॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अठहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
दन्तवक्त्र और
विदूरथ का उद्धार तथा
तीर्थयात्रा में
बलरामजी के हाथ से सूतजी का वध
श्रुत्वा युद्धोद्यमं रामः कुरूणां सह पाण्डवैः
तीर्थाभिषेकव्याजेन मध्यस्थः प्रययौ किल १७
स्नात्वा प्रभासे सन्तर्प्य देवर्षिपितृमानवान्
सरस्वतीं प्रतिस्रोतं ययौ ब्राह्मणसंवृतः १८
पृथूदकं बिन्दुसरस्त्रितकूपं सुदर्शनम्
विशालं ब्रह्मतीर्थं च चक्रं प्राचीं सरस्वतीम् १९
यमुनामनु यान्येव गङ्गामनु च भारत
जगाम नैमिषं यत्र ऋषयः सत्रमासते २०
तमागतमभिप्रेत्य मुनयो दीर्घसत्रिणः
अभिनन्द्य यथान्यायं प्रणम्योत्थाय चार्चयन् २१
सोऽर्चितः सपरीवारः कृतासनपरिग्रहः
रोमहर्षणमासीनं महर्षेः शिष्यमैक्षत २२
अप्रत्युत्थायिनं सूतमकृतप्रह्वणाञ्जलिम्
अध्यासीनं च तान्विप्रांश्चुकोपोद्वीक्ष्य माधवः २३
यस्मादसाविमान्विप्रानध्यास्ते प्रतिलोमजः
धर्मपालांस्तथैवास्मान्वधमर्हति दुर्मतिः २४
ऋषेर्भगवतो भूत्वा शिष्योऽधीत्य बहूनि च
सेतिहासपुराणानि धर्मशास्त्राणि सर्वशः २५
अदान्तस्याविनीतस्य वृथा पण्डितमानिनः
न गुणाय भवन्ति स्म नटस्येवाजितात्मनः २६
एतदर्थो हि लोकेऽस्मिन्नवतारो मया कृतः
वध्या मे धर्मध्वजिनस्ते हि पातकिनोऽधिकाः २७
एतावदुक्त्वा भगवान्निवृत्तोऽसद्वधादपि
भावित्वात्तं कुशाग्रेण करस्थेनाहनत्प्रभुः २८
हाहेतिवादिनः सर्वे मुनयः खिन्नमानसाः
ऊचुः सङ्कर्षणं देवमधर्मस्ते कृतः प्रभो २९
अस्य ब्रह्मासनं दत्तमस्माभिर्यदुनन्दन
आयुश्चात्माक्लमं तावद्यावत्सत्रं समाप्यते ३०
अजानतैवाचरितस्त्वया ब्रह्मवधो यथा
योगेश्वरस्य भवतो नाम्नायोऽपि नियामकः ३१
यद्येतद्ब्रह्महत्यायाः पावनं लोकपावन
चरिष्यति भवांल्लोक सङ्ग्रहोऽनन्यचोदितः ३२
श्रीभगवानुवाच
चरिष्ये वधनिर्वेशं लोकानुग्रहकाम्यया
नियमः प्रथमे कल्पे यावान्स तु विधीयताम् ३३
दीर्घमायुर्बतैतस्य सत्त्वमिन्द्रि यमेव च
आशासितं यत्तद्ब्रूते साधये योगमायया ३४
ऋषय ऊचुः
अस्त्रस्य तव वीर्यस्य मृत्योरस्माकमेव च
यथा भवेद्वचः सत्यं तथा राम विधीयताम् ३५
श्रीभगवानुवाच
आत्मा वै पुत्र उत्पन्न इति वेदानुशासनम्
तस्मादस्य भवेद्वक्ता आयुरिन्द्रि यसत्त्ववान् ३६
किं वः कामो मुनिश्रेष्ठा ब्रूताहं करवाण्यथ
अजानतस्त्वपइ!तिं यथा मे चिन्त्यतां बुधाः ३७
ऋषय ऊचुः
इल्वलस्य सुतो घोरो बल्वलो नाम दानवः
स दूषयति नः सत्रमेत्य पर्वणि पर्वणि ३८
तं पापं जहि दाशार्ह तन्नः शुश्रूषणं परम्
पूयशोणितविन्मूत्र सुरामांसाभिवर्षिणम् ३९
ततश्च भारतं वर्षं परीत्य सुसमाहितः
चरित्वा द्वादशमासांस्तीर्थस्नायी विशुध्यसि ४०
एक बार
बलरामजीने सुना कि दुर्योधनादि कौरव पाण्डवोंके साथ युद्ध करनेकी तैयारी कर रहे
