रविवार, 4 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अस्सीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अस्सीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीकृष्ण के द्वारा सुदामा जी का स्वागत

 

श्रीराजोवाच -

भगवन् यानि चान्यानि मुकुन्दस्य महात्मनः ।

वीर्याण्यनन्तवीर्यस्य श्रोतुमिच्छामि हे प्रभो ॥ १ ॥

को नु श्रुत्वासकृद् ब्रह्मन् उत्तमःश्लोकसत्कथाः ।

विरमेत विशेषज्ञो विषण्णः काममार्गणैः ॥ २ ॥

सा वाग् यया तस्य गुणान् गृणीते

     करौ च तत्कर्मकरौ मनश्च ।

 स्मरेद्‌ वसन्तं स्थिरजङ्‌गमेषु

     श्रृणोति तत्पुण्यकथाः स कर्णः ॥ ३ ॥

 शिरस्तु तस्योभयलिङ्‌गमानं

     एत्तदेव यत्पश्यति तद्धि चक्षुः ।

 अङ्‌गानि विष्णोरथ तज्जनानां

     पादोदकं यानि भजन्ति नित्यम् ॥ ४ ॥

 

 सूत उवाच -

विष्णुरातेन सम्पृष्टो भगवान् बादरायणिः ।

 वासुदेवे भगवति निमग्नहृदयोऽब्रवीत् ॥ ५ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

कृष्णस्यासीत् सखा कश्चिद् ब्राह्मणो ब्रह्मवित्तमः ।

 विरक्त इन्द्रियार्थेषु प्रशान्तात्मा जितेन्द्रियः ॥ ६ ॥

 यदृच्छयोपपन्नेन वर्तमानो गृहाश्रमी ।

 तस्य भार्या कुचैलस्य क्षुत्क्षामा च तथाविधा ॥ ७ ॥

 पतिव्रता पतिं प्राह म्लायता वदनेन सा ।

 दरिद्रं सीदमाना वै वेपमानाभिगम्य च ॥ ८ ॥

 ननु ब्रह्मन् भगवतः सखा साक्षाच्छ्रियः पतिः ।

 ब्रह्मण्यश्च शरण्यश्च भगवान् सात्वतर्षभः ॥ ९ ॥

 तमुपैहि महाभाग साधूनां च परायणम् ।

 दास्यति द्रविणं भूरि सीदते ते कुटुम्बिने ॥ १० ॥

 आस्तेऽधुना द्वारवत्यां भोजवृष्ण्यन्धकेश्वरः ।

 स्मरतः पादकमलं आत्मानमपि यच्छति ।

 किं न्वर्थकामान् भजतो नात्यभीष्टान्जगद्‌गुरुः ॥ ११ ॥

 स एवं भार्यया विप्रो बहुशः प्रार्थितो मृदु ।

 अयं हि परमो लाभ उत्तमःश्लोकदर्शनम् ॥ १२ ॥

 इति सञ्चिन्त्य मनसा गमनाय मतिं दधे ।

 अप्यस्त्युपायनं किञ्चिद् गृहे कल्याणि दीयताम् ॥ १३ ॥

 याचित्वा चतुरो मुष्टीन् विप्रान् पृथुकतण्डुलान् ।

 चैलखण्डेन तान् बद्ध्वा भर्त्रे प्रादादुपायनम् ॥ १४ ॥

 स तानादाय विप्राग्र्यः प्रययौ द्वारकां किल ।

 कृष्णसन्दर्शनं मह्यं कथं स्यादिति चिन्तयन् ॥ १५ ॥

 

राजा परीक्षित्‌ ने पूछाभगवन् ! प्रेम और मुक्तिके दाता परब्रह्म परमात्मा भगवान्‌ श्रीकृष्णकी शक्ति अनन्त है। इसलिये उनकी माधुर्य और ऐश्वर्यसे भरी लीलाएँ भी अनन्त हैं। अब हम उनकी दूसरी लीलाएँ, जिनका वर्णन आपने अबतक नहीं किया है, सुनना चाहते हैं ॥ १ ॥ ब्रह्मन् ! यह जीव विषय-सुखको खोजते-खोजते अत्यन्त दुखी हो गया है। वे बाणकी तरह इसके चित्तमें चुभते रहते हैं। ऐसी स्थितिमें ऐसा कौन-सा रसिकरसका विशेषज्ञ पुरुष होगा, जो बार-बार पवित्र- कीर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णकी मङ्गलमयी लीलाओंका श्रवण करके भी उनसे विमुख होना चाहेगा ॥ २ ॥ जो वाणी भगवान्‌ के गुणोंका गान करती है, वही सच्ची वाणी है। वे ही हाथ सच्चे हाथ हैं, जो भगवान्‌ की सेवाके लिये काम करते हैं। वही मन सच्चा मन है, जो चराचर प्राणियोंमें निवास करनेवाले भगवान्‌ का स्मरण करता है; और वे ही कान वास्तवमें कान कहनेयोग्य हैं, जो भगवान्‌ की पुण्यमयी कथाओंका श्रवण करते हैं ॥ ३ ॥ वही सिर सिर है, जो चराचर जगत् को भगवान्‌ की चल-अचल प्रतिमा समझकर नमस्कार करता है; और जो सर्वत्र भगवद्विग्रह का दर्शन करते हैं, वे ही नेत्र वास्तवमें नेत्र हैं। शरीरके जो अङ्ग भगवान्‌ और उनके भक्तोंके चरणोदक का सेवन करते हैं, वे ही अङ्ग वास्तवमें अङ्ग हैं; सच पूछिये तो उन्हींका होना सफल है ॥ ४ ॥

