॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सतहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
शाल्व-उद्धार
श्रीशुक उवाच -
स तूपस्पृश्य सलिलं दंशितो धृतकार्मुकः ।
नय मां द्युमतः
पार्श्वं वीरस्येत्याह सारथिम् ॥ १ ॥
विधमन्तं
स्वसैन्यानि द्युमन्तं रुक्मिणीसुतः ।
प्रतिहत्य
प्रत्यविध्यन् नाराचैरष्टभिः स्मयन् ॥ २ ॥
चतुर्भिश्चतुरो
वाहान् सूतमेकेन चाहनत् ।
द्वावाभ्यं धनुश्च
केतुं च शरेणान्येन वै शिरः ॥ ३ ॥
गदसात्यकिसाम्बाद्या
जघ्नुः सौभपतेर्बलम् ।
पेतुः समुद्रे
सौभेयाः सर्वे संछिन्नकन्धराः ॥ ४ ॥
एवं यदूनां
शाल्वानां निघ्नतामितरेतरम् ।
युद्धं
त्रिणवरात्रं तद् अभूत् तुमुलमुल्बणम् ॥ ५ ॥
इन्द्रप्रस्थं गतः
कृष्ण आहूतो धर्मसूनुना ।
राजसूयेऽथ निवृत्ते
शिशुपाले च संस्थिते ॥ ६ ॥
कुरुवृद्धाननुज्ञाप्य मुनींश्च ससुतां पृथाम् ।
निमित्तान्यतिघोराणि पश्यन् द्वावारवतीं ययौ ॥ ७
॥
आह चाहमिहायात
आर्यमिश्राभिसङ्गतः ।
राजन्याश्चैद्यपक्षीया नूनं हन्युः पुरीं मम ॥ ८
॥
वीक्ष्य तत्कदनं
स्वानां निरूप्य पुररक्षणम् ।
सौभं च शाल्वराजं च
दारुकं प्राह केशवः ॥ ९ ॥
रथं प्रापय मे सूत
शाल्वस्यान्तिकमाशु वै ।
सम्भ्रमस्ते न
कर्तव्यो मायावी सौभराडयम् ॥ १० ॥
इत्युक्तश्चोदयामास
रथमास्थाय दारुकः ।
विशन्तं ददृशुः
सर्वे स्वे परे चारुणानुजम् ॥ ११ ॥
शाल्वश्च
कृष्णमालोक्य हतप्रायबलेश्वरः ।
प्राहरत्
कृष्णसूताय शक्तिं भीमरवां मृधे ॥ १२ ॥
तामापतन्तीं नभसि
महोल्कामिव रंहसा ।
भासयन्तीं दिशः
शौरिः सायकैः शतधाच्छिनत् ॥ १३ ॥
तं च
षोडशभिर्विद्ध्वा बाणैः सौभं च खे भ्रमत् ।
अविध्यच्छरसन्दोहैः
खं सूर्य इव रश्मिभिः ॥ १४ ॥
शाल्वः शौरेस्तु
दोः सव्यं शार्ङ्गं शार्ङ्गधन्वनः ।
बिभेद न्यपतद्
हस्तात् शार्ङ्गमासीत् तदद्भुतम् ॥ १५ ॥
हाहाकारो महानासीद्
भूतानां तत्र पश्यताम् ।
निनद्य
सौभराडुच्चैः इदमाह जनार्दनम् ॥ १६ ॥
यत्त्वया मूढ नः
सख्युः भ्रातुर्भार्या हृतेक्षताम् ।
प्रमत्तः स
सभामध्ये त्वया व्यापादितः सखा ॥ १७ ॥
तं त्वाद्य
निशितैर्बाणैः अपराजितमानिनम् ।
नयाम्यपुनरावृत्तिं
यदि तिष्ठेर्ममाग्रतः ॥ १८ ॥
श्रीभगवानुवाच -
वृथा त्वं कत्थसे मन्द न पश्यस्यन्तिकेऽन्तकम् ।
