॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उन्नासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
बल्वल का
उद्धार और बलराम जी की तीर्थयात्रा
ततोऽभिव्रज्य भगवान्केरलांस्तु त्रिगर्तकान्
गोकर्णाख्यं शिवक्षेत्रं सान्निध्यं यत्र धूर्जटेः १९
आर्यां द्वैपायनीं दृष्ट्वा शूर्पारकमगाद्बलः
तापीं पयोष्णीं निर्विन्ध्यामुपस्पृश्याथ दण्डकम् २०
प्रविश्य रेवामगमद्यत्र माहिष्मती पुरी
मनुतीर्थमुपस्पृश्य प्रभासं पुनरागमत् २१
श्रुत्वा द्विजैः कथ्यमानं कुरुपाण्डवसंयुगे
सर्वराजन्यनिधनं भारं मेने हृतं भुवः २२
स भीमदुर्योधनयोर्गदाभ्यां युध्यतोर्मृधे
वारयिष्यन्विनशनं जगाम यदुनन्दनः २३
युधिष्ठिरस्तु तं दृष्ट्वा यमौ कृष्णार्जुनावपि
अभिवाद्याभवंस्तुष्णीं किं विवक्षुरिहागतः २४
गदापाणी उभौ दृष्ट्वा संरब्धौ विजयैषिणौ
मण्डलानि विचित्राणि चरन्ताविदमब्रवीत् २५
युवां तुल्यबलौ वीरौ हे राजन्हे वृकोदर
एकं प्राणाधिकं मन्ये उतैकं शिक्षयाधिकम् २६
तस्मादेकतरस्येह युवयोः समवीर्ययोः
न लक्ष्यते जयोऽन्यो वा विरमत्वफलो रणः २७
न तद्वाक्यं जगृहतुर्बद्धवैरौ नृपार्थवत्
अनुस्मरन्तावन्योन्यं दुरुक्तं दुष्कृतानि च २८
दिष्टं तदनुमन्वानो रामो द्वारवतीं ययौ
उग्रसेनादिभिः प्रीतैर्ज्ञातिभिः समुपागतः २९
तं पुनर्नैमिषं प्राप्तमृषयोऽयाजयन्मुदा
क्रत्वङ्गं क्रतुभिः सर्वैर्निवृत्ताखिलविग्रहम् ३०
तेभ्यो विशुद्धं विज्ञानं भगवान्व्यतरद्विभुः
येनैवात्मन्यदो विश्वमात्मानं विश्वगं विदुः ३१
स्वपत्यावभृथस्नातो ज्ञातिबन्धुसुहृद्वृतः
रेजे स्वज्योत्स्नयेवेन्दुः सुवासाः सुष्ठ्वलङ्कृतः ३२
ईदृग्विधान्यसङ्ख्यानि बलस्य बलशालिनः
अनन्तस्याप्रमेयस्य मायामर्त्यस्य सन्ति हि ३३
योऽनुस्मरेत रामस्य कर्माण्यद्भुतकर्मणः
सायं प्रातरनन्तस्य विष्णोः स दयितो भवेत् ३४
अब भगवान्
बलराम वहाँसे चलकर केरल और त्रिगर्त देशोंमें होकर भगवान् शङ्कर के क्षेत्र गोकर्णतीर्थ
में आये। वहाँ सदा-सर्वदा भगवान् शङ्कर विराजमान रहते हैं ॥ १९ ॥ वहाँसे जलसे
घिरे द्वीपमें निवास करनेवाली आर्यादेवी का दर्शन करने गये और फिर उस द्वीपसे चलकर
शूर्पारक- क्षेत्रकी यात्रा की, इसके बाद तापी, पयोष्णी और निर्विन्ध्या नदियोंमें
स्नान करके वे दण्डकारण्य में आये ॥ २० ॥ वहाँ होकर वे नर्मदाजीके तटपर गये।
परीक्षित् ! इस पवित्र नदीके तटपर ही माहिष्मतीपुरी है। वहाँ मनुतीर्थमें स्नान
करके वे फिर प्रभासक्षेत्रमें चले आये ॥ २१ ॥ वहीं उन्होंने ब्राह्मणोंसे सुना कि
कौरव और पाण्डवोंके युद्धमें अधिकांश क्षत्रियोंका संहार हो गया। उन्होंने ऐसा
अनुभव किया कि अब पृथ्वीका बहुत-सा भार उतर गया ॥ २२ ॥ जिस दिन रणभूमिमें भीमसेन
और दुर्योधन गदायुद्ध कर रहे थे, उसी दिन बलरामजी उन्हें
रोकनेके लिये कुरुक्षेत्र जा पहुँचे ॥ २३ ॥
महाराज
युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव,
भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनने बलरामजीको देखकर प्रणाम किया तथा चुप
हो रहे। वे डरते हुए मन-ही-मन सोचने लगे कि ये न जाने क्या कहनेके लिये यहाँ पधारे
हैं ? ॥ २४ ॥ उस समय भीमसेन और दुर्योधन दोनों ही हाथमें गदा
लेकर एक- दूसरेको जीतनेके लिये क्रोधसे भरकर भाँति-भाँतिके पैंतरे बदल रहे थे।
उन्हें देखकर बलरामजीने कहा— ॥ २५ ॥ ‘राजा
दुर्योधन और भीमसेन ! तुम दोनों वीर हो। तुम दोनोंमें बल-पौरुष भी समान है। मैं
ऐसा समझता हूँ कि भीमसेनमें बल अधिक है और दुर्योधनने गदायुद्धमें शिक्षा अधिक
पायी है ॥ २६ ॥ इसलिये तुमलोगों-जैसे समान बलशालियोंमें किसी एक की जय या पराजय
नहीं होती दीखती। अत: तुमलोग व्यर्थका युद्ध मत करो, अब इसे
बंद कर दो’ ॥ २७ ॥ परीक्षित् ! बलरामजीकी बात दोनोंके लिये
हितकर थी। परन्तु उन दोनोंका वैरभाव इतना दृढ़मूल हो गया था कि उन्होंने बलरामजीकी
बात न मानी। वे एक-दूसरेकी कटुवाणी और दुव्र्यवहारोंका स्मरण करके उन्मत्त-से हो
रहे थे ॥ २८ ॥ भगवान् बलरामजीने निश्चय किया कि इनका प्रारब्ध ऐसा ही है; इसलिये उसके सम्बन्धमें विशेष आग्रह न करके वे द्वारका लौट गये।
द्वारकामें उग्रसेन आदि गुरुजनों तथा अन्य सम्बन्धियोंने बड़े प्रेमसे आगे आकर
उनका स्वागत किया ॥ २९ ॥ वहाँसे बलरामजी फिर नैमिषारण्य क्षेत्रमें गये। वहाँ
ऋषियोंने विरोधभावसे—युद्धादिसे निवृत्त बलरामजीके द्वारा
बड़े प्रेमसे सब प्रकारके यज्ञ कराये। परीक्षित् ! सच पूछो तो जितने भी यज्ञ हैं,
वे बलरामजीके अंग ही हैं। इसलिये उनका यह यज्ञानुष्ठान लोकसंग्रह के
लिये ही था ॥ ३० ॥ सर्वसमर्थ भगवान् बलरामने उन ऋषियोंको विशुद्ध तत्त्वज्ञानका
उपदेश किया, जिससे वे लोग इस सम्पूर्ण विश्वको अपने-आपमें और
अपने-आपको सारे विश्वमें अनुभव करने लगे ॥ ३१ ॥ इसके बाद बलरामजीने अपनी पत्नी
रेवतीके साथ यज्ञान्त-स्नान किया और सुन्दर-सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण पहनकर अपने
भाई-बन्धु तथा स्वजन-सम्बन्धियोंके साथ इस प्रकार शोभायमान हुए, जैसे अपनी चन्द्रिका एवं नक्षत्रोंके साथ चन्द्रदेव होते हैं ॥ ३२ ॥
परीक्षित् ! भगवान् बलराम स्वयं अनन्त हैं। उनका स्वरूप मन और वाणीके परे है।
उन्होंने लीलाके लिये ही यह मनुष्योंका-सा शरीर ग्रहण किया है। उन बलशाली
बलरामजीके ऐसे-ऐसे चरित्रोंकी गिनती भी नहीं की जा सकती ॥ ३३ ॥ जो पुरुष अनन्त,
सर्वव्यापक, अद्भुतकर्मा भगवान् बलरामजीके
चरित्रोंका सायं- प्रात: स्मरण करता है, वह भगवान्का
अत्यन्त प्रिय हो जाता है ॥ ३४ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे बलदेवतीर्थयात्रानिरूपणं नामैकोनाशीतितमोऽध्यायः
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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