सूतजी कहते हैंशौनकादि ऋषियो ! जब राजा परीक्षित्‌ने इस प्रकार प्रश्र किया, तब भगवान्‌ श्रीशुकदेवजीका हृदय भगवान्‌ श्रीकृष्णमें ही तल्लीन हो गया। उन्होंने परीक्षित्‌से इस प्रकार कहा ॥ ५ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! एक ब्राह्मण भगवान्‌ श्रीकृष्णके परम मित्र थे। वे बड़े ब्रह्मज्ञानी, विषयोंसे विरक्त, शान्तचित्त और जितेन्द्रिय थे ॥ ६ ॥ वे गृहस्थ होनेपर भी किसी प्रकारका संग्रह-परिग्रह न रखकर प्रारब्धके अनुसार जो कुछ मिल जाता, उसीमें सन्तुष्ट रहते थे। उनके वस्त्र तो फटे-पुराने थे ही, उनकी पत्नीके भी वैसे ही थे। वह भी अपने पतिके समान ही भूखसे दुबली हो रही थी ॥ ७ ॥ एक दिन दरिद्रताकी प्रतिमूर्ति दु:खिनी पतिव्रता भूखके मारे काँपती हुई अपने पतिदेवके पास गयी और मुरझाये हुए मुँहसे बोली॥ ८ ॥ भगवन् ! साक्षात् लक्ष्मीपति भगवान्‌ श्रीकृष्ण आपके सखा हैं। वे भक्तवाञ्छाकल्पतरु, शरणागतवत्सल और ब्राह्मणोंके परम भक्त हैं ॥ ९ ॥ परम भाग्यवान् आर्यपुत्र ! वे साधु-संतोंके, सत्पुरुषोंके एकमात्र आश्रय हैं। आप उनके पास जाइये। जब वे जानेंगे कि आप कुटुम्बी हैं और अन्नके बिना दुखी हो रहे हैं, तो वे आपको बहुत-सा धन देंगे ॥ १० ॥ आजकल वे भोज, वृष्णि और अन्धकवंशी यादवोंके स्वामीके रूपमें द्वारकामें ही निवास कर रहे हैं। और इतने उदार हैं कि जो उनके चरणकमलोंका स्मरण करते हैं, उन प्रेमी भक्तोंको वे अपने-आप तक का दान कर डालते हैं। ऐसी स्थितिमें जगद्गुरु भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने भक्तोंको यदि धन और विषय-सुख, जो अत्यन्त वाञ्छनीय नहीं है, दे दें, तो इसमें आश्चर्यकी कौन-सी बात है ?’ ॥ ११ ॥ इस प्रकार जब उन ब्राह्मणदेवताकी पत्नीने अपने पतिदेवसे कई बार बड़ी नम्रतासे प्रार्थना की, तब उन्होंने सोचा कि धनकी तो कोई बात नहीं है; परन्तु भगवान्‌ श्रीकृष्णका दर्शन हो जायगा, यह तो जीवनका बहुत बड़ा लाभ है॥ १२ ॥ यही विचार करके उन्होंने जानेका निश्चय किया और अपनी पत्नीसे बोले— ‘कल्याणी ! घरमें कुछ भेंट देनेयोग्य वस्तु भी है क्या ? यदि हो तो दे दो॥ १३ ॥ तब उस ब्राह्मणीने पास-पड़ोसके ब्राह्मणोंके घरसे चार मुट्ठी चिउड़े माँगकर एक कपड़ेमें बाँध दिये और भगवान्‌ को भेंट देनेके लिये अपने पतिदेवको दे दिये ॥ १४ ॥ इसके बाद वे ब्राह्मणदेवता उन चिउड़ों को लेकर द्वारका के लिये चल पड़े। वे मार्गमें यह सोचते जाते थे कि मुझे भगवान्‌ श्रीकृष्णके दर्शन कैसे प्राप्त होंगे ?’ ॥ १५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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