॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
सुदामा जी को
ऐश्वर्यकी प्राप्ति
श्रीशुक उवाच -
स इत्थं द्विजमुख्येन सह
सङ्कथयन् हरिः ।
सर्वभूतमनोऽभिज्ञः स्मयमान
उवाच तम् ॥ १ ॥
ब्रह्मण्यो ब्राह्मणं कृष्णो
भगवान् प्रहसन् प्रियम् ।
प्रेम्णा निरीक्षणेनैव
प्रेक्षन् खलु सतां गतिः ॥ २ ॥
श्रीभगवानुवाच -
किमुपायनमानीतं ब्रह्मन्मे
भवता गृहात् ।
अण्वप्युपाहृतं भक्तैः
प्रेम्णा भुर्येव मे भवेत् ।
भूर्यप्यभक्तोपहृतं न मे
तोषाय कल्पते ॥ ३ ॥
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे
भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतं अश्नामि
प्रयतात्मनः ॥ ४ ॥
इत्युक्तोऽपि द्विजस्तस्मै
व्रीडितः पतये श्रियः ।
पृथुकप्रसृतिं राजन् न
प्रायच्छदवाङ्मुखः ॥ ५ ॥
सर्वभूतात्मदृक् साक्षात्
तस्यागमनकारणम् ।
विज्ञायाचिन्तयन्नायं
श्रीकामो माभजत्पुरा ॥ ६ ॥
पत्न्याः पतिव्रतायास्तु
सखा प्रियचिकीर्षया ।
प्राप्तो मामस्य दास्यामि
सम्पदोऽमर्त्यदुर्लभाः ॥ ७ ॥
इत्थं विचिन्त्य वसनात्
चीरबद्धान् द्विजन्मनः ।
स्वयं जहार किमिदं इति
पृथुकतण्डुलान् ॥ ८ ॥
नन्वेतदुपनीतं मे परमप्रीणनं
सखे ।
तर्पयन्त्यङ्ग मां विश्वं
एते पृथुकतण्डुलाः ॥ ९ ॥
इति मुष्टिं सकृज्जग्ध्वा
द्वितीयां जग्धुमाददे ।
तावच्छ्रीर्जगृहे हस्तं
तत्परा परमेष्ठिनः ॥ १० ॥
एतावतालं विश्वात्मन्
सर्वसम्पत्समृद्धये ।
अस्मिन्लोके अथवामुष्मिन्
पुंसस्त्वत्तोषकारणम् ॥ ११ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—प्रिय परीक्षित् ! भगवान्
श्रीकृष्ण सबके मनकी बात जानते हैं। वे ब्राह्मणोंके परम भक्त, उनके क्लेशोंके नाशक तथा संतोंके एकमात्र आश्रय हैं। वे पूर्वोक्त
प्रकारसे उन ब्राह्मणदेवताके साथ बहुत देरतक बातचीत करते रहे। अब वे अपने प्यारे
सखा उन ब्राह्मणसे तनिक मुसकराकर विनोद करते हुए बोले। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण
उन ब्राह्मणदेवताकी ओर प्रेमभरी दृष्टिसे देख रहे थे ॥ १-२ ॥
भगवान्
श्रीकृष्णने कहा—‘ब्रह्मन् ! आप अपने घरसे
मेरे लिये क्या उपहार लाये हैं ? मेरे प्रेमी भक्त जब
प्रेमसे थोड़ी-सी वस्तु भी मुझे अर्पण करते हैं, तो वह मेरे
लिये बहुत हो जाती है। परन्तु मेरे अभक्त यदि बहुत-सी सामग्री भी मुझे भेंट करते
हैं, तो उससे मैं सन्तुष्ट नहीं होता ॥ ३ ॥ जो पुरुष
प्रेम-भक्तिसे फल-फूल अथवा पत्ता-पानीमेंसे कोई भी वस्तु मुझे समर्पित करता है,
तो मैं उस शुद्धचित्त भक्तका वह प्रेमोपहार केवल स्वीकार ही नहीं
करता, बल्कि तुरंत भोग लगा लेता हूँ’ ॥
४ ॥ परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर भी उन ब्राह्मण देवताने लज्जावश
उन लक्ष्मीपतिको वे चार मुट्ठी चिउड़े नहीं दिये। उन्होंने संकोचसे अपना मुँह नीचे
कर लिया था। परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण समस्त प्राणियोंके हृदयका एक-एक
सङ्कल्प और उनका अभाव भी जानते हैं। उन्होंने ब्राह्मणके आनेका कारण, उनके हृदयकी बात जान ली। अब वे विचार करने लगे कि ‘एक
तो यह मेरा प्यारा सखा है, दूसरे इसने पहले कभी लक्ष्मीकी
कामनासे मेरा भजन नहीं किया है। इस समय यह अपनी पतिव्रता पत्नीको प्रसन्न करनेके
लिये उसीके आग्रहसे यहाँ आया है। अब मैं इसे ऐसी सम्पत्ति दूँगा, जो देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है’ ॥ ५-७ ॥
भगवान्
श्रीकृष्णने ऐसा विचार करके उनके वस्त्रमेंसे चिथड़ेकी एक पोटलीमें बँधा हुआ
चिउड़ा ‘यह क्या है’—ऐसा कहकर स्वयं ही छीन लिया ॥ ८ ॥ और बड़े आदरसे कहने लगे—‘प्यारे मित्र ! यह तो तुम मेरे लिये अत्यन्त प्रिय भेंट ले आये हो। ये
चिउड़े न केवल मुझे, बल्कि सारे संसारको तृप्त करनेके लिये
पर्याप्त हैं’ ॥ ९ ॥ ऐसा कहकर वे उसमेंसे एक मुट्ठी चिउड़ा
खा गये और दूसरी मुट्ठी ज्यों ही भरी, त्यों ही रुक्मिणीके
रूपमें स्वयं भगवती लक्ष्मीजीने भगवान् श्रीकृष्णका हाथ पकड़ लिया ! क्योंकि वे
तो एकमात्र भगवान् के परायण हैं, उन्हें छोडक़र और कहीं जा
नहीं सकतीं ॥ १० ॥ रुक्मिणीजीने कहा—‘विश्वात्मन् ! बस,
बस। मनुष्यको इस लोकमें तथा मरनेके बाद परलोकमें भी समस्त
सम्पत्तियोंकी समृद्धि प्राप्त करनेके लिये यह एक मुट्ठी चिउड़ा ही बहुत है;
क्योंकि आपके लिये इतना ही प्रसन्नताका हेतु बन जाता है’ ॥ ११ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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