बुधवार, 23 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णकी नित्यचर्या और उनके पास

जरासन्ध के कैदी राजाओं के दूत का आना

 

तत्रैकः पुरुषो राजन् आगतोऽपूर्वदर्शनः ।

 विज्ञापितो भगवते प्रतीहारैः प्रवेशितः ॥ २२ ॥

 स नमस्कृत्य कृष्णाय परेशाय कृताञ्जलिः ।

 राज्ञामावेदयद् दुखं जरासन्धनिरोधजम् ॥ २३ ॥

 ये च दिग्विजये तस्य सन्नतिं न ययुर्नृपाः ।

 प्रसह्य रुद्धास्तेनासन् अयुते द्वे गिरिव्रजे ॥ २४ ॥

 

 राजान ऊचुः -

कृष्ण कृष्णाप्रमेयात्मन् प्रपन्नभयभञ्जन ।

 वयं त्वां शरणं यामो भवभीताः पृथग्धियः ॥ २५ ॥

लोको विकर्मनिरतः कुशले प्रमत्तः

     कर्मण्ययं त्वदुदिते भवदर्चने स्वे ।

 यस्तावदस्य बलवानिह जीविताशां

     सद्यश्छिनत्त्यनिमिषाय नमोऽस्तु तस्मै ॥ २६ ॥

 लोके भवाञ्जगदिनः कलयावतीर्णः

     सद् रक्षणाय खलनिग्रहणाय चान्यः ।

 कश्चित् त्वदीयमतियाति निदेशमीश

     किं वा जनः स्वकृतमृच्छति तन्न विद्मः ॥ २७ ॥

 स्वप्नायितं नृपसुखं परतंत्रमीश

     शश्वद्‌भयेन मृतकेन धुरं वहामः ।

 हित्वा तदात्मनि सुखं त्वदनीहलभ्यं

     क्लिश्यामहेऽतिकृपणास्तव माययेह ॥ २८ ॥

 तन्नो भवान् प्रणतशोकहराङ्‌घ्रियुग्मो

     बद्धान् वियुङ्क्ष्व मगधाह्वयकर्मपाशात् ।

 यो भूभुजोऽयुतमतङ्गजवीर्यमेको

     बिभ्रद् रुरोध भवने मृगराडिवावीः ॥ २९ ॥

 यो वै त्वया द्विनवकृत्व उदात्तचक्र

     भग्नो मृधे खलु भवन्तमनन्तवीर्यम् ।

 जित्वा नृलोकनिरतं सकृदूढदर्पो

     युष्मत्प्रजा रुजति नोऽजित तद्विधेहि ॥ ३० ॥

 

 दूत उवाच -

इति मागधसंरुद्धा भवद्दर्शनकाङ्‌क्षिणः ।

 प्रपन्नाः पादमूलं ते दीनानां शं विधीयताम् ॥ ३१ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

राजदूते ब्रुवत्येवं देवर्षिः परमद्युतिः ।

 बिभ्रत् पिङ्गजटाभारं प्रादुरासीद् यथा रविः ॥ ३२ ॥

 तं दृष्ट्वा भगवान् कृष्णः सर्वलोकेश्वरेश्वरः ।

 ववन्द उत्थितः शीर्ष्णा ससभ्यः सानुगो मुदा ॥ ३३ ॥

 सभाजयित्वा विधिवत् कृतासनपरिग्रहम् ।

 बभाषे सुनृतैर्वाक्यैः श्रद्धया तर्पयन् मुनिम् ॥ ३४ ॥

 अपि स्विदद्य लोकानां त्रयाणां अकुतोभयम् ।

 ननु भूयान् भगवतो लोकान् पर्यटतो गुणः ॥ ३५ ॥

 न हि तेऽविदितं किञ्चित् लोकेषु ईश्वर कर्तृषु ।

 अथ पृच्छामहे युष्मान् पाण्डवानां चिकीर्षितम् ॥ ३६ ॥

 

