सोमवार, 5 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

सुदामा जी को ऐश्वर्यकी प्राप्ति

 

ब्राह्मणस्तां तु रजनीं उषित्वाच्युतमन्दिरे ।

भुक्त्वा पीत्वा सुखं मेने आत्मानं स्वर्गतं यथा ॥ १२ ॥

श्वोभूते विश्वभावेन स्वसुखेनाभिवन्दितः ।

जगाम स्वालयं तात पथ्यनुव्रज्य नन्दितः ॥ १३ ॥

स चालब्ध्वा धनं कृष्णान् न तु याचितवान् स्वयम् ।

स्वगृहान् व्रीडितोऽगच्छन् महद्दर्शननिर्वृतः ॥ १४ ॥

अहो ब्रह्मण्यदेवस्य दृष्टा ब्रह्मण्यता मया ।

यद् दरिद्रतमो लक्ष्मीं आश्लिष्टो बिभ्रतोरसि ॥ १५ ॥

क्वाहं दरिद्रः पापीयान् क्व कृष्णः श्रीनिकेतनः ।

ब्रह्मबन्धुरिति स्माहं बाहुभ्यां परिरम्भितः ॥ १६ ॥

निवासितः प्रियाजुष्टे पर्यङ्के भ्रातरो यथा ।

महिष्या वीजितः श्रान्तो बालव्यजनहस्तया ॥ १७ ॥

शुश्रूषया परमया पादसंवाहनादिभिः ।

पूजितो देवदेवेन विप्रदेवेन देववत् ॥ १८ ॥

स्वर्गापवर्गयोः पुंसां रसायां भुवि सम्पदाम् ।

सर्वासामपि सिद्धीनां मूलं तच्चरणार्चनम् ॥ १९ ॥

अधनोऽयं धनं प्राप्य माद्यात् उच्चैः न मां स्मरेत् ।

इति कारुणिको नूनं धनं मेऽभूरि नाददात् ॥ २० ॥

इति तच्चिन्तयन् अन्तः प्राप्तो नियगृहान्तिकम् ।

सूर्यानलेन्दुसङ्काशैः विमानैः सर्वतो वृतम् ॥ २१ ॥

विचित्रोपवनोद्यानैः कूजद्‍द्विजकुलाकुलैः ।

प्रोत्फुल्लकमुदाम्भोज कह्लारोत्पलवारिभिः ॥ २२ ॥

जुष्टं स्वलङ्कृतैः पुम्भिः स्त्रीभिश्च हरिणाक्षिभिः ।

किमिदं कस्य वा स्थानं कथं तदिदमित्यभूत् ॥ २३ ॥

एवं मीमांसमानं तं नरा नार्योऽमरप्रभाः ।

प्रत्यगृह्णन् महाभागं गीतवाद्येन भूयसा ॥ २४ ॥

पतिमागतमाकर्ण्य पत्‍न्युद्धर्षातिसम्भ्रमा ।

निश्चक्राम गृहात्तूर्णं रूपिणी श्रीरिवालयात् ॥ २५ ॥

पतिव्रता पतिं दृष्ट्वा प्रेमोत्कण्ठाश्रुलोचना ।

मीलिताक्ष्यनमद् बुद्ध्या मनसा परिषस्वजे ॥ २६ ॥

 

