॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अठहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
दन्तवक्त्र और
विदूरथ का उद्धार तथा
तीर्थयात्रा में
बलरामजी के हाथ से सूतजी का वध
श्रीशुक उवाच
शिशुपालस्य शाल्वस्य पौण्ड्रकस्यापि दुर्मतिः
परलोकगतानां च कुर्वन्पारोक्ष्यसौहृदम् १
एकः पदातिः सङ्क्रुद्धो गदापाणिः प्रकम्पयन्
पद्भ्यामिमां महाराज महासत्त्वो व्यदृश्यत २
तं तथायान्तमालोक्य गदामादाय सत्वरः
अवप्लुत्य रथात्कृष्णः सिन्धुं वेलेव प्रत्यधात् ३
गदामुद्यम्य कारूषो मुकुन्दं प्राह दुर्मदः
दिष्ट्या दिष्ट्या भवानद्य मम दृष्टिपथं गतः ४
त्वं मातुलेयो नः कृष्ण मित्रध्रुङ्मां जिघांससि
अतस्त्वां गदया मन्द हनिष्ये वज्रकल्पया ५
तर्ह्यानृण्यमुपैम्यज्ञ मित्राणां मित्रवत्सलः
बन्धुरूपमरिं हत्वा व्याधिं देहचरं यथा ६
एवं रूक्षैस्तुदन्वाक्यैः कृष्णं तोत्रैरिव द्विपम्
गदयाताडयन्मूर्ध्नि सिंहवद्व्यनदच्च सः ७
गदयाभिहतोऽप्याजौ न चचाल यदूद्वहः
कृष्णोऽपि तमहन्गुर्व्या कौमोदक्या स्तनान्तरे ८
गदानिर्भिन्नहृदय उद्वमन्रुधिरं मुखात्
प्रसार्य केशबाह्वङ्घ्रीन्धरण्यां न्यपतद्व्यसुः ९
ततः सूक्ष्मतरं ज्योतिः कृष्णमाविशदद्भुतम्
पश्यतां सर्वभूतानां यथा चैद्यवधे नृप १०
विदूरथस्तु तद्भ्राता भ्रातृशोकपरिप्लुतः
आगच्छदसिचर्माभ्यामुच्छ्वसंस्तज्जिघांसया ११
तस्य चापततः कृष्णश्चक्रेण क्षुरनेमिना
शिरो जहार राजेन्द्र सकिरीटं सकुण्डलम् १२
एवं सौभं च शाल्वं च दन्तवक्रं सहानुजम्
हत्वा दुर्विषहानन्यैरीडितः सुरमानवैः १३
मुनिभिः सिद्धगन्धर्वैर्विद्याधरमहोरगैः
अप्सरोभिः पितृगणैर्यक्षैः किन्नरचारणैः १४
उपगीयमानविजयः कुसुमैरभिवर्षितः
वृतश्च वृष्णिप्रवरैर्विवेशालङ्कृतां पुरीम् १५
एवं योगेश्वरः कृष्णो भगवान्जगदीश्वरः
ईयते पशुदृष्टीनां निर्जितो जयतीति सः १६
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! शिशुपाल,
शाल्व और पौण्ड्रक के मारे जानेपर उनकी मित्रताका ऋण चुकानेके लिये
मूर्ख दन्तवक्त्र अकेला ही पैदल युद्धभूमिमें आ धमका। वह क्रोधके मारे आग-बबूला हो
रहा था। शस्त्रके नामपर उसके हाथमें एकमात्र गदा थी। परन्तु परीक्षित् ! लोगोंने
देखा, वह इतना शक्तिशाली है कि उसके पैरोंकी धमकसे पृथ्वी
हिल रही है ॥ १-२ ॥ भगवान् श्रीकृष्णने जब उसे इस प्रकार आते देखा, तब झटपट हाथमें गदा लेकर वे रथसे कूद पड़े। फिर जैसे समुद्रके तटकी भूमि
उसके ज्वार-भाटेको आगे बढऩेसे रोक देती है, वैसे ही उन्होंने
उसे रोक दिया ॥ ३ ॥ घमंडके नशेमें चूर करूषनरेश दन्तवक्त्रने गदा तानकर भगवान्
श्रीकृष्णसे कहा—‘बड़े सौभाग्य और आनन्दकी बात है कि आज तुम
मेरी आँखोंके सामने पड़ गये ॥ ४ ॥ कृष्ण ! तुम मेरे मामाके लडक़े हो, इसलिये तुम्हें मारना तो नहीं चाहिये; परन्तु एक तो
तुमने मेरे मित्रोंको मार डाला है और दूसरे मुझे भी मारना चाहते हो। इसलिये
मतिमन्द ! आज मैं तुम्हें अपनी वज्रकर्कश गदासे चूर-चूर कर डालूँगा ॥ ५ ॥ मूर्ख !
