॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उन्नासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
बल्वल का
उद्धार और बलराम जी की तीर्थयात्रा
श्रीशुक उवाच
ततः पर्वण्युपावृत्ते प्रचण्डः पांशुवर्षणः
भीमो वायुरभूद्राजन्पूयगन्धस्तु सर्वशः १
ततोऽमेध्यमयं वर्षं बल्वलेन विनिर्मितम्
अभवद्यज्ञशालायां सोऽन्वदृश्यत शूलधृक् २
तं विलोक्य बृहत्कायं भिन्नाञ्जनचयोपमम्
तप्तताम्रशिखाश्मश्रुं दंष्ट्रोग्रभ्रुकुटीमुखम् ३
सस्मार मूषलं रामः परसैन्यविदारणम्
हलं च दैत्यदमनं ते तूर्णमुपतस्थतुः ४
तमाकृष्य हलाग्रेण बल्वलं गगनेचरम्
मूषलेनाहनत्क्रुद्धो मूर्ध्नि ब्रह्मद्रुहं बलः ५
सोऽपतद्भुवि निर्भिन्न ललाटोऽसृक्समुत्सृजन्
मुञ्चन्नार्तस्वरं शैलो यथा वज्रहतोऽरुणः ६
संस्तुत्य मुनयो रामं प्रयुज्यावितथाशिषः
अभ्यषिञ्चन्महाभागा वृत्रघ्नं विबुधा यथा ७
वैजयन्तीं ददुर्मालां श्रीधामाम्लानपङ्कजां
रामाय वाससी दिव्ये दिव्यान्याभरणानि च ८
अथ तैरभ्यनुज्ञातः कौशिकीमेत्य ब्राह्मणैः
स्नात्वा सरोवरमगाद्यतः सरयूरास्रवत् ९
अनुस्रोतेन सरयूं प्रयागमुपगम्य सः
स्नात्वा सन्तर्प्य देवादीन्जगाम पुलहाश्रमम् १०
गोमतीं गण्डकीं स्नात्वा विपाशां शोण आप्लुतः
गयां गत्वा पितॄनिष्ट्वा गङ्गासागरसङ्गमे ११
उपस्पृश्य महेन्द्रा द्रौ रामं दृष्ट्वाभिवाद्य च
सप्तगोदावरीं वेणां पम्पां भीमरथीं ततः १२
स्कन्दं दृष्ट्वा ययौ रामः श्रीशैलं गिरिशालयम्
द्र विडेषु महापुण्यं दृष्ट्वाद्रिं वेङ्कटं प्रभुः १३
कामकोष्णीं पुरीं काञ्चीं कावेरीं च सरिद्वराम्
श्रीरन्गाख्यं महापुण्यं यत्र सन्निहितो हरिः १४
ऋषभाद्रिं हरेः क्षेत्रं दक्षिणां मथुरां तथा
सामुद्रं सेतुमगमत्महापातकनाशनम् १५
तत्रायुतमदाद्धेनूर्ब्राह्मणेभ्यो हलायुधः
कृतमालां ताम्रपर्णीं मलयं च कुलाचलम् १६
तत्रागस्त्यं समासीनं नमस्कृत्याभिवाद्य च
योजितस्तेन चाशीर्भिरनुज्ञातो गतोऽर्णवम् १७
दक्षिणं तत्र कन्याख्यां दुर्गां देवीं ददर्श सः
ततः फाल्गुनमासाद्य पञ्चाप्सरसमुत्तमम्
विष्णुः सन्निहितो यत्र स्नात्वास्पर्शद्गवायुतम् १८
श्रीसुखदेवजी
कहते हैं – परीक्षित् पर्व का दिन
आनेपर बड़ा भयंकर है ॥ ९ ॥ वहाँसे सरयू के किनारे-किनारे चलने लगे, फिर उसे छोडक़र प्रयाग आये; और वहाँ स्नान तथा देवता,
ऋषि एवं पितरोंका तर्पण करके वहाँसे पुलहाश्रम गये ॥ १० ॥ वहाँ से
गण्डकी, गोमती तथा विपाशा नदियोंमें स्नान करके वे सोननद के
तटपर गये और वहाँ स्नान किया। इसके बाद गयामें जाकर पितरों का वसुदेवजी के
आज्ञानुसार पूजन-यजन किया। फिर गङ्गा-सागर- संगम पर गये; वहाँ
भी स्नान आदि तीर्थ-कृत्योंसे निवृत्त होकर महेन्द्र पर्वतपर गये। वहाँ
परशुरामजीका दर्शन और अभिवादन किया। तदनन्तर सप्तगोदावरी, वेणा,
पम्पा और भीमरथी आदिमें स्नान करते हुए स्वामिकार्तिकका दर्शन करने
गये तथा वहाँसे महादेवजीके निवासस्थान श्रीशैलपर पहुँचे। इसके बाद भगवान् बलरामने
द्रविड़ देशके परम पुण्यमय स्थान वेङ्कटाचल (बालाजी) का दर्शन किया और वहाँसे वे
कामाक्षी—शिवकाञ्ची, विष्णुकाञ्ची होते
हुए तथा श्रेष्ठ नदी कावेरीमें स्नान करते हुए पुण्यमय श्रीरंगक्षेत्र में पहुँचे।
श्रीरंगक्षेत्रमें भगवान् विष्णु सदा विराजमान रहते हैं ॥ ११-१४ ॥ वहाँसे
उन्होंने विष्णु भगवान् के क्षेत्र ऋषभ पर्वत, दक्षिण मथुरा
तथा बड़े-बड़े महापापोंको नष्ट करनेवाले सेतुबन्धकी यात्रा की ॥ १५ ॥ वहाँ
बलरामजीने ब्राह्मणोंको दस हजार गौएँ दान कीं। फिर वहाँसे कृतमाला और ताम्रपर्णी
नदियोंमें स्नान करते हुए वे मलयपर्वतपर गये। वह पर्वत सात कुलपर्वतोंमेंसे एक है
॥ १६ ॥ वहाँ पर विराजमान अगस्त्य मुनिको उन्होंने नमस्कार और अभिवादन किया।
अगस्त्यजीसे आशीर्वाद और अनुमति प्राप्त करके बलरामजीने दक्षिण समुद्रकी यात्रा
की। वहाँ उन्होंने दुर्गादेवीका कन्याकुमारीके रूपमें दर्शन किया ॥ १७ ॥ इसके बाद
वे फाल्गुन तीर्थ—अनन्तशयन क्षेत्रमें गये और वहाँके
सर्वश्रेष्ठ पञ्चाप्सरस तीर्थमें स्नान किया। उस तीर्थमें सर्वदा विष्णुभगवान् का
सान्निध्य रहता है। वहाँ बलरामजीने दस हजार गौएँ दान कीं ॥ १८ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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