हैं। वे मध्यस्थ थे, उन्हें किसीका पक्ष लेकर
लडऩा पसंद नहीं था। इसलिये वे तीर्थोंमें स्नान करनेके बहाने द्वारकासे चले गये ॥
१७ ॥ वहाँसे चलकर उन्होंने प्रभासक्षेत्रमें स्नान किया और तर्पण तथा
ब्राह्मणभोजनके द्वारा देवता, ऋषि, पितर
और मनुष्योंको तृप्त किया। इसके बाद वे कुछ ब्राह्मणोंके साथ जिधर से सरस्वती नदी
आ रही थी, उधर ही चल पड़े ॥ १८ ॥ वे क्रमश: पृथूदक, बिन्दुसर, त्रितकूप, सुदर्शनतीर्थ,
विशालतीर्थ, ब्रह्मतीर्थ, चक्रतीर्थ और पूर्ववाहिनी सरस्वती आदि तीर्थोंमें गये ॥ १९ ॥ परीक्षित् !
तदनन्तर यमुनातट और गङ्गातटके प्रधान-प्रधान तीर्थोंमें होते हुए वे नैमिषारण्य
क्षेत्रमें गये। उन दिनों नैमिषारण्य क्षेत्रमें बड़े-बड़े ऋषि सत्सङ्गरूप महान्
सत्र कर रहे थे ॥ २० ॥ दीर्घकालतक सत्सङ्गसत्रका नियम लेकर बैठे हुए ऋषियोंने
बलरामजीको आया देख अपने-अपने आसनोंसे उठकर उनका स्वागत-सत्कार किया और यथायोग्य
प्रणाम-आशीर्वाद करके उनकी पूजा की ॥ २१ ॥ वे अपने साथियोंके साथ आसन ग्रहण करके
बैठ गये और उनकी अर्चा-पूजा हो चुकी, तब उन्होंने देखा कि
भगवान् व्यास के शिष्य रोमहर्षण व्यासगद्दीपर बैठे हुए हैं ॥ २२ ॥ बलरामजी ने
देखा कि रोमहर्षणजी सूत-जाति में उत्पन्न होनेपर भी उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे ऊँचे
आसनपर बैठे हुए हैं और उनके आनेपर न तो उठकर स्वागत करते हैं और न हाथ जोडक़र
प्रणाम ही। इसपर बलरामजी को क्रोध आ गया ॥ २३ ॥ वे कहने लगे कि ‘यह रोमहर्षण प्रतिलोम जातिका होनेपर भी इन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे तथा
धर्मके रक्षक हमलोगों से ऊपर बैठा हुआ है, इसलिये यह दुर्बुद्धि
मृत्युदण्डका पात्र है ॥ २४ ॥ भगवान् व्यासदेव का शिष्य होकर इसने इतिहास,
पुराण, धर्मशास्त्र आदि बहुत-से शास्त्रोंका
अध्ययन भी किया है; परन्तु अभी इसका अपने मनपर संयम नहीं है।
यह विनयी नहीं, उद्दण्ड है। इस अजितात्मा ने झूठमूठ अपनेको
बहुत बड़ा पण्डित मान रखा है। जैसे नट की सारी चेष्टाएँ अभिनयमात्र होती हैं,
वैसे ही इसका सारा अध्ययन स्वाँगके लिये है। उससे न इसका लाभ है और
न किसी दूसरेका ॥ २५-२६ ॥ जो लोग धर्मका चिह्न धारण करते हैं, परन्तु धर्मका पालन नहीं करते, वे अधिक पापी हैं और
वे मेरे लिये वध करने योग्य हैं। इस जगत्में इसीलिये मैंने अवतार धारण किया है’
॥ २७ ॥ भगवान् बलराम यद्यपि तीर्थयात्राके कारण दुष्टोंके वधसे भी
अलग हो गये थे, फिर भी इतना कहकर उन्होंने अपने हाथमें स्थित
कुशकी नोकसे उनपर प्रहार कर दिया और वे तुरंत मर गये। होनहार ही ऐसी थी ॥ २८ ॥
सूतजीके मरते ही सब ऋषि-मुनि हाय-हाय करने लगे, सबके चित्त
खिन्न हो गये। उन्होंने देवाधिदेव भगवान् बलरामजीसे कहा—‘प्रभो
! आपने यह बहुत बड़ा अधर्म किया ॥ २९ ॥ यदुवंशशिरोमणे ! सूतजीको हम लोगोंने ही
ब्राह्मणोचित आसनपर बैठाया था और जबतक हमारा यह सत्र समाप्त न हो, तबतकके लिये उन्हें शारीरिक कष्टसे रहित आयु भी दे दी थी ॥ ३० ॥ आपने
अनजानमें यह ऐसा काम कर दिया, जो ब्रह्महत्याके समान है।
हमलोग यह मानते हैं कि आप योगेश्वर हैं, वेद भी आपपर शासन
नहीं कर सकता। फिर भी आपसे यह प्रार्थना है कि आपका अवतार लोगोंको पवित्र करनेके
लिये हुआ है; यदि आप किसीकी प्रेरणाके बिना स्वयं अपनी
इच्छासे ही इस ब्रह्महत्याका प्रायश्चित्त कर लेंगे तो इससे लोगोंको बहुत शिक्षा
मिलेगी’ ॥ ३१-३२ ॥
भगवान्
बलरामने कहा—मैं लोगोंको शिक्षा देनेके
लिये, लोगोंपर अनुग्रह करनेके लिये इस ब्रह्म- हत्याका
प्रायश्चित्त अवश्य करूँगा, अत: इसके लिये प्रथम श्रेणीका जो
प्रायश्चित्त हो, आपलोग उसीका विधान कीजिये ॥ ३३ ॥ आपलोग इस
सूतको लंबी आयु, बल, इन्द्रिय-शक्ति
आदि जो कुछ भी देना चाहते हों, मुझे बतला दीजिये; मैं अपने योगबलसे सब कुछ सम्पन्न किये देता हूँ ॥ ३४ ॥
ऋषियों ने कहा-
बलरामजी ! आप ऐसा कोई उपाय कीजेये जिससे आपका शस्त्र, पराक्रम और इनकी मृत्यु भी व्यर्थ न हो और हम लोगोंने इन्हें जो वरदान दिए था वह भी सत्य हो जाय ॥ ३५ ॥
भगवान बलरामने
कहा- ऋषियों ! वेदोंका ऐसा कहना है कि आत्मा ही पुत्रके रूप मे उत्पन्न होता है | इसलिए रोमहर्षणके स्थानपर उनका पुत्र
आपलोगों को पुरानोकी कथा सुनाएगा | उसे मै अपनी सक्तिसे
दीर्धायु, इन्द्रियशाक्ति औए बल दिए देता हूँ ॥ ३६ ॥ ऋषियों!
इसके अतिरिक्त आपलोग जो कुछ भी चाहते हो , मुझसे कहिये |
मे आप लोगों कि इच्छा पूर्ण करूँगा | अनजाने मे
मुझसे जो अपराध हो गया है उसका प्रायश्चित भी आपलोग सोच विचारकर बतलाइये | क्यूंकि आपलोग इस विषय के विद्वान है ॥३७॥
ऋषियों ने
कहा- बलरामजी ! इल्वल का पुत्र बल्वल नामक एक भयंकर दानव है| वह प्रत्येक पर्व पर यहाँ वहां पहुँचता है
और हमारे इस सत्रको दूषित कर देता है ॥ ३८ ॥ यदुनंदन ! वह यहाँ आकर पीच, खून, विष्ठा, मूत्र, शराब और मसकी वर्षा करने लगता है| आप उस पापी को मर
डालिये | हम लोगों कि यह बहुत बड़ी सेवा होगी ॥ ३९ ॥ इसके बाद
आप एकाग्रचितसे तीर्थोंमे स्नान करते हुए बारह महीनो तक भारतवर्षकी परिक्रमा करते
हुए विचरण कीजिए | इससे आपकी शुद्धि हो जायगी ॥ ४० ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे बलदेवचरित्रे बल्वलवधोपक्रमो
नामाष्टसप्ततितमोऽध्यायः
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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