वैसे तो तुम मेरे सम्बन्धी हो, फिर भी हो शत्रु ही, जैसे अपने ही शरीरमें रहनेवाला कोई रोग हो ! मैं अपने मित्रोंसे बड़ा
प्रेम करता हूँ, उनका मुझपर ऋण है। अब तुम्हें मारकर ही मैं
उनके ऋणसे उऋण हो सकता हूँ ॥ ६ ॥ जैसे महावत अङ्कुश से हाथीको घायल करता है,
वैसे ही दन्तवक्त्र ने अपनी कड़वी बातोंसे श्रीकृष्णको चोट
पहुँचानेकी चेष्टा की और फिर वह उनके सिरपर बड़े वेगसे गदा मारकर सिंहके समान गरज
उठा ॥ ७ ॥ रणभूमिमें गदाकी चोट खाकर भी भगवान् श्रीकृष्ण टस-से-मस न हुए।
उन्होंने अपनी बहुत बड़ी कौमोदकी गदा सम्हालकर उससे दन्तवक्त्रके वक्ष:स्थलपर
प्रहार किया ॥ ८ ॥ गदाकी चोटसे दन्तवक्त्रका कलेजा फट गया। वह मुँहसे खून उगलने
लगा। उसके बाल बिखर गये, भुजाएँ और पैर फैल गये। निदान
निष्प्राण होकर वह धरतीपर गिर पड़ा ॥ ९ ॥ परीक्षित् ! जैसा कि शिशुपालकी मृत्युके
समय हुआ था, सब प्राणियोंके सामने ही दन्तवक्त्रके मृत
शरीरसे एक अत्यन्त सूक्ष्म ज्योति निकली और वह बड़ी विचित्र रीतिसे भगवान्
श्रीकृष्णमें समा गयी ॥ १० ॥
दन्तवक्त्रके
भाईका नाम था विदूरथ। वह अपने भाईकी मृत्युसे अत्यन्त शोकाकुल हो गया। अब वह
क्रोधके मारे लंबी-लंबी साँस लेता हुआ हाथमें ढाल-तलवार लेकर भगवान् श्रीकृष्णको
मार डालनेकी इच्छासे आया ॥ ११ ॥ राजेन्द्र ! जब भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि अब वह
प्रहार करना ही चाहता है, तब उन्होंने अपने छुरेके
समान तीखी धारवाले चक्रसे किरीट और कुण्डलके साथ उसका सिर धड़ से अलग कर दिया ॥ १२
॥ इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णने शाल्व, उसके विमान सौभ,
दन्तवक्त्र और विदूरथको, जिन्हें मारना
दूसरोंके लिये अशक्य था, मारकर द्वारकापुरीमें प्रवेश किया।
उस समय देवता और मनुष्य उनकी स्तुति कर रहे थे। बड़े-बड़े ऋषि- मुनि, सिद्ध-गन्धर्व, विद्याधर और वासुकि आदि महानाग,
अप्सराएँ, पितर, यक्ष,
किन्नर तथा चारण उनके ऊपर पुष्पोंकी वर्षा करते हुए उनकी विजयके गीत
गा रहे थे। भगवान्के प्रवेशके अवसरपर पुरी खूब सजा दी गयी थी और बड़े-बड़े
वृष्णिवंशी यादव वीर उनके पीछे-पीछे चल रहे थे ॥ १३—१५ ॥
योगेश्वर एवं जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण इसी प्रकार अनेकों खेल-खेलते रहते हैं।
जो पशुओंके समान अविवेकी हैं, वे उन्हें कभी हारते भी देखते
हैं। परन्तु वास्तवमें तो वे सदा-सर्वदा विजयी ही हैं ॥ १६ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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