पौरुषं दर्शयन्ति
स्म शूरा न बहुभाषिणः ॥ १९ ॥
इत्युक्त्वा भगवान्
शाल्वं गदया भीमवेगया ।
तताड जत्रौ संरब्धः
स चकम्पे वमन्नसृक् ॥ २० ॥
गदायां
सन्निवृत्तायां शाल्वस्त्वन्तरधीयत ।
ततो मुहूर्त आगत्य
पुरुषः शिरसाच्युतम् ।
देवक्या
प्रहितोऽस्मीति नत्वा प्राह वचो रुदन् ॥ २१ ॥
कृष्ण कृष्ण
महाबाहो पिता ते पितृवत्सल ।
बद्ध्वापनीतः
शाल्वेन सौनिकेन यथा पशुः ॥ २२ ॥
निशम्य विप्रियं
कृष्णो मानुषीं प्रकृतिं गतः ।
विमनस्को घृणी
स्नेहाद् बभाषे प्राकृतो यथा ॥ २३ ॥
कथं
राममसम्भ्रान्तं जित्वाजेयं सुरासुरैः ।
शाल्वेनाल्पीयसा
नीतः पिता मे बलवान् विधिः ॥ २४ ॥
इति ब्रुवाणे
गोविन्दे सौभराट् प्रत्युपस्थितः ।
वसुदेवमिवानीय
कृष्णं चेदमुवाच सः ॥ २५ ॥
एष ते जनिता तातो
यदर्थमिह जीवसि ।
वधिष्ये
वीक्षतस्तेऽमुं ईशश्चेत् पाहि बालिश ॥ २६ ॥
एवं निर्भर्त्स्य
मायावी खड्गेनानकदुन्दुभेः ।
उत्कृत्य शिर आदाय
खस्थं सौभं समाविशत् ॥ २७ ॥
ततो मुहूर्तं प्रकृतावुपप्लुतः
स्वबोध आस्ते स्वजनानुषङ्गतः ।
महानुभावस्तदबुध्यदासुरीं
मायां स
शाल्वप्रसृतां मयोदिताम् ॥ २८ ॥
न तत्र दूतं न
पितुः कलेवरं
प्रबुद्ध आजौ
समपश्यदच्युतः ।
स्वाप्नं यथा
चाम्बरचारिणं रिपुं
सौभस्थमालोक्य
निहन्तुमुद्यतः ॥ २९ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! अब प्रद्युम्नजी
ने हाथ-मुँह धोकर, कवच पहन धनुष धारण किया और सारथिसे कहा कि
‘मुझे वीर द्युमान् के पास फिर से ले चलो’ ॥ १ ॥ उस समय द्युमान् यादवसेना को तहस-नहस कर रहा था। प्रद्युम्नजी ने
उसके पास पहुँचकर उसे ऐसा करनेसे रोक दिया और मुसकराकर आठ बाण मारे ॥ २ ॥ चार
बाणोंसे उसके चार घोड़े और एक-एक बाणसे सारथि, धनुष, ध्वजा और उसका सिर काट डाला ॥ ३ ॥ इधर गद, सात्यकि,
साम्ब आदि यदुवंशी वीर भी शाल्वकी सेनाका संहार करने लगे।
सौभ-विमानपर चढ़े हुए सैनिकोंकी गरदनें कट जातीं और वे समुद्रमें गिर पड़ते ॥ ४ ॥
इस प्रकार यदुवंशी और शाल्वके सैनिक एक-दूसरेपर प्रहार करते रहे। बड़ा ही घमासान
और भयङ्कर युद्ध हुआ और वह लगातार सत्ताईस दिनोंतक चलता रहा ॥ ५ ॥
उन दिनों
भगवान् श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिरके बुलानेसे इन्द्रप्रस्थ गये हुए थे। राजसूय
