मंगलवार, 29 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छिहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छिहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

शाल्व के साथ यादवों का युद्ध

 

श्रीशुक उवाच -

अथान्यदपि कृष्णस्य श्रृणु कर्माद्‌भुतं नृप ।

 क्रीडानरशरीरस्य यथा सौभपतिर्हतः ॥ १ ॥

 शिशुपालसखः शाल्वो रुक्मिण्युद्‌वाह आगतः ।

 यदुभिर्निर्जितः सङ्ख्ये जरासन्धादयस्तथा ॥ २ ॥

 शाल्वः प्रतिज्ञामकरोत् श्रृण्वतां सर्वभूभुजाम् ।

 अयादवां क्ष्मां करिष्ये पौरुषं मम पश्यत ॥ ३ ॥

 इति मूढः प्रतिज्ञाय देवं पशुपतिं प्रभुम् ।

 आराधयामास नृपः पांसुमुष्टिं सकृद् ग्रसन् ॥ ४ ॥

 संवत्सरान्ते भगवान् आशुतोष उमापतिः ।

 वरेण च्छन्दयामास शाल्वं शरणमागतम् ॥ ५ ॥

 देवासुरमनुष्याणां गन्धर्वोरगरक्षसाम् ।

 अभेद्यं कामगं वव्रे स यानं वृष्णिभीषणम् ॥ ६ ॥

 तथेति गिरिशादिष्टो मयः परपुरंजयः ।

 पुरं निर्माय शाल्वाय प्रादात् सौभमयस्मयम् ॥ ७ ॥

 स लब्ध्वा कामगं यानं तमोधाम दुरासदम् ।

 ययस्द्‌वारवतीं शाल्वो वैरं वृष्णिकृतं स्मरन् ॥ ८ ॥

 निरुध्य सेनया शाल्वो महत्या भरतर्षभ ।

 पुरीं बभञ्जोपवनान् उद्यानानि च सर्वशः ॥ ९ ॥

 सगोपुराणि द्वाराणि प्रासादाट्टालतोलिकाः ।

 विहारान् स विमानाग्र्यान् निपेतुः शस्त्रवृष्टयः ॥ १० ॥

 शिला द्रुमाश्चाशनयः सर्पा आसारशर्कराः ।

 प्रचण्डश्चक्रवातोऽभूत् रजसाच्छादिता दिशः ॥ ११ ॥

 इत्यर्द्यमाना सौभेन कृष्णस्य नगरी भृशम् ।

 नाभ्यपद्यत शं राजन् त्रिपुरेण यथा मही ॥ १२ ॥

 प्रद्युम्नो भगवान् वीक्ष्य बाध्यमाना निजाः प्रजाः ।

 म भैष्टेत्यभ्यधाद्‌ वीरो रथारूढो महायशाः ॥ १३ ॥

 सात्यकिश्चारुदेष्णश्च साम्बोऽक्रूरः सहानुजः ।

 हार्दिक्यो भानुविन्दश्च गदश्च शुकसारणौ ॥ १४ ॥

 अपरे च महेष्वासा रथयूथपयूथपाः ।

 निर्ययुर्दंशिता गुप्ता रथेभाश्वपदातिभिः ॥ १५ ॥

 ततः प्रववृते युद्धं शाल्वानां यदुभिः सह ।

 यथासुराणां विबुधैः तुमुलं लोमहर्षणम् ॥ १६ ॥

 ताश्च सौभपतेर्माया दिव्यास्त्रै रुक्मिणीसुतः ।

 क्षणेन नाशयामास नैशं तम इवोष्णगुः ॥ १७ ॥

 विव्याध पञ्चविंशत्या स्वर्णपुङ्खैरयोमुखैः ।

 शाल्वस्य ध्वजिनीपालं शरैः सन्नतपर्वभिः ॥ १८ ॥

 शतेनाताडयच्छाल्वं एकैकेनास्य सैनिकान् ।

 दशभिर्दशभिर्नेतॄन् वाहनानि त्रिभिस्त्रिभिः ॥ १९ ॥

 तदद्‌भुतं महत् कर्म प्रद्युम्नस्य महात्मनः ।

 दृष्ट्वा तं पूजयामासुः सर्वे स्वपरसैनिकाः ॥ २० ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अब मनुष्यकी-सी लीला करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णका एक और भी अद्भुत चरित्र सुनो। इसमें यह बताया जायगा कि सौभनामक विमानका अधिपति शाल्व किस प्रकार भगवान्‌ के हाथसे मारा गया ॥ १ ॥ शाल्व शिशुपालका सखा था और रुक्मिणीके विवाहके अवसरपर बारातमें शिशुपालकी ओरसे आया हुआ था। उस समय यदुवंशियोंने युद्धमें जरासन्ध आदिके साथ-साथ शाल्वको भी जीत लिया था ॥ २ ॥ उस दिन सब राजाओंके सामने शाल्वने यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं पृथ्वीसे यदुवंशियोंको मिटाकर छोडूँगा, सब लोग मेरा बल-पौरुष देखना॥ ३ ॥ परीक्षित्‌ ! मूढ़ शाल्वने इस प्रकार प्रतिज्ञा करके देवाधिदेव भगवान्‌ पशुपतिकी आराधना प्रारम्भ की। वह उन दिनों दिनमें केवल एक बार मुट्ठीभर राख फाँक लिया करता था ॥ ४ ॥ यों तो पार्वतीपति भगवान्‌ शङ्कर आशुतोष हैं, औढरदानी हैं, फिर भी वे शाल्वका घोर सङ्कल्प जानकर एक वर्षके बाद प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने शरणागत शाल्वसे वर माँगनेके लिये कहा ॥ ५ ॥ उस समय शाल्वने यह वर माँगा, कि मुझे आप एक ऐसा विमान दीजिये, जो देवता, असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंसे तोड़ा न जा सके; जहाँ इच्छा हो, वहीं चला जाय और यदुवंशियोंके लिये अत्यन्त भयङ्कर हो॥ ६ ॥ भगवान्‌ शङ्कर ने कह दिया तथास्तु !इसके बाद उनकी आज्ञासे विपक्षियोंके नगर जीतनेवाले मयदानव ने लोहे का सौभनामक विमान बनाया और शाल्वको दे दिया ॥ ७ ॥ वह विमान क्या था एक नगर ही था। वह इतना अन्धकारमय था कि उसे देखना या पकडऩा अत्यन्त कठिन था। चलानेवाला उसे जहाँ ले जाना चाहता, वहीं वह उसके इच्छा करते ही चला जाता था। शाल्वने वह विमान प्राप्त करके द्वारकापर चढ़ाई कर दी, क्योंकि वह वृष्णिवंशी यादवोंद्वारा किये हुए वैरको सदा स्मरण रखता था ॥ ८ ॥

परीक्षित्‌ ! शाल्व ने अपनी बहुत बड़ी सेनासे द्वारका को चारों ओरसे घेर लिया और फिर उसके फल-फूलसे लदे हुए उपवन और उद्यानों को उजाडऩे और नगरद्वारों, फाटकों, राजमहलों, अटारियों, दीवारों और नागरिकों के मनोविनो दके स्थानोंको नष्ट-भ्रष्ट करने लगा। उस श्रेष्ठ विमानसे शस्त्रोंकी झड़ी लग गयी ॥ ९-१० ॥ बड़ी-बड़ी चट्टानें, वृक्ष, वज्र, सर्प और ओले बरसने लगे। बड़े जोरका बवंडर उठ खड़ा हुआ। चारों ओर धूल-ही-धूल छा गयी ॥ ११ ॥ परीक्षित्‌ ! प्राचीनकालमें जैसे त्रिपुरासुरने सारी पृथ्वीको पीडि़त कर रखा था, वैसे ही शाल्वके विमानने द्वारकापुरीको अत्यन्त पीडि़त कर दिया। वहाँके नर-नारियोंको कहीं एक क्षणके लिये भी शान्ति न मिलती थी ॥ १२ ॥ परमयशस्वी वीर भगवान्‌ प्रद्युम्न ने देखाहमारी प्रजाको बड़ा कष्ट हो रहा है, तब उन्होंने रथपर सवार होकर सबको ढाढ़स बँधाया और कहा कि डरो मत॥ १३ ॥ उनके पीछे-पीछे सात्यकि, चारुदेष्ण, साम्ब, भाइयोंके साथ अक्रूर, कृतवर्मा, भानुविन्द, गद, शुक, सारण आदि बहुत-से वीर बड़े-बड़े धनुष धारण करके निकले। ये सब-के-सब महारथी थे। सबने कवच पहन रखे थे और सबकी रक्षाके लिये बहुत-से रथ, हाथी घोड़े तथा पैदल सेना साथ-साथ चल रही थी ॥ १४-१५ ॥ इसके बाद प्राचीन कालमें जैसे देवताओं के साथ असुरोंका घमासान युद्ध हुआ था, वैसे ही शाल्व के सैनिकों और यदुवंशियों का युद्ध होने लगा। उसे देखकर लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते थे ॥ १६ ॥ प्रद्युम्नजी ने अपने दिव्य अस्त्रों से क्षणभर में ही सौभपति शाल्व की सारी माया काट डाली; ठीक वैसे ही, जैसे सूर्य अपनी प्रखर किरणों से  रात्रि   का अन्धकार मिटा देते हैं ॥ १७ ॥ प्रद्युम्न जी के बाणोंमें सोने के पंख एवं लोहेके फल लगे हुए थे। उनकी गाँठें जान नहीं पड़ती थीं। उन्होंने ऐसे ही पचीस बाणोंसे शाल्वके सेनापतिको घायल कर दिया ॥ १८ ॥ परममनस्वी प्रद्युम्नजी ने सेनापति के साथ ही शाल्व को भी सौ बाण मारे, फिर प्रत्येक सैनिक को एक-एक और सारथियों को दस-दस तथा वाहनों को तीन-तीन बाणोंसे घायल किया ॥ १९ ॥ महामना प्रद्युम्न जी के इस अद्भुत और महान् कर्म को देखकर अपने एवं परायेसभी सैनिक उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ २० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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