृहेषु देव्यो

     राज्ञां स्वशत्रुवधमात्मविमोक्षणं च ।

 गोप्यश्च कुञ्जरपतेर्जनकात्मजायाः

     पित्रोश्च लब्धशरणा मुनयो वयं च ॥ ९ ॥

जरासन्धवधः कृष्ण भूर्यर्थायोपकल्पते ।

 प्रायः पाकविपाकेन तव चाभिमतः क्रतुः ॥ १० ॥

 

श्रीशुक उवाच -

इत्युद्धव वचो राजन् सर्वतोभद्रमच्युतम् ।

 देवर्षिर्यदुवृद्धाश्च कृष्णश्च प्रत्यपूजयन् ॥ ११ ॥

 अथादिशत् प्रयाणाय भगवान् देवकीसुतः ।

 भृत्यान् दारुकजैत्रादीन् अनुज्ञाप्य गुरून् विभुः ॥ १२ ॥

 निर्गमय्यावरोधान् स्वान् ससुतान् सपरिच्छदान् ।

 सङ्कर्षणमनुज्ञाप्य यदुराजं च शत्रुहन् ।

 सूतोपनीतं स्वरथं आरुहद् गरुडध्वजम् ॥ १३ ॥

ततो रथद्‌विपभटसादिनायकैः

     करालया परिवृत आत्मसेनया ।

 मृदङ्‌ग भेर्यानक शङ्खगोमुखैः

     प्रघोषघोषितककुभो निराक्रमत् ॥ १४ ॥

 नृवाजिकाञ्चन शिबिकाभिरच्युतं

     सहात्मजाः पतिमनु सुव्रता ययुः ।

 वरांबराभरणविलेपनस्रजः

     सुसंवृता नृभिरसिचर्मपाणिभिः ॥ १५ ॥

 नरोष्ट्रगोमहिषखराश्वतर्यनः

     करेणुभिः परिजनवारयोषितः ।

 स्वलङ्कृताः कटकुटिकम्बलाम्बराद्

     उपस्करा ययुरधियुज्य सर्वतः ॥ १६ ॥

 बलं बृहद्ध्वजपटछत्रचामरैः

     वरायुधाभरणकिरीटवर्मभिः ।

 दिवांशुभिस्तुमुलरवं बभौ रवेः

     यथार्णवः क्षुभिततिमिङ्‌गिलोर्मिभिः ॥ १७ ॥

 अथो मुनिर्यदुपतिना सभाजितः

     प्रणम्य तं हृदि विदधद् विहायसा ।

 निशम्य तद्‌व्यवसितमाहृतार्हणो

     मुकुन्दसन्दर्शननिर्वृतेन्द्रियः ॥ १८ ॥

राजदूतमुवाचेदं भगवान् प्रीणयन् गिरा ।

 मा भैष्ट दूत भद्रं वो घातयिष्यामि मागधम् ॥ १९ ॥

 इत्युक्तः प्रस्थितो दूतो यथावद् अवदन् नृपान् ।

 तेऽपि सन्दर्शनं शौरेः प्रत्यैक्षन् यन्मुमुक्षवः ॥ २० ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके वचन सुनकर महामति उद्धवजी ने देवर्षि नारद, सभासद् और भगवान्‌ श्रीकृष्ण के मतपर विचार किया और फिर वे कहने लगे ॥ १ ॥