यज्ञ हो चुका था और शिशुपालकी भी मृत्यु हो गयी थी ॥ ६ ॥ वहाँ भगवान् श्रीकृष्णने
देखा कि बड़े भयङ्कर अपशकुन हो रहे हैं। तब उन्होंने कुरुवंशके बड़े-बूढ़ों, ऋषि-मुनियों, कुन्ती
और पाण्डवोंसे अनुमति लेकर द्वारकाके लिये प्रस्थान किया ॥ ७ ॥ वे मन-ही-मन कहने
लगे कि ‘मैं पूज्य भाई बलरामजीके साथ यहाँ चला आया। अब
शिशुपालके पक्षपाती क्षत्रिय अवश्य ही द्वारकापर आक्रमण कर रहे होंगे’ ॥ ८ ॥ भगवान् श्रीकृष्णने द्वारकामें पहुँचकर देखा कि सचमुच यादवोंपर
बड़ी विपत्ति आयी है। तब उन्होंने बलरामजीको नगरकी रक्षाके लिये नियुक्त कर दिया
और सौभपति शाल्वको देखकर अपने सारथि दारुकसे कहा— ॥ ९ ॥ ‘दारुक ! तुम शीघ्र-से-शीघ्र मेरा रथ शाल्वके पास ले चलो। देखो, यह शाल्व बड़ा मायावी है, तो भी तुम तनिक भी भय न
करना’ ॥ १० ॥ भगवान्की ऐसी आज्ञा पाकर दारुक रथपर चढ़ गया
और उसे शाल्वकी ओर ले चला । भगवान्के रथकी ध्वजा गरुड़चिह्नसे चिह्नित थी। उसे
देखकर यदुवंशियों तथा शाल्वकी सेनाके लोगोंने युद्धभूमिमें प्रवेश करते ही भगवान्को
पहचान लिया ॥ ११ ॥ परीक्षित् ! अबतक शाल्वकी सारी सेना प्राय: नष्ट हो चुकी थी।
भगवान् श्रीकृष्णको देखते ही उसने उनके सारथिपर एक बहुत बड़ी शक्ति चलायी। वह
शक्ति बड़ा भयङ्कर शब्द करती हुई आकाशमें बड़े वेगसे चल रही थी और बहुत बड़े लूकके
समान जान पड़ती थी। उसके प्रकाशसे दिशाएँ चमक उठी थीं। उसे सारथिकी ओर आते देख
भगवान् श्रीकृष्णने अपने बाणोंसे उसके सैकड़ों टुकड़े कर दिये ॥ १२-१३ ॥ इसके बाद
उन्होंने शाल्वको सोलह बाण मारे और उसके विमानको भी, जो
आकाशमें घूम रहा था, असंख्य बाणोंसे चलनी कर दिया—ठीक वैसे ही, जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे आकाशको भर
देता है ॥ १४ ॥ शाल्वने भगवान् श्रीकृष्णकी बायीं भुजामें, जिसमें
शार्ङ्गधनुष शोभायमान था, बाण मारा, इससे
शार्ङ्गधनुष भगवान्के हाथसे छूटकर गिर पड़ा। यह एक अद्भुत घटना घट गयी ॥ १५ ॥ जो
लोग आकाश या पृथ्वीसे यह युद्ध देख रहे थे, वे बड़े जोरसे ‘हाय-हाय’ पुकार उठे। तब शाल्वने गरजकर भगवान्
श्रीकृष्णसे यों कहा— ॥ १६ ॥ ‘मूढ़ !
