॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अस्सीवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
श्रीकृष्ण के
द्वारा सुदामा जी का स्वागत
अपि नः स्मर्यते ब्रह्मन्
वृत्तं निवसतां गुरौ ।
गुरुदारैश्चोदितानां
इन्धनानयने क्वचित् ॥ ३५ ॥
प्रविष्टानां महारण्यं
अपर्तौ सुमहद् द्विज ।
वातवर्षं अभूत्तीव्रं
निष्ठुराः स्तनयित्नवः ॥ ३६ ॥
सूर्यश्चास्तं गतस्तावत्
तमसा चावृता दिशः ।
निम्नं कूलं जलमयं न
प्राज्ञायत किञ्चन ॥ ३७ ॥
वयं भृशम्तत्र महानिलाम्बुभिः
निहन्यमाना
महुरम्बुसम्प्लवे ।
दिशोऽविदन्तोऽथ
परस्परं वने
गृहीतहस्ताः
परिबभ्रिमातुराः ॥ ३८ ॥
एतद् विदित्वा उदिते रवौ
सान्दीपनिर्गुरुः ।
अन्वेषमाणो नः शिष्यान्
आचार्योऽपश्यदातुरान् ॥ ३९ ॥
अहो हे पुत्रका यूयं
अस्मदर्थेऽतिदुःखिताः ।
आत्मा वै प्राणिनां प्रेष्ठः
तं अनादृत्य मत्पराः ॥ ४० ॥
एतदेव हि सच्छिष्यैः
कर्तव्यं गुरुनिष्कृतम् ।
यद् वै विशुद्धभावेन
सर्वार्थात्मार्पणं गुरौ ॥ ४१ ॥
तुष्टोऽहं भो द्विजश्रेष्ठाः
सत्याः सन्तु मनोरथाः ।
छन्दांस्ययातयामानि
भवन्त्विह परत्र च ॥ ४२ ॥
इत्थंविधान्यनेकानि वसतां
गुरुवेश्मसु ।
गुरोरनुग्रहेणैव पुमान्
पूर्णः प्रशान्तये ॥ ४३ ॥
श्रीब्राह्मण उवाच -
किमस्माभिरनिर्वृत्तं देवदेव
जगद्गुरो ।
भवता सत्यकामेन येषां वासो
गुरावभूत् ॥ ४४ ॥
यस्य च्छन्दोमयं ब्रह्म देह
आवपनं विभो ।
श्रेयसां तस्य गुरुषु
वासोऽत्यन्तविडम्बनम् ॥ ४५ ॥
ब्रह्मन् !
जिस समय हमलोग गुरुकुलमें निवास कर रहे थे;
उस समयकी वह बात आपको याद है क्या, जब हम
दोनोंको एक दिन हमारी गुरुपत्नी ने र्ईंधन लानेके लिये जंगलमें भेजा था ॥ ३५ ॥ उस
समय हमलोग एक घोर जंगलमें गये हुए थे और बिना ऋतुके ही बड़ा भयङ्कर आँधी-पानी आ
गया था। आकाशमें बिजली कडक़ने लगी थी ॥ ३६ ॥ तबतक सूर्यास्त हो गया; चारों ओर अँधेरा- ही-अँधेरा फैल गया। धरतीपर इस प्रकार पानी-ही-पानी हो
गया कि कहाँ गड्ढा है, कहाँ किनारा, इसका
पता ही न चलता था ॥ ३७ ॥ वह वर्षा क्या थी, एक छोटा-मोटा
प्रलय ही था। आँधीके झटकों और वर्षाकी बौछारोंसे हमलोगोंको बड़ी पीड़ा हुई,
दिशाका ज्ञान न रहा। हमलोग अत्यन्त आतुर हो गये और एक-दूसरेका हाथ
पकडक़र जंगलमें इधर-उधर भटकते रहे ॥ ३८ ॥ जब हमारे गुरुदेव सान्दीपनि मुनिको इस
बातका पता चला, तब वे सूर्योदय होनेपर अपने शिष्य हमलोगों को
ढूँढ़ते हुए जंगलमें पहुँचे और उन्होंने देखा कि हम अत्यन्त आतुर हो रहे हैं ॥ ३९
॥ वे कहने लगे—‘आश्चर्य है, आश्चर्य है
! पुत्रो ! तुमलोगोंने हमारे लिये अत्यन्त कष्ट उठाया। सभी प्राणियोंको अपना शरीर
सबसे अधिक प्रिय होता है; परन्तु तुम दोनों उसकी भी परवा न
करके हमारी सेवामें ही संलग्न रहे ॥ ४० ॥ गुरुके ऋणसे मुक्त होनेके लिये
सत्-शिष्योंका इतना ही कर्तव्य है कि वे विशुद्ध भावसे अपना सब कुछ और शरीर भी
गुरुदेवकी सेवामें समर्पित कर दें ॥ ४१ ॥ द्विजशिरोमणियो ! मैं तुमलोगोंसे अत्यन्त
प्रसन्न हूँ तुम्हारे सारे मनोरथ, सारी अभिलाषाएँ पूर्ण हों
और तुमलोगोंने हमसे जो वेदाध्ययन किया है, वह तुम्हें सर्वदा
कण्ठस्थ रहे तथा इस लोक एवं परलोकमें कहीं भी निष्फल न हो’ ॥
४२ ॥ प्रिय मित्र ! जिस समय हमलोग गुरुकुलमें निवास कर रहे थे, हमारे जीवनमें ऐसी-ऐसी अनेकों घटनाएँ घटित हुई थीं। इसमें सन्देह नहीं कि
गुरुदेवकी कृपासे ही मनुष्य शान्तिका अधिकारी होता और पूर्णताको प्राप्त करता है ॥
४३ ॥
ब्राह्मणदेवताने
कहा—देवताओंके आराध्यदेव जगद्गुरु
श्रीकृष्ण ! भला अब हमें क्या करना बाकी है ? क्योंकि आपके
साथ, जो सत्यसङ्कल्प परमात्मा हैं, हमें
गुरुकुलमें रहनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था ॥ ४४ ॥ प्रभो ! छन्दोमय वेद, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चतुर्विध पुरुषार्थके मूल स्रोत हैं; और वे हैं आपके शरीर। वही आप वेदाध्ययनके लिये गुरुकुलमें निवास करें,
यह मनुष्य- लीलाका अभिनय नहीं तो और क्या है ? ॥ ४५ ॥
इति श्रीमद्भागवते
महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे श्रीदामचरिते
अशीतितमोऽध्यायः ॥ ८० ॥
हरिः ॐ तत्सत्
श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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