उद्धवजीने कहाभगवन् ! देवर्षि नारदजीने आपको यह सलाह दी है कि फुफेरे भाई पाण्डवोंके राजसूय यज्ञमें सम्मिलित होकर उनकी सहायता करनी चाहिये। उनका यह कथन ठीक ही है और साथ ही यह भी ठीक है कि शरणागतोंकी रक्षा अवश्यकर्तव्य है ॥ २ ॥ प्रभो ! जब हम इस दृष्टिसे विचार करते हैं कि राजसूय यज्ञ वही कर सकता है, जो दसों दिशाओंपर विजय प्राप्त कर ले, तब हम इस निर्णयपर बिना किसी दुविधाके पहुँच जाते हैं कि पाण्डवोंके यज्ञ और शरणागतोंकी रक्षा दोनों कामोंके लिये जरासन्धको जीतना आवश्यक है ॥ ३ ॥ प्रभो ! केवल जरासन्धको जीत लेनेसे ही हमारा महान् उद्देश्य सफल हो जायगा, साथ ही उससे बंदी राजाओंकी मुक्ति और उसके कारण आपको सुयशकी भी प्राप्ति हो जायगी ॥ ४ ॥ राजा जरासन्ध बड़े-बड़े लोगोंके भी दाँत खट्टे कर देता है; क्योंकि दस हजार हाथियोंका बल उसे प्राप्त है। उसे यदि हरा सकते हैं तो केवल भीमसेन, क्योंकि वे भी वैसे ही बली हैं ॥ ५ ॥ उसे आमने-सामनेके युद्धमें एक वीर जीत ले, यही सबसे अच्छा है। सौ अक्षौहिणी सेना लेकर जब वह युद्धके लिये खड़ा होगा, उस समय उसे जीतना आसान न होगा। जरासन्ध बहुत बड़ा ब्राह्मणभक्त है। यदि ब्राह्मण उससे किसी बातकी याचना करते हैं, तो वह कभी कोरा जवाब नहीं देता ॥ ६ ॥ इसलिये भीमसेन ब्राह्मणके वेषमें जायँ और उससे युद्धकी भिक्षा माँगें। भगवन् ! इसमें सन्देह नहीं कि यदि आपकी उपस्थितिमें भीमसेन और जरासन्धका द्वन्द्वयुद्ध हो, तो भीमसेन उसे मार डालेंगे ॥ ७ ॥ प्रभो ! आप सर्वशक्तिमान्, रूपरहित कालस्वरूप हैं। विश्वकी सृष्टि और प्रलय आपकी ही शक्तिसे होता है। ब्रह्मा और शङ्कर तो उसमें निमित्तमात्र हैं। (इसी प्रकार जरासन्धका वध तो होगा आपकी शक्तिसे, भीमसेन केवल उसमें निमित्तमात्र बनेंगे) ॥ ८ ॥ जब इस प्रकार आप जरासन्धका वध कर डालेंगे, तब कैदमें पड़े हुए राजाओंकी रानियाँ अपने महलोंमें आपकी इस विशुद्ध लीलाका गान करेंगी कि आपने उनके शत्रुका नाश कर दिया और उनके प्राणपतियोंको छुड़ा दिया। ठीक वैसे ही, जैसे गोपियाँ शङ्खचूड़से छुड़ानेकी लीलाका, आपके शरणागत मुनिगण गजेन्द्र और जानकीजीके उद्धारकी लीलाका तथा हमलोग आपके माता-पिताको कंसके कारागारसे छुड़ानेकी लीलाका गान करते हैं ॥ ९ ॥ इसलिये प्रभो ! जरासन्धका वध स्वयं ही बहुत-से प्रयोजन सिद्ध कर देगा। बंदी नरपतियोंके पुण्य-परिणामसे अथवा जरासन्धके पाप-परिणामसे सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! आप भी तो इस समय राजसूय यज्ञका होना ही पसंद करते हैं (इसलिये पहले आप वहीं पधारिये) ॥ १० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! उद्धवजीकी यह सलाह सब प्रकारसे हितकर और निर्दोष थी। देवर्षि नारद, यदुवंशके बड़े-बूढ़े और स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्णने भी उनकी बातका समर्थन किया ॥ ११ ॥ अब अन्तर्यामी भगवान्‌ श्रीकृष्णने वसुदेव आदि गुरुजनोंसे अनुमति लेकर दारुक, जैत्र आदि सेवकोंको इन्द्रप्रस्थ जानेकी तैयारी करनेके लिये आज्ञा दी ॥ १२ ॥ इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्णने यदुराज उग्रसेन और बलरामजीसे आज्ञा लेकर बाल-बच्चोंके साथ रानियों और उनके सब सामानोंको आगे चला दिया और फिर दारुक के लाये हुए गरुड़ध्वज रथपर स्वयं सवार हुए ॥ १३ ॥ इसके बाद रथों, हाथियों, घुड़सवारों और पैदलोंकी बड़ी भारी सेनाके साथ उन्होंने प्रस्थान किया। उस समय मृदङ्ग, नगारे, ढोल, शङ्ख और नरसिंगोंकी ऊँची ध्वनिसे दसों दिशाएँ गूँज उठीं ॥ १४ ॥ सतीशिरोमणि रुक्मिणीजी आदि सहस्रों श्रीकृष्ण-पत्नियाँ अपनी सन्तानोंके साथ सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण, चन्दन,अङ्गराग और पुष्पोंके हार आदिसे सज-धजकर डोलियों, रथों और सोनेकी बनी हुई पालकियोंमें चढक़र अपने पतिदेव भगवान्‌ श्रीकृष्णके पीछे-पीछे चलीं। पैदल सिपाही हाथोंमें ढाल-तलवार लेकर उनकी रक्षा करते हुए चल रहे थे ॥ १५ ॥ इसी प्रकार अनुचरोंकी स्त्रियाँ और वाराङ्गनाएँ भलीभाँति शृङ्गार करके खस आदिकी झोपडिय़ों, भाँति-भाँतिके तंबुओं, कनातों, कम्बलों और ओढऩे-बिछाने आदिकी सामग्रियोंको बैलों, भैंसों, गधों और खच्चरोंपर लादकर तथा स्वयं पालकी, ऊँट, छकड़ों और हथिनियोंपर सवार होकर चलीं ॥ १६ ॥ जैसे मगरमच्छों और लहरोंकी उछल-कूदसे क्षुब्ध समुद्रकी शोभा होती है, ठीक वैसे ही अत्यन्त कोलाहलसे परिपूर्ण, फहराती हुई बड़ी-बड़ी पताकाओं, छत्रों, चँवरों, श्रेष्ठ अस्त्र-शस्त्रों, वस्त्राभूषणों, मुकुटों, कवचों और दिनके समय उनपर पड़ती हुई सूर्यकी किरणोंसे भगवान्‌ श्रीकृष्णकी सेना अत्यन्त शोभायमान हुई ॥ १७ ॥ देवर्षि नारदजी भगवान्‌ श्रीकृष्णसे सम्मानित होकर और उनके निश्चयको सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। भगवान्‌के दर्शनसे उनका हृदय और समस्त इन्द्रियाँ परमानन्दमें मग्र हो गयीं। विदा होनेके समय भगवान्‌ श्रीकृष्णने उनका नाना प्रकारकी सामग्रियों से पूजन किया । अब देवर्षि नारद ने उन्हें मन-ही-मन प्रणाम किया और उनकी दिव्य मूर्तिको हृदय में धारण करके आकाशमार्ग से प्रस्थान किया ॥ १८ ॥ इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने जरासन्ध के बंदी नरपतियोंके दूतको अपनी मधुर वाणीसे आश्वासन देते हुए कहा—‘दूत ! तुम अपने राजाओंसे जाकर कहनाडरो मत ! तुम लोगोंका कल्याण हो। मैं जरासन्ध को मरवा डालूँगा॥ १९ ॥ भगवान्‌ की ऐसी आज्ञा पाकर वह दूत गिरिव्रज चला गया और नरपतियोंको भगवान्‌ श्रीकृष्णका सन्देश ज्यों-का-त्यों सुना दिया। वे राजा भी कारागार से छूटनेके लिये शीघ्र-से-शीघ्र भगवान्‌ के शुभ दर्शनकी बाट जोहने लगे ॥ २० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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