॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
भगवान्
श्रीकृष्णकी नित्यचर्या और उनके पास
जरासन्ध के
कैदी राजाओं के दूत का आना
श्रीशुक उवाच -
अथोषस्युपवृत्तायां कुक्कुटान् कूजतोऽशपन् ।
गृहीतकण्ठ्यः
पतिभिः भाधव्यो विरहातुराः ॥ १ ॥
वयांस्यरूरुवन्
कृष्णं बोधयन्तीव वन्दिनः ।
गायत्स्वलिष्वनिद्राणि मन्दारवनवायुभिः ॥ २ ॥
मुहूर्तं तं तु
वैदर्भी नामृष्यद् अतिशोभनम् ।
परिरम्भणविश्लेषात्
प्रियबाह्वन्तरं गता ॥ ३ ॥
ब्राह्मे मुहूर्त
उत्थाय वार्युपस्पृश्य माधवः ।
दध्यौ प्रसन्नकरण
आत्मानं तमसः परम् ॥ ४ ॥
एकं स्वयंज्योतिरनन्यमव्ययं
स्वसंस्थया नित्यनिरस्तकल्मषम् ।
ब्रह्माख्यमस्योद्भवनाशहेतुभिः
स्वशक्तिभिर्लक्षितभावनिर्वृतिम् ॥ ५ ॥
अथाप्लुतोऽम्भस्यमले यथाविधि
क्रियाकलापं
परिधाय वाससी ।
चकार सन्ध्योपगमादि
सत्तमो
हुतानलो ब्रह्म
जजाप वाग्यतः ॥ ६ ॥
उपस्थायार्कमुद्यन्तं तर्पयित्वात्मनः कलाः ।
देवान् ऋषीन्
पितॄन् वृद्धान् विप्रानभ्यर्च्य चात्मवान् ॥ ७ ॥
धेनूनां
रुक्मश्रृङ्गीणां साध्वीनां मौक्तिकस्रजाम् ।
पयस्विनीनां
गृष्टीनां सवत्सानां सुवाससाम् ॥ ८ ॥
ददौ
रूप्यखुराग्राणां क्षौमाजिनतिलैः सह ।
अलङ्कृतेभ्यो
विप्रेभ्यो बद्वं बद्वं दिने दिने ॥ ९ ॥
गोविप्रदेवतावृद्ध
गुरून् भूतानि सर्वशः ।
नमस्कृत्यात्मसंभूतीः मङ्गलानि समस्पृशत् ॥ १० ॥
आत्मानं भूषयामास
नरलोकविभूषणम् ।
वासोभिर्भूषणैः
स्वीयैः दिव्यस्रग् अनुलेपनैः ॥ ११ ॥
अवेक्ष्याज्यं
तथाऽऽदर्शं गोवृषद्विजदेवताः ।
कामांश्च
सर्ववर्णानां पौरान्तःपुरचारिणाम् ।
प्रदाप्य प्रकृतीः
कामैः प्रतोष्य प्रत्यनन्दत ॥ १२ ॥
संविभज्याग्रतो
विप्रान् स्रक्ताम्बूलानुलेपनैः ।
सुहृदः
प्रकृतीर्दारान् उपायुङ्क्त ततः स्वयम् ॥ १३ ॥
तावत् सूत उपानीय
स्यन्दनं परमाद्भुतम् ।
सुग्रीवाद्यैर्हयैर्युक्तं
प्रणम्यावस्थितोऽग्रतः ॥ १४ ॥
गृहीत्वा पाणिना
पाणी सारथेस्तमथारुहत् ।
सात्यक्युद्धवसंयुक्तः पूर्वाद्रिमिव भास्करः ॥
१५ ॥
ईक्षितोऽन्तःपुरस्त्रीणां सव्रीडप्रेमवीक्षितैः
।
कृच्छ्राद्
विसृष्टो निरगात् जातहासो हरन् मनः ॥ १६ ॥
सुधर्माख्यां सभां
सर्वैः वृष्णिभिः परिवारितः ।
प्राविशद्
यन्निविष्टानां न सन्त्यङ्ग षडूर्मयः ॥ १७ ॥
तत्रोपविष्टः परमासने विभुः
बभौ स्वभासा
ककुभोऽवभासयन् ।
वृतो
नृसिंहैर्यदुभिर्यदूत्तमो
यथोडुराजो दिवि
तारकागणैः ॥ १८ ॥
तत्रोपमंत्रिणो राजन् नानाहास्यरसैर्विभुम् ।
उपतस्थुर्नटाचार्या
नर्तक्यस्ताण्डवैः पृथक् ॥ १९ ॥
मृदङ्गवीणामुरज
वेणुतालदरस्वनैः ।
ननृतुर्जगुस्तुष्टुवुश्च सूतमागधवन्दिनः ॥ २० ॥
तत्राहुर्ब्राह्मणाः केचित् आसीना ब्रह्मवादिनः
।
पूर्वेषां
पुण्ययशसां राज्ञां चाकथयन् कथाः ॥ २१ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! जब सबेरा होने
लगता, कुक्कुट (मुरगे) बोलने लगते, तब
वे श्रीकृष्ण-पत्नियाँ, जिनके कण्ठमें श्रीकृष्णने अपनी भुजा
डाल रखी है, उनके विछोहकी आशङ्का से व्याकुल हो जातीं और उन
