॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अस्सीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
श्रीकृष्ण के द्वारा सुदामा जी का स्वागत
त्रीणि गुल्मान्यतीयाय
तिस्रः कक्षाश्च सद्विजः ।
विप्रोऽगम्यान्धकवृष्णीनां
गृहेष्वच्युतधर्मिणाम् ॥ १६ ॥
गृहं द्व्यष्टसहस्राणां
महिषीणां हरेर्द्विजः ।
विवेशैकतमं श्रीमद्
ब्रह्मानन्दं गतो यथा ॥ १७ ॥
तं विलोक्याच्युतो दूरात्
प्रियापर्यङ्कमास्थितः ।
सहसोत्थाय चाभ्येत्य
दोर्भ्यां पर्यग्रहीन्मुदा ॥ १८ ॥
सख्युः प्रियस्य विप्रर्षेः
अङ्गसङ्गातिनिर्वृतः ।
प्रीतो व्यमुञ्चदब्बिन्दून्
नेत्राभ्यां पुष्करेक्षणः ॥ १९ ॥
अथोपवेश्य पर्यङ्के स्वयं
सख्युः समर्हणम् ।
उपहृत्यावनिज्यास्य पादौ
पादावनेजनीः ॥ २० ॥
अग्रहीच्छिरसा राजन् भगवान्
लोकपावनः ।
व्यलिम्पद् दिव्यगन्धेन
चन्दनागुरुकुङ्कमैः ॥ २१ ॥
धूपैः सुरभिभिर्मित्रं
प्रदीपावलिभिर्मुदा ।
अर्चित्वाऽऽवेद्य ताम्बूलं
गां च स्वागतमब्रवीत् ॥ २२ ॥
कुचैलं मलिनं क्षामं द्विजं
धमनिसंततम् ।
देवी पर्यचरत् साक्षात्
चामरव्यजनेन वै ॥ २३ ॥
अन्तःपुरजनो दृष्ट्वा
कृष्णेनामलकीर्तिना ।
विस्मितोऽभूदतिप्रीत्या
अवधूतं सभाजितम् ॥ २४ ॥
किमनेन कृतं पुण्यं अवधूतेन
भिक्षुणा ।
श्रिया हीनेन लोकेऽस्मिन्
गर्हितेनाधमेन च ॥ २५ ॥
योऽसौ त्रिलोकगुरुणा
श्रीनिवासेन सम्भृतः ।
पर्यङ्कस्थां श्रियं हित्वा
परिष्वक्तोऽग्रजो यथा ॥ २६ ॥
कथयां चक्रतुर्गाथाः पूर्वा
गुरुकुले सतोः ।
आत्मनोर्ललिता राजन् करौ
गृह्य परस्परम् ॥ २७ ॥
श्रीभगवानुवाच -
अपि ब्रह्मन्गुरुकुलाद्
भवता लब्धदक्षिणात् ।
समावृत्तेन धर्मज्ञ भार्योढा
सदृशी न वा ॥ २८ ॥
प्रायो गृहेषु ते चित्तं
अकामविहितं तथा ।
नैवातिप्रीयसे विद्वन् धनेषु
विदितं हि मे ॥ २९ ॥
केचित् कुर्वन्ति कर्माणि
कामैरहतचेतसः ।
त्यजन्तः प्रकृतीर्दैवीः
यथाहं लोकसङ्ग्रहम् ॥ ३० ॥
कच्चिद् गुरुकुले वासं
ब्रह्मन् स्मरसि नौ यतः ।
द्विजो विज्ञाय विज्ञेयं
तमसः पारमश्नुते ॥ ३१ ॥
स वै सत्कर्मणां साक्षाद्
द्विजातेरिह सम्भवः ।
आद्योऽङ्ग यत्राश्रमिणां
यथाहं ज्ञानदो गुरुः ॥ ३२ ॥
नन्वर्थकोविदा ब्रह्मन्
वर्णाश्रमवतामिह ।
ये मया गुरुणा वाचा तरन्त्यञ्जो
भवार्णवम् ॥ ३३ ॥
नाहमिज्याप्रजातिभ्यां
तपसोपशमेन वा ।
तुष्येयं सर्वभूतात्मा
गुरुशुश्रूषया यथा ॥ ३४ ॥
परीक्षित् !