परीक्षित्‌ ! ब्राह्मणदेवता उस रातको भगवान्‌ श्रीकृष्णके महलमें ही रहे। उन्होंने बड़े आरामसे वहाँ खाया-पिया और ऐसा अनुभव किया, मानो मैं वैकुण्ठमें ही पहुँच गया हूँ ॥ १२ ॥ परीक्षित्‌ ! श्रीकृष्णसे ब्राह्मणको प्रत्यक्षरूपमें कुछ भी न मिला। फिर भी उन्होंने उनसे कुछ माँगा नहीं ! वे अपने चित्तकी करतूत पर कुछ लज्जित-से होकर भगवान्‌ श्रीकृष्णके दर्शनजनित आनन्दमें डूबते- उतराते अपने घरकी ओर चल पड़े ॥ १३-१४ ॥ वे मन-ही-मन सोचने लगे—‘अहो, कितने आनन्द और आश्चर्यकी बात है ! ब्राह्मणोंको अपना इष्टदेव माननेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णकी ब्राह्मणभक्ति आज मैंने अपनी आँखों देख ली। धन्य है ! जिनके वक्ष:स्थलपर स्वयं लक्ष्मीजी सदा विराजमान रहती हैं, उन्होंने मुझ अत्यन्त दरिद्रको अपने हृदयसे लगा लिया ॥ १५ ॥ कहाँ तो मैं अत्यन्त पापी और दरिद्र, और कहाँ लक्ष्मीके एकमात्र आश्रय भगवान्‌ श्रीकृष्ण ! परन्तु उन्होंने यह ब्राह्मण है’—ऐसा समझकर मुझे अपनी भुजाओंमें भरकर हृदयसे लगा लिया ॥ १६ ॥ इतना ही नहीं, उन्होंने मुझे उस पलंगपर सुलाया, जिसपर उनकी प्राणप्रिया रुक्मिणीजी शयन करती हैं। मानो मैं उनका सगा भाई हूँ ! कहाँतक कहूँ ? मैं थका हुआ था, इसलिये स्वयं उनकी पटरानी रुक्मिणीजीने अपने हाथों चँवर डुलाकर मेरी सेवा की ॥ १७ ॥ ओह, देवताओंके आराध्यदेव होकर भी ब्राह्मणोंको अपना इष्टदेव माननेवाले प्रभुने पाँव दबाकर, अपने हाथों खिला-पिलाकर मेरी अत्यन्त सेवा-शुश्रूषा की और देवताके समान मेरी पूजा की ॥ १८ ॥ स्वर्ग, मोक्ष, पृथ्वी और रसातलकी सम्पत्ति तथा समस्त योगसिद्धियोंकी प्राप्तिका मूल उनके चरणोंकी पूजा ही है ॥ १९ ॥ फिर भी परमदयालु श्रीकृष्णने यह सोचकर मुझे थोड़ा-सा भी धन नहीं दिया कि कहीं यह दरिद्र धन पाकर बिलकुल मतवाला न हो जाय और मुझे न भूल बैठे॥ २० ॥

इस प्रकार मन-ही-मन विचार करते-करते ब्राह्मणदेवता अपने घरके पास पहुँच गये। वे वहाँ क्या देखते हैं कि सब-का-सब स्थान सूर्य, अग्रि और चन्द्रमाके समान तेजस्वी रत्ननिर्मित महलोंसे घिरा हुआ है। ठौर-ठौर चित्र-विचित्र उपवन और उद्यान बने हुए हैं तथा उनमें झुंड-के-झुंड रंग-बिरंगे पक्षी कलरव कर रहे हैं। सरोवरोंमें कुमुदिनी तथा श्वेत, नील और सौगन्धिकभाँति- भाँतिके कमल खिले हुए हैं; सुन्दर-सुन्दर स्त्री-पुरुष बन-ठनकर इधर-उधर विचर रहे हैं। उस स्थानको देखकर ब्राह्मणदेवता सोचने लगे—‘मैं यह क्या देख रहा हूँ ? यह किसका स्थान है ? यदि यह वही स्थान है, जहाँ मैं रहता था, तो यह ऐसा कैसे हो गया॥ २१२३ ॥ इस प्रकार वे सोच ही रहे थे कि देवताओंके समान सुन्दर-सुन्दर स्त्री-पुरुष गाजे-बाजेके साथ मङ्गलगीत गाते हुए उस महाभाग्यवान् ब्राह्मणकी अगवानी करनेके लिये आये ॥ २४ ॥ पतिदेवका शुभागमन सुनकर ब्राह्मणीको अपार आनन्द हुआ और वह हड़बड़ाकर जल्दी-जल्दी घरसे निकल आयी, वह ऐसी मालूम होती थी मानो मूर्तिमती लक्ष्मीजी ही कमलवन से पधारी हों ॥ २५ ॥ पतिदेवको देखते ही पतिव्रता पत्नीके नेत्रोंमें प्रेम और उत्कण्ठाके आवेग से आँसू छलक आये। उसने अपने नेत्र बंद कर लिये। ब्राह्मणीने बड़े प्रेमभावसे उन्हें नमस्कार किया और मन-ही-मन आलिङ्गन भी ॥ २६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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