 श्रीनारद उवाच -

दृष्टा माया ते बहुशो दुरत्यया

     माया विभो विश्वसृजश्च मायिनः ।

 भूतेषु भूमंश्चरतः स्वशक्तिभिः

     वह्नेरिवच्छन्नरुचो न मेऽद्‌भुतम् ॥ ३७ ॥

 तवेहितं कोऽर्हति साधु वेदितुं

     स्वमाययेदं सृजतो नियच्छतः ।

 यद् विद्यमानात् मतयावभासते

     तस्मै नमस्ते स्वविलक्षणात्मने ॥ ३८ ॥

 जीवस्य यः संसरतो विमोक्षणं

     न जानतोऽनर्थवहाच्छरीरतः ।

 लीलावतारैः स्वयशः प्रदीपकं

     प्राज्वालयत्त्वा तमहं प्रपद्ये ॥ ३९ ॥

अथाप्याश्रावये ब्रह्म नरलोकविडम्बनम् ।

 राज्ञः पैतृष्वसेयस्य भक्तस्य च चिकीर्षितम् ॥ ४० ॥

 यक्ष्यति त्वां मखेन्द्रेण राजसूयेन पाण्डवः ।

 पारमेष्ठ्यकामो नृपतिः तद्‌भवाननुमोदताम् ॥ ४१ ॥

 तस्मिन् देव क्रतुवरे भवन्तं वै सुरादयः ।

 दिदृक्षवः समेष्यन्ति राजानश्च यशस्विनः ॥ ४२ ॥

 श्रवणात् कीर्तनाद् ध्यानात् पूयन्तेऽन्तेवसायिनः ।

 तव ब्रह्ममयस्येश किमुतेक्षाभिमर्शिनः ॥ ४३ ॥

यस्यामलं दिवि यशः प्रथितं रसायां

     भूमौ च ते भुवनमङ्गल दिग्वितानम् ।

 मन्दाकिनीति दिवि भोगवतीति चाधो

     गङ्गेति चेह चरणाम्बु पुनाति विश्वम् ॥ ४४ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

तत्र तेष्वात्मपक्षेष्व गृण्हत्सु विजिगीषया ।

 वाचः पेशैः स्मयन् भृत्यमुद्धवं प्राह केशवः ॥ ४५ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

त्वं हि नः परमं चक्षुः सुहृन् मंत्रार्थतत्त्ववित् ।

 अथात्र ब्रूह्यनुष्ठेयं श्रद्दध्मः करवाम तत् ॥ ४६ ॥

 इत्युपामंत्रितो भर्त्रा सर्वज्ञेनापि मुग्धवत् ।

 निदेशं शिरसाऽऽधाय उद्धवः प्रत्यभाषत ॥ ४७ ॥

 