द्वारकामें पहुँचनेपर वे ब्राह्मणदेवता दूसरे ब्राह्मणोंके साथ सैनिकोंकी तीन
छावनियाँ और तीन ड्योढिय़ाँ पार करके भगवद्धर्मका पालन करनेवाले अन्धक और
वृष्णिवंशी यादवोंके महलोंमें, जहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन है, जा पहुँचे ॥ १६ ॥
उनके बीच भगवान् श्रीकृष्णकी सोलह हजार रानियोंके महल थे। उनमेंसे एकमें उन
ब्राह्मणदेवताने प्रवेश किया। वह महल खूब सजा- सजाया—अत्यन्त
शोभायुक्त था। उसमें प्रवेश करते समय उन्हें ऐसा मालूम हुआ, मानो
वे ब्रह्मानन्दके समुद्रमें डूब-उतरा रहे हों ! ॥ १७ ॥ उस समय भगवान् श्रीकृष्ण
अपनी प्राणप्रिया रुक्मिणीजीके पलंगपर विराजे हुए थे। ब्राह्मणदेवताको दूरसे ही
देखकर वे सहसा उठ खड़े हुए और उनके पास आकर बड़े आनन्दसे उन्हें अपने भुजपाशमें
बाँध लिया ॥ १८ ॥ परीक्षित् ! परमानन्द- स्वरूप भगवान् अपने प्यारे सखा
ब्राह्मणदेवताके अङ्ग-स्पर्शसे अत्यन्त आनन्दित हुए। उनके कमलके समान कोमल
नेत्रोंसे प्रेमके आँसू बरसने लगे ॥ १९ ॥ परीक्षित् ! कुछ समयके बाद भगवान्
श्रीकृष्णने उन्हें ले जाकर अपने पलंगपर बैठा दिया और स्वयं पूजनकी सामग्री लाकर
उनकी पूजा की। प्रिय परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण सभीको पवित्र करनेवाले हैं;
फिर भी उन्होंने अपने हाथों ब्राह्मणदेवताके पाँव पखारकर उनका
चरणोदक अपने सिरपर धारण किया और उनके शरीरमें चन्दन, अरगजा,
केसर आदि दिव्य गन्धोंका लेपन किया ॥ २०-२१ ॥ फिर उन्होंने बड़े
आनन्दसे सुगन्धित धूप और दीपावलीसे अपने मित्रकी आरती उतारी। इस प्रकार पूजा करके
पान एवं गाय देकर मधुर वचनोंसे ‘भले पधारे’ ऐसा कहकर उनका स्वागत किया ॥ २२ ॥ ब्राह्मण- देवता फटे-पुराने वस्त्र पहने
हुए थे। शरीर अत्यन्त मलिन और दुर्बल था। देहकी सारी नसें दिखायी पड़ती थीं। स्वयं
भगवती रुक्मिणीजी चँवर डुलाकर उनकी सेवा करने लगीं ॥ २३ ॥ अन्त:पुरकी स्त्रियाँ यह
देखकर अत्यन्त विस्मित हो गयीं कि पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीकृष्ण अतिशय प्रेमसे
इस मैले-कुचैले अवधूत ब्राह्मणकी पूजा कर रहे हैं ॥ २४ ॥ वे आपसमें कहने लगीं—‘इस नंग-धड़ंग, निर्धन, निन्दनीय
और निकृष्ट भिखमंगेने ऐसा कौन-सा पुण्य किया है, जिससे
त्रिलोकीमें सबसे बड़े श्रीनिवास श्रीकृष्ण स्वयं इसका आदर-सत्कार कर रहे हैं।
देखो तो सही, इन्होंने अपने पलंगपर सेवा करती हुई स्वयं
लक्ष्मीरूपिणी रुक्मिणीजीको छोडक़र इस ब्राह्मणको अपने बड़े भाई बलरामजीके समान
हृदयसे लगाया है’ ॥ २५-२६ ॥ प्रिय परीक्षित् ! भगवान्
श्रीकृष्ण और वे ब्राह्मण दोनों एक-दूसरेका हाथ पकडक़र अपने पूर्वजीवनकी उन
आनन्ददायक घटनाओंका स्मरण और वर्णन करने लगे जो गुरुकुलमें रहते समय घटित हुई थीं
॥ २७ ॥
भगवान्
श्रीकृष्णने कहा—धर्मके मर्मज्ञ ब्राह्मणदेव !
गुरुदक्षिणा देकर जब आप गुरुकुलसे लौट आये, तब आपने अपने
अनुरूप स्त्रीसे विवाह किया या नहीं ? ॥ २८ ॥ मैं जानता हूँ
कि आपका चित्त गृहस्थीमें रहनेपर भी प्राय: विषय-भोगोंमें आसक्त नहीं है। विद्वन्
! यह भी मुझे मालूम है कि धन आदिमें भी आपकी कोई प्रीति नहीं है ॥ २९ ॥ जगत्में
विरले ही लोग ऐसे होते हैं, जो भगवान्की मायासे निर्मित
विषयसम्बन्धी वासनाओंका त्याग कर देते हैं और चित्तमें विषयोंकी तनिक भी वासना न
रहनेपर भी मेरे समान केवल लोकशिक्षाके लिये कर्म करते रहते हैं ॥ ३० ॥
ब्राह्मणशिरोमणे ! क्या आपको उस समयकी बात याद है, जब हम
दोनों एक साथ गुरुकुलमें निवास करते थे। सचमुच गुरुकुलमें ही द्विजातियोंको अपने
ज्ञातव्य वस्तुका ज्ञान होता है, जिसके द्वारा वे
अज्ञानान्धकारसे पार हो जाते हैं ॥ ३१ ॥ मित्र ! इस संसारमें शरीरका कारण—जन्मदाता पिता प्रथम गुरु है। इसके बाद उपनयन-संस्कार करके सत्कर्मोंकी
शिक्षा देनेवाला दूसरा गुरु है। वह मेरे ही समान पूज्य है। तदनन्तर ज्ञानोपदेश
करके परमात्माको प्राप्त करानेवाला गुरु तो मेरा स्वरूप ही है। वर्णाश्रमियोंके ये
तीन गुरु होते हैं ॥ ३२ ॥ मेरे प्यारे मित्र ! गुरुके स्वरूपमें स्वयं मैं हूँ। इस
जगत्में वर्णाश्रमियोंमें जो लोग अपने गुरुदेवके उपदेशानुसार अनायास ही भवसागर पार
कर लेते हैं, वे अपने स्वार्थ और परमार्थके सच्चे जानकार हैं
॥ ३३ ॥ प्रिय मित्र ! मैं सबका आत्मा हूँ, सबके हृदयमें
अन्तर्यामीरूपसे विराजमान हूँ। मैं गृहस्थके धर्म पञ्चमहायज्ञ आदिसे, ब्रह्मचारीके धर्म उपनयन- वेदाध्ययन आदिसे, वानप्रस्थीके
धर्म तपस्यासे और सब ओरसे उपरत हो जाना—इस संन्यासीके धर्मसे
भी उतना सन्तुष्ट नहीं होता, जितना गुरुदेवकी सेवा-शुश्रूषा से
सन्तुष्ट होता हूँ ॥ ३४ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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