तूने हमलोगोंके देखते-देखते हमारे भाई और सखा शिशुपालकी पत्नीको हर लिया तथा भरी
सभामें, जब कि हमारा मित्र शिशुपाल असावधान था तूने उसे मार
डाला ॥ १७ ॥ मैं जानता हूँ कि तू अपनेको अजेय मानता है। यदि मेरे सामने ठहर गया तो
मैं आज तुझे अपने तीखे बाणोंसे वहाँ पहुँचा दूँगा, जहाँसे
फिर कोई लौटकर नहीं आता’ ॥ १८ ॥
भगवान्
श्रीकृष्णने कहा—‘रे मन्द ! तू वृथा ही बहक
रहा है। तुझे पता नहीं कि तेरे सिरपर मौत सवार है। शूरवीर व्यर्थकी बकवाद नहीं
करते, वे अपनी वीरता ही दिखलाया करते हैं’ ॥ १९ ॥ इस प्रकार कहकर भगवान् श्रीकृष्णने क्रोधित हो अपनी अत्यन्त
वेगवती और भयङ्कर गदासे शाल्वके जत्रुस्थान (हँसली) पर प्रहार किया। इससे वह खून
उगलता हुआ काँपने लगा ॥ २० ॥ इधर जब गदा भगवान् के पास लौट आयी, तब शाल्व अन्तर्धान हो गया। इसके बाद दो घड़ी बीतते-बीतते एक मनुष्य ने
भगवान् के पास पहुँचकर उनको सिर झुकाकर प्रणाम किया और वह रोता हुआ बोला—‘मुझे आपकी माता देवकीजीने भेजा है ॥ २१ ॥ उन्होंने कहा है कि अपने पिताके
प्रति अत्यन्त प्रेम रखनेवाले महाबाहु श्रीकृष्ण ! शाल्व तुम्हारे पिताको उसी
प्रकार बाँधकर ले गया है, जैसे कोई कसाई पशुको बाँधकर ले जाय
!’ ॥ २२ ॥ यह अप्रिय समाचार सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण मनुष्य-से
बन गये। उनके मुँहपर कुछ उदासी छा गयी। वे साधारण पुरुषके समान अत्यन्त करुणा और
स्नेहसे कहने लगे— ॥ २३ ॥ ‘अहो ! मेरे
भाई बलरामजीको तो देवता अथवा असुर कोई नहीं जीत सकता। वे सदा-सर्वदा सावधान रहते
हैं। शाल्वका बल-पौरुष तो अत्यन्त अल्प है। फिर भी इसने उन्हें कैसे जीत लिया और
कैसे मेरे पिताजीको बाँधकर ले गया ? सचमुच, प्रारब्ध बहुत बलवान् है’ ॥ २४ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण
इस प्रकार कह ही रहे थे कि शाल्व वसुदेवजीके समान एक मायारचित मनुष्य लेकर वहाँ आ
पहुँचा और श्रीकृष्णसे कहने लगा— ॥ २५ ॥ ‘मूर्ख ! देख, यही तुझे पैदा करनेवाला तेरा बाप है,
जिसके लिये तू जी रहा है। तेरे देखते-देखते मैं इसका काम तमाम करता
हूँ। कुछ बल-पौरुष हो, तो इसे बचा’ ॥
२६ ॥ मायावी शाल्वने इस प्रकार भगवान्को फटकारकर मायारचित वसुदेवका सिर तलवारसे
काट लिया और उसे लेकर अपने आकाशस्थ विमानपर जा बैठा ॥ २७ ॥ परीक्षित् ! भगवान्
श्रीकृष्ण स्वयंसिद्ध ज्ञानस्वरूप और महानुभाव हैं। वे यह घटना देखकर दो घड़ीके
लिये अपने स्वजन वसुदेवजीके प्रति अत्यन्त प्रेम होनेके कारण साधारण पुरुषोंके
समान शोकमें डूब गये। परन्तु फिर वे जान गये कि यह तो शाल्वकी फैलायी हुई आसुरी
माया ही है, जो उसे मयदानवने बतलायी थी ॥ २८ ॥ भगवान्
श्रीकृष्णने युद्धभूमिमें सचेत होकर देखा—न वहाँ दूत है और न
पिताका वह शरीर; जैसे स्वप्नमें एक दृश्य दीखकर लुप्त हो गया
हो ! उधर देखा तो शाल्व विमानपर चढक़र आकाशमें विचर रहा है। तब वे उसका वध करनेके
लिये उद्यत हो गये ॥२९॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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