॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सतहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
शाल्व-उद्धार
एवं वदन्ति राजर्षे ऋषयः के च नान्विताः ।
यत् स्ववाचो
विरुध्येत नूनं ते न स्मरन्त्युत ॥ ३० ॥
क्व शोकमोहौ स्नेहो
वा भयं वा येऽज्ञसम्भवाः ।
क्व
चाखण्डितविज्ञान ज्ञानैश्वर्यस्त्वखण्डितः ॥ ३१ ॥
यत्पादसेवोर्जितयाऽऽत्मविद्यया
हिन्वन्त्यनाद्यात्मविपर्ययग्रहम् ।
लभन्त
आत्मीयमनन्तमैश्वरं
कुतो नु मोहः
परमस्य सद्गतेः ॥ ३२ ॥
तं शस्त्रपूगैः
प्रहरन्तमोजसा
शाल्वं शरैः
शौरिरमोघविक्रमः ।
विद्ध्वाच्छिनद्
वर्म धनुः शिरोमणिं
सौभं च
शत्रोर्गदया रुरोज ह ॥ ३३ ॥
तत्कृष्णहस्तेरितया
विचूर्णितं
पपात तोये गदया
सहस्रधा ।
विसृज्य तद्
भूतलमास्थितो गदां
उद्यम्य
शाल्वोऽच्युतमभ्यगाद् द्रुतम् ॥ ३४ ॥
आधावतः सगदं तस्य
बाहुं
भल्लेन
छित्त्वाथ रथाङ्गमद्भुतम् ।
वधाय शाल्वस्य
लयार्कसन्निभं
बिभ्रद् बभौ
सार्क इवोदयाचलः ॥ ३५ ॥
जहार तेनैव शिरः
सकुण्डलं
किरीटयुक्तं पुरुमायिनो हरिः ।
वज्रेण वृत्रस्य
यथा पुरन्दरो
बभूव हाहेति
वचस्तदा नृणाम् ॥ ३६ ॥
तस्मिन्निपतिते पापे सौभे च गदया हते ।
नेदुर्दुन्दुभयो
राजन् दिवि देवगणेरिताः ।
सखीनां अपचितिं
कुर्वन् दन्तवक्रो रुषाभ्यगात् ॥ ३७ ॥
प्रिय
परीक्षित् ! इस प्रकारकी बात पूर्वापर का विचार न करनेवाले कोई-कोई ऋषि कहते हैं।
अवश्य ही वे इस बातको भूल जाते हैं कि श्रीकृष्णके सम्बन्धमें ऐसा कहना उन्हींके
वचनोंके विपरीत है ॥ ३० ॥ कहाँ अज्ञानियोंमें रहनेवाले शोक, मोह, स्नेह और भय;
तथा कहाँ वे परिपूर्ण भगवान् श्रीकृष्ण—जिनका
ज्ञान, विज्ञान और ऐश्वर्य अखण्डित है, एकरस है। (भला, उनमें वैसे भावोंकी सम्भावना ही कहाँ
है ?) ॥ ३१ ॥ बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भगवान् श्रीकृष्णके
चरणकमलों की सेवा करके आत्मविद्याका भलीभाँति सम्पादन करते हैं और उसके द्वारा
शरीर आदिमें आत्मबुद्धिरूप अनादि अज्ञानको मिटा डालते हैं तथा आत्मसम्बन्धी अनन्त
ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं। उन संतोंके परम गतिस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णमें भला,
मोह कैसे हो सकता है ? ॥ ३२ ॥
अब शाल्व
भगवान् श्रीकृष्णपर बड़े उत्साह और वेगसे शस्त्रोंकी वर्षा करने लगा था।
अमोघशक्ति भगवान् श्रीकृष्णने भी अपने बाणोंसे शाल्वको घायल कर दिया और उसके कवच, धनुष तथा सिरकी मणिको छिन्न-भिन्न कर दिया।
साथ ही गदाकी चोटसे उसके विमानको भी जर्जर कर दिया ॥ ३३ ॥ परीक्षित् ! भगवान्
श्रीकृष्णके हाथोंसे चलायी हुई गदासे वह विमान चूर-चूर होकर समुद्रमें गिर पड़ा। गिरनेके
पहले ही शाल्व हाथमें गदा लेकर धरतीपर कूद पड़ा और सावधान होकर बड़े वेगसे भगवान्
श्रीकृष्णकी ओर झपटा ॥ ३४ ॥ शाल्वको आक्रमण करते देख उन्होंने भालेसे गदाके साथ
उसका हाथ काट गिराया। फिर उसे मार डालनेके लिये उन्होंने प्रलयकालीन सूर्यके समान
तेजस्वी और अत्यन्त अद्भुत सुदर्शन चक्र धारण कर लिया। उस समय उनकी ऐसी शोभा हो
रही थी, मानो सूर्यके साथ उदयाचल शोभायमान हो ॥ ३५ ॥ भगवान्
श्रीकृष्णने उस चक्रसे परम मायावी शाल्वका कुण्डल-किरीटसहित सिर धड़से अलग कर दिया;
ठीक वैसे ही, जैसे इन्द्रने वज्रसे
वृत्रासुरका सिर काट डाला था। उस समय शाल्वके सैनिक अत्यन्त दु:खसे ‘हाय-हाय’ चिल्ला उठे ॥ ३६ ॥ परीक्षित् ! जब पापी
शाल्व मर गया और उसका विमान भी गदाके प्रहारसे चूर-चूर हो गया, तब देवतालोग आकाशमें दुन्दुभियाँ बजाने लगे। ठीक इसी समय दन्तवक्त्र अपने
मित्र शिशुपाल आदिका बदला लेनेके लिये अत्यन्त क्रोधित होकर आ पहुँचा ॥ ३७ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे सौभवधो नाम सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ॥
७७ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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