मुरगोंको कोसने लगतीं ॥ १ ॥ उस समय पारिजातकी सुगन्धसे सुवासित भीनी-भीनी वायु
बहने लगती। भौंरे तालस्वरसे अपनी सङ्गीतकी तान छेड़ देते। पक्षियोंकी नींद उचट
जाती और वे वंदीजनोंकी भाँति भगवान् श्रीकृष्णको जगानेके लिये मधुर स्वरसे कलरव
करने लगते ॥ २ ॥ रुक्मिणीजी अपने प्रियतमके भुजपाशसे बँधी रहनेपर भी आलिङ्गन छूट
जानेकी आशङ्कासे अत्यन्त सुहावने और पवित्र ब्राह्ममुहूर्तको भी असह्य समझने लगती
थीं ॥ ३ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण प्रतिदिन ब्राह्ममुहूर्तमें ही उठ जाते और हाथ-मुँह
धोकर अपने मायातीत आत्मस्वरूपका ध्यान करने लगते। उस समय उनका रोम-रोम आनन्दसे खिल
उठता था ॥ ४ ॥ परीक्षित् ! भगवान्का वह आत्मस्वरूप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेदसे रहित एक, अखण्ड है। क्योंकि
उसमें किसी प्रकारकी उपाधि या उपाधिके कारण होनेवाला अन्य वस्तुका अस्तित्व नहीं
है। और यही कारण है कि वह अविनाशी सत्य है। जैसे चन्द्रमा-सूर्य आदि
नेत्र-इन्द्रियके द्वारा और नेत्र-इन्द्रिय चन्द्रमा-सूर्य आदिके द्वारा प्रकाशित
होती है, वैसे वह आत्म- स्वरूप दूसरेके द्वारा प्रकाशित नहीं,
स्वयंप्रकाश है। इसका कारण यह है कि अपने स्वरूपमें ही सदा-सर्वदा
और कालकी सीमाके परे भी एकरस स्थित रहनेके कारण अविद्या उसका स्पर्श भी नहीं कर
सकती। इसीसे प्रकाश्य-प्रकाशकभाव उसमें नहीं है। जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और नाशकी कारणभूता ब्रह्मशक्ति, विष्णुशक्ति
और रुद्रशक्तियोंके द्वारा केवल इस बातका अनुमान हो सकता है कि वह स्वरूप एकरस
सत्तारूप और आनन्द-स्वरूप है। उसीको समझानेके लिये ‘ब्रह्म’
नामसे कहा जाता है। भगवान् श्रीकृष्ण अपने उसी आत्मस्वरूपका
प्रतिदिन ध्यान करते ॥ ५ ॥ इसके बाद वे विधिपूर्वक निर्मल और पवित्र जलमें स्नान
करते। फिर शुद्ध धोती पहनकर, दुपट्टा ओढक़र यथाविधि नित्यकर्म
सन्ध्या-वन्दन आदि करते। इसके बाद हवन करते और मौन होकर गायत्रीका जप करते। क्यों
न हो, वे सत्पुरुषोंके पात्र आदर्श जो हैं ॥ ६ ॥ इसके बाद
सूर्योदय होनेके समय सूर्योपस्थान करते और अपने कलास्वरूप देवता, ऋषि तथा पितरोंका तर्पण करते। फिर कुलके बड़े-बूढ़ों और ब्राह्मणोंकी
विधिपूर्वक पूजा करते। इसके बाद परम मनस्वी श्रीकृष्ण दुधारू, पहले-पहल ब्यायी हुई, बछड़ोंवाली सीधी-शान्त गौओंका
दान करते। उस समय उन्हें सुन्दर वस्त्र और मोतियोंकी माला पहना दी जाती । सींगमें
सोना और खुरोंमें चाँदी मढ़ दी जाती । वे ब्राह्मणोंको वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित
करके रेशमी वस्त्र, मृगचर्म और तिलके साथ प्रतिदिन तेरह हजार
चौरासी गौएँ इस प्रकार दान करते ॥ ७—९ ॥ तदनन्तर अपनी
विभूतिरूप गौ, ब्राह्मण, देवता,
कुलके बड़े-बूढ़े, गुरुजन और समस्त
प्राणियोंको प्रणाम करके माङ्गलिक वस्तुओंका स्पर्श करते ॥ १० ॥ परीक्षित् !
