॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
सुदामा जी को ऐश्वर्यकी प्राप्ति
पत्नीं वीक्ष्य विस्फुरन्तीं
देवीं वैमानिकीमिव ।
दासीनां निष्ककण्ठीनां मध्ये
भान्तीं स विस्मितः ॥ २७ ॥
प्रीतः स्वयं तया युक्तः
प्रविष्टो निजमन्दिरम् ।
मणिस्तम्भशतोपेतं
महेन्द्रभवनं यथा ॥ २८ ॥
पयःफेननिभाः शय्या दान्ता
रुक्मपरिच्छदाः ।
पर्यङ्का हेमदण्डानि
चामरव्यजनानि च ॥ २९ ॥
आसनानि च हैमानि
मृदूपस्तरणानि च ।
मुक्तादामविलम्बीनि वितानानि
द्युमन्ति च ॥ ३० ॥
स्वच्छस्फटिककुड्येषु
महामारकतेषु च ।
रत्नदीपा भ्राजमानान् ललना
रत्नसंयुताः ॥ ३१ ॥
विलोक्य ब्राह्मणस्तत्र
समृद्धीः सर्वसम्पदाम् ।
तर्कयामास निर्व्यग्रः
स्वसमृद्धिमहैतुकीम् ॥ ३२ ॥
नूनं बतैतन्मम दुर्भगस्य
शश्वद्
दरिद्रस्य समृद्धिहेतुः ।
महाविभूतेरवलोकतोऽन्यो
नैवोपपद्येत
यदूत्तमस्य ॥ ३३ ॥
नन्वब्रुवाणो दिशते
समक्षं
याचिष्णवे
भूर्यपि भूरिभोजः ।
पर्जन्यवत्तत्
स्वयमीक्षमाणो
दाशार्हकाणामृषभः सखा मे ॥ ३४ ॥
किञ्चित्करोत्युर्वपि यत् स्वदत्तं
सुहृत्कृतं
फल्ग्वपि भूरिकारी ।
मयोपणीतं
पृथुकैकमुष्टिं
प्रत्यग्रहीत्
प्रीतियुतो महात्मा ॥ ३५ ॥
तस्यैव मे
सौहृदसख्यमैत्री
दास्यं
पुनर्जन्मनि जन्मनि स्यात् ।
महानुभावेन
गुणालयेन
विषज्जतः
तत्पुरुषप्रसङ्गः ॥ ३६ ॥
भक्ताय चित्रा भगवान् हि सम्पदो
राज्यं
विभूतीर्न समर्थयत्यजः ।
अदीर्घबोधाय
विचक्षणः स्वयं
पश्यन् निपातं
धनिनां मदोद्भवम् ॥ ३७ ॥
इत्थं व्यवसितो बुद्ध्या
भक्तोऽतीव जनार्दने ।
विषयान्जायया त्यक्ष्यन्
बुभुजे नातिलम्पटः ॥ ३८ ॥
तस्य वै देवदेवस्य
हरेर्यज्ञपतेः प्रभोः ।
ब्राह्मणाः प्रभवो दैवं न
तेभ्यो विद्यते परम् ॥ ३९ ॥
एवं स विप्रो भगवत्सुहृत्तदा
दृष्ट्वा
स्वभृत्यैरजितं पराजितम् ।
तद्ध्यानवेगोद्ग्रथितात्मबन्धनः
तद्धाम
लेभेऽचिरतः सतां गतिम् ॥ ४० ॥
एतद्
ब्रह्मण्यदेवस्य श्रुत्वा ब्रह्मण्यतां नरः ।
लब्धभावो भगवति
कर्मबन्धाद् विमुच्यते ॥ ४१ ॥
प्रिय
परीक्षित् ! ब्राह्मणपत्नी सोने का हार पहनी हुई दासियों के बीच में विमानस्थित
देवाङ्गना के समान अत्यन्त शोभायमान एवं देदीप्यमान हो रही थी। उसे इस रूपमें
देखकर वे विस्मित हो गये ॥ २७ ॥ उन्होंने अपनी पत्नीके साथ बड़े प्रेमसे अपने
महलमें प्रवेश किया। उनका महल क्या था,
मानो देवराज इन्द्र का निवासस्थान। इसमें मणियोंके सैकड़ों खंभे
खड़े थे ॥ २८ ॥ हाथीके दाँत के बने हुए और सोने के पात से मँढ़े हुए पलंगों पर दूध
के फेन की तरह श्वेत और कोमल बिछौने बिछ रहे थे। बहुत-से चँवर वहाँ रखे हुए थे,
जिनमें सोने की डंडियाँ लगी हुई थीं ॥ २९ ॥ सोनेके सिंहासन शोभायमान
हो रहे थे, जिनपर बड़ी कोमल-कोमल गद्दियाँ लगी हुई थीं ! ऐसे
चँदोवे भी झिलमिला रहे थे जिनमें मोतियोंकी लडिय़ाँ लटक रही थीं ॥ ३० ॥ स्फटिकमणिकी
स्वच्छ भीतोंपर पन्नेकी पच्चीकारी की हुई थी। रत्ननिर्मित स्त्रीमूर्तियोंके
हाथोंमें रत्नोंके दीपक जगमगा रहे थे ॥ ३१ ॥ इस प्रकार समस्त सम्पत्तियोंकी
समृद्धि देखकर और उसका कोई प्रत्यक्ष कारण न पाकर, बड़ी
गम्भीरतासे ब्राह्मणदेवता विचार करने लगे कि मेरे पास इतनी सम्पत्ति कहाँसे आ गयी
॥ ३२ ॥ वे मन-ही-मन कहने लगे—‘मैं जन्मसे ही भाग्यहीन और
दरिद्र हूँ। फिर मेरी इस सम्पत्ति-समृद्धिका कारण क्या है ? अवश्य
ही परमैश्वर्यशाली यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णके कृपाकटाक्षके अतिरिक्त और
कोई कारण नहीं हो सकता ॥ ३३ ॥ यह सब कुछ उनकी करुणाकी ही देन है। स्वयं भगवान्