एक दिनकी बात है, द्वारकापुरी में राजसभा के द्वारपर एक नया मनुष्य आया। द्वारपालों ने भगवान्‌ को उसके आने की सूचना देकर उसे सभाभवनमें उपस्थित किया ॥ २२ ॥ उस मनुष्य ने परमेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णको हाथ जोडक़र नमस्कार किया और उन राजाओंका, जिन्होंने जरासन्ध के दिग्विजयके समय उसके सामने सिर नहीं झुकाया था और बलपूर्वक कैद कर लिये गये थे, जिनकी संख्या बीस हजार थी, जरासन्धके बंदी बननेका दु:ख श्रीकृष्णके सामने निवेदन किया॥ २३-२४ ॥ सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! आप मन और वाणीके अगोचर हैं। जो आपकी शरणमें आता है, उसके सारे भय आप नष्ट कर देते हैं। प्रभो ! हमारी भेद-बुद्धि मिटी नहीं है। हम जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्कर से भयभीत होकर आपकी शरणमें आये हैं ॥ २५ ॥ भगवन् ! अधिकांश जीव ऐसे सकाम और निषिद्ध कर्मोंमें फँसे हुए हैं कि वे आपके बतलाये हुए अपने परम कल्याणकारी कर्म, आपकी उपासना से विमुख हो गये हैं और अपने जीवन एवं जीवनसम्बन्धी आशा-अभिलाषाओं में भ्रम-भटक रहे हैं। परन्तु आप बड़े बलवान् हैं। आप कालरूप से सदा-सर्वदा सावधान रहकर उनकी आशालता का तुरंत समूल उच्छेद कर डालते हैं। हम आपके उस कालरूप को नमस्कार करते हैं ॥ २६ ॥ आप स्वयं जगदीश्वर हैं और आपने जगत् में अपने ज्ञान, बल आदि कलाओंके साथ इसलिये अवतार ग्रहण किया है कि संतोंकी रक्षा करें और दुष्टोंको दण्ड दें। ऐसी अवस्थामें प्रभो ! जरासन्ध आदि कोई दूसरे राजा आपकी इच्छा और आज्ञाके विपरीत हमें कैसे कष्ट दे रहे हैं, यह बात हमारी समझमें नहीं आती। यदि यह कहा जाय कि जरासन्ध हमें कष्ट नहीं देता, उसके रूपमेंउसे निमित्त बनाकर हमारे अशुभ कर्म ही हमें दु:ख पहुँचा रहे हैं; तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि जब हमलोग आपके अपने हैं, तब हमारे दुष्कर्म हमें फल देनेमें कैसे समर्थ हो सकते हैं ? इसलिये आप कृपा करके अवश्य ही हमें इस क्लेशसे मुक्त कीजिये ॥ २७ ॥ प्रभो! हम जानते हैं कि राजापनेका सुख प्रारब्धके अधीन एवं विषयसाध्य है। और सच कहें तो स्वप्न-सुखके समान अत्यन्त तुच्छ और असत् है। साथ ही उस सुखको भोगनेवाला यह शरीर भी एक प्रकारसे मुर्दा ही है और इसके पीछे सदा-सर्वदा सैकड़ों प्रकारके भय लगे रहते हैं। परन्तु हम तो इसीके द्वारा जगत्के अनेकों भार ढो रहे हैं और यही कारण है कि हमने अन्त:करणके निष्कामभाव और निस्सङ्कल्प स्थितिसे प्राप्त होनेवाले आत्मसुखका परित्याग कर दिया है। सचमुच हम अत्यन्त अज्ञानी हैं और आपकी मायाके फंदेमें फँसकर क्लेश-पर-क्लेश भोगते जा रहे हैं ॥ २८ ॥ भगवन् ! आपके चरणकमल शरणागत पुरुषोंके समस्त शोक और मोहोंको नष्ट कर देनेवाले हैं। इसलिये आप ही जरासन्धरूप कर्मोंके बन्धनसे हमें छुड़ाइये। प्रभो ! यह अकेला ही दस हजार हाथियोंकी शक्ति रखता है और हमलोगोंको उसी प्रकार बंदी बनाये हुए है, जैसे सिंह भेड़ोंको घेर रखे ॥ २९ ॥ चक्रपाणे ! आपने अठारह बार जरासन्धसे युद्ध किया और सत्रह बार उसका मान-मर्दन करके उसे छोड़ दिया। परन्तु एक बार उसने आपको जीत लिया। हम जानते हैं कि आपकी शक्ति, आपका बल-पौरुष अनन्त है। फिर भी मनुष्योंका-सा आचरण करते आप स्वयं विज्ञानानन्दघन ब्रह्म हैं। आपके श्रवण, कीर्तन और ध्यान करनेमात्रसे अन्त्यज भी पवित्र हो जाते हैं। फिर जो आपका दर्शन और स्पर्श प्राप्त करते हैं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ॥ ४३ ॥ त्रिभुवनमङ्गल ! आपकी निर्मल कीर्ति समस्त दिशाओंमें छा रही है तथा स्वर्ग, पृथ्वी और पातालमें व्याप्त हो रही है; ठीक वैसे ही, जैसे आपकी चरणामृतधारा स्वर्गमें मन्दाकिनी, पातालमें भोगवती और मत्र्यलोकमें गङ्गाके नामसे प्रवाहित होकर सारे विश्वको पवित्र कर रही है ॥ ४४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! सभामें जितने यदुवंशी बैठे थे, वे सब इस बातके लिये अत्यन्त उत्सुक हो रहे थे कि पहले जरासन्धपर चढ़ाई करके उसे जीत लिया जाय। अत: उन्हें नारदजीकी बात पसंद न आयी। तब ब्रह्मा आदिके शासक भगवान्‌ श्रीकृष्णने तनिक मुसकराकर बड़ी मीठी वाणीमें उद्धवजीसे कहा॥ ४५ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—‘उद्धव ! तुम मेरे हितैषी सुहृद् हो। शुभ सम्मति देनेवाले और कार्यके तत्त्वको भलीभाँति समझनेवाले हो, इसीलिये हम तुम्हें अपना उत्तम नेत्र मानते हैं। अब तुम्हीं बताओ कि इस विषयमें हमें क्या करना चाहिये। तुम्हारी बातपर हमारी श्रद्धा है। इसलिये हम तुम्हारी सलाहके अनुसार ही काम करेंगे॥ ४६ ॥ जब उद्धवजीने देखा कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण सर्वज्ञ होनेपर भी अनजान की तरह सलाह पूछ रहे हैं, तब वे उनकी आज्ञा शिरोधार्य करके बोले ॥ ४७ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे भगवद्यानविचारे नाम सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७० ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 

 



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...