यद्यपि भगवान्के शरीरका सहज सौन्दर्य ही मनुष्य-लोकका अलङ्कार है, फिर भी वे अपने पीताम्बरादि दिव्य वस्त्र, कौस्तुभादि
आभूषण, पुष्पोंके हार और चन्दनादि दिव्य अङ्गरागसे अपनेको
आभूषित करते ॥ ११ ॥ इसके बाद वे घी और दर्पणमें अपना मुखारविन्द देखते; गाय, बैल, ब्राह्मण और
देव-प्रतिमाओंका दर्शन करते। फिर पुरवासी और अन्त:पुरमें रहनेवाले चारों वर्णोंके
लोगोंकी अभिलाषाएँ पूर्ण करते और फिर अपनी अन्य (ग्रामवासी) प्रजाकी कामनापूर्ति
करके उसे सन्तुष्ट करते और इन सबको प्रसन्न देखकर स्वयं बहुत ही आनन्दित होते ॥ १२
॥ वे पुष्पमाला, ताम्बूल, चन्दन और
अङ्गराग आदि वस्तुएँ पहले ब्राह्मण, स्वजन- सम्बन्धी,
मन्त्री और रानियोंको बाँट देते; और उनसे बची
हुई स्वयं अपने काममें लाते ॥ १३ ॥ भगवान् यह सब करते होते, तबतक दारुक नामका सारथि सुग्रीव आदि घोड़ोंसे जुता हुआ अत्यन्त अद्भुत रथ
ले आता और प्रणाम करके भगवान् के सामने खड़ा हो जाता ॥ १४ ॥ इसके बाद भगवान्
श्रीकृष्ण सात्यकि और उद्धवजीके साथ अपने हाथसे सारथिका हाथ पकडक़र रथपर सवार होते—ठीक वैसे ही जैसे भुवनभास्कर भगवान् सूर्य उदयाचलपर आरूढ़ होते हैं ॥ १५
॥ उस समय रनिवासकी स्त्रियाँ लज्जा एवं प्रेमसे भरी चितवनसे उन्हें निहारने लगतीं
और बड़े कष्टसे उन्हें विदा करतीं। भगवान् मुसकराकर उनके चित्तको चुराते हुए
महलसे निकलते ॥ १६ ॥
परीक्षित् !
तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण समस्त यदुवंशियोंके साथ सुधर्मा नामकी सभामें प्रवेश
करते। उस सभाकी ऐसी महिमा है कि जो लोग उस सभामें जा बैठते हैं, उन्हें भूख-प्यास, शोक-
मोह और जरा मृत्यु—ये छ: ऊर्मियाँ नहीं सतातीं ॥ १७ ॥ इस
प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण सब रानियोंसे अलग-अलग विदा होकर एक ही रूपमें
सुधर्मा-सभामें प्रवेश करते और वहाँ जाकर श्रेष्ठ सिंहासनपर विराज जाते। उनकी
अङ्गकान्ति से दिशाएँ प्रकाशित होती रहतीं। उस समय यदुवंशी वीरोंके बीचमें
यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णकी ऐसी शोभा होती, जैसे
आकाशमें तारोंसे घिरे हुए चन्द्रदेव शोभायमान होते हैं ॥ १८ ॥ परीक्षित् ! सभामें
विदूषकलोग विभिन्न प्रकारके हास्य- विनोदसे, नटाचार्य
अभिनयसे और नर्तकियाँ कलापूर्ण नृत्योंसे अलग-अलग अपनी टोलियोंके साथ भगवान्की
सेवा करतीं ॥ १९ ॥ उस समय मृदङ्ग, वीणा, पखावज, बाँसुरी, झाँझ और शङ्ख
बजने लगते और सूत, मागध तथा वंदीजन नाचते-गाते और भगवान् की
स्तुति करते ॥ २० ॥ कोई-कोई व्याख्याकुशल ब्राह्मण वहाँ बैठकर वेदमन्त्रों की
व्याख्या करते और कोई पूर्वकालीन पवित्रकीर्ति नरपतियोंके चरित्र कह-कहकर सुनाते ॥
२१ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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