॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छिहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
शाल्व के साथ
यादवों का युद्ध
बहुरूपैकरूपं तद् दृश्यते न
च दृश्यते ।
मायामयं मयकृतं दुर्विभाव्यं
परैरभूत् ॥ २१ ॥
क्वचिद्भूमौ क्वचिद्
व्योम्नि गिरिमूर्ध्नि जले क्वचित् ।
अलातचक्रवद् भ्राम्यत् सौभं
तद् दुरवस्थितम् ॥ २२ ॥
यत्र यत्रोपलक्ष्येत ससौभः
सहसैनिकः ।
शाल्वः ततस्ततोऽमुञ्चन्
शरान् सात्वतयूथपाः ॥ २३ ॥
शरैरग्न्यर्कसंस्पर्शैः
आशीविषदुरासदैः ।
पीड्यमानपुरानीकः
शाल्वोऽमुह्यत् परेरितैः ॥ २४ ॥
शाल्वानीकपशस्त्रौघैः
वृष्णिवीरा भृशार्दिताः ।
न तत्यजू रणं स्वं स्वं
लोकद्वयजिगीषवः ॥ २५ ॥
शाल्वामात्यो द्युमान् नाम
प्रद्युम्नं प्राक् प्रपीडितः ।
आसाद्य गदया मौर्व्या
व्याहत्य व्यनदद् बली ॥ २६ ॥
प्रद्युम्नं गदया शीर्ण
वक्षःस्थलमरिंदमम् ।
अपोवाह रणात् सूतो धर्मविद्
दारुकात्मजः ॥ २७ ॥
लब्धसंज्ञो मुहूर्तेन
कार्ष्णिः सारथिमब्रवीत् ।
अहो असाध्विदं सूत यद्
रणान्मेऽपसर्पणम् ॥ २८ ॥
न यदूनां कुले जातः श्रूयते
रणविच्युतः ।
विना मत्क्लीबचित्तेन सूतेन
प्राप्तकिल्बिषात् ॥ २९ ॥
किं नु वक्ष्येऽभिसङ्गम्य
पितरौ रामकेशवौ ।
युद्धात् सम्यगपक्रान्तः
पृष्टस्तत्रात्मनः क्षमम् ॥ ३० ॥
व्यक्तं मे कथयिष्यन्ति
हसन्त्यो भ्रातृजामयः ।
क्लैब्यं कथं कथं वीर
तवान्यैः कथ्यतां मृधे ॥ ३१ ॥
सारथिरुवाच -
धर्मं विजानताऽऽयुष्मन्
कृतमेतन्मया विभो ।
सूतः कृच्छ्रगतं रक्षेद्
रथिनं सारथिं रथी ॥ ३२ ॥
एतद् विदित्वा तु भवान्
मयापोवाहितो रणात् ।
उपसृष्टः परेणेति मूर्च्छितो
गदया हतः ॥ ३३ ॥
परीक्षित् !
मय- दानव का बनाया हुआ शाल्वका वह विमान अत्यन्त मायामय था। वह इतना विचित्र था कि
कभी अनेक रूपोंमें दीखता तो कभी एकरूपमें,
कभी दीखता तो कभी न भी दीखता। यदुवंशियोंको इस बातका पता ही न चलता
कि वह इस समय कहाँ है ॥ २१ ॥ वह कभी पृथ्वीपर आ जाता तो कभी आकाशमें उडऩे लगता।
कभी पहाडक़ी चोटीपर चढ़ जाता, तो कभी जलमें तैरने लगता। वह
अलात-चक्रके समान—मानो कोई दुमुँही लुकारियोंकी बनेठी भाँज
रहा हो—घूमता रहता था, एक क्षणके लिये
भी कहीं ठहरता न था ॥ २२ ॥ शाल्व अपने विमान और सैनिकोंके साथ जहाँ-जहाँ दिखायी
पड़ता, वहीं-वहीं यदुवंशी सेनापति बाणोंकी झड़ी लगा देते थे
॥ २३ ॥ उनके बाण सूर्य और अग्रिके समान जलते हुए तथा विषैले साँपकी तरह असह्य होते
थे। उनसे शाल्वका नगराकार विमान और सेना अत्यन्त पीडि़त हो गयी, यहाँतक कि यदुवंशियोंके बाणोंसे शाल्व स्वयं मूर्च्छित हो गया ॥ २४ ॥
परीक्षित् !
शाल्वके सेनापतियोंने भी यदुवंशियोंपर खूब शस्त्रोंकी वर्षा कर रखी थी, इससे वे अत्यन्त पीडि़त थे; परन्तु उन्होंने अपना-अपना मोर्चा छोड़ा नहीं। वे सोचते थे कि मरेंगे तो
परलोक बनेगा और जीतेंगे तो विजयकी प्राप्ति होगी ॥ २५ ॥ परीक्षित् ! शाल्व के
मन्त्रीका नाम था द्युमान्, जिसे पहले प्रद्युम्नजी ने पचीस
बाण मारे थे। वह बहुत बली था। उसने झपटकर प्रद्युम्नजी पर अपनी फौलादी गदासे बड़े जोरसे
प्रहार किया और ‘मार लिया, मार लिया’
कहकर गरजने लगा ॥ २६ ॥ परीक्षित् ! गदाकी चोटसे शत्रुदमन
प्रद्युम्रजीका वक्ष:स्थल फट-सा गया। दारुकका पुत्र उनका रथ हाँक रहा था। वह
सारथिधर्म के अनुसार उन्हें रणभूमिसे हटा ले गया ॥ २७ ॥ दो घड़ीमें प्रद्युम्नजी की
मूर्छा टूटी। तब उन्होंने सारथिसे कहा—‘सारथे ! तूने यह बहुत
बुरा किया। हाय, हाय ! तू मुझे रणभूमिसे हटा लाया ? ॥ २८ ॥ सूत ! हमने ऐसा कभी नहीं सुना कि हमारे वंशका कोई भी वीर कभी
रणभूमि छोडक़र अलग हट गया हो ! यह कलङ्क का टीका तो केवल मेरे ही सिर लगा। सचमुच
सूत ! तू कायर है, नपुंसक है ॥ २९ ॥ बतला तो सही, अब मैं अपने ताऊ बलरामजी और पिता श्रीकृष्णके सामने जाकर क्या कहूँगा ?
अब तो सब लोग यही कहेंगे न, कि मैं युद्धसे भग
गया ? उनके पूछनेपर मैं अपने अनुरूप क्या उत्तर दे सकूँगा ॥
३० ॥ मेरी भाभियाँ हँसती हुई मुझसे साफ-साफ पूछेंगी कि कहो वीर ! तुम नपुंसक कैसे
हो गये ? दूसरोंने युद्धमें तुम्हें नीचा कैसे दिखा दिया ?
सूत ! अवश्य ही तुमने मुझे रणभूमिसे भगाकर अक्षम्य अपराध किया है !’
॥ ३१ ॥
सारथिने कहा—आयुष्मन् ! मैंने जो कुछ किया है, सारथिका धर्म समझकर ही किया है। मेरे समर्थ स्वामी ! युद्धका ऐसा धर्म है
कि सङ्कट पडऩेपर सारथि रथीकी रक्षा कर ले और रथी सारथिकी ॥ ३२ ॥ इस धर्मको समझते
हुए ही मैंने आपको रणभूमिसे हटाया है। शत्रुने आपपर गदा का प्रहार किया था,
जिससे आप मूर्च्छित हो गये थे, बड़े सङ्कटमें
थे; इसीसे मुझे ऐसा करना पड़ा ॥ ३३ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे शाल्वयुद्धे षट्सप्ततितमोऽध्यायः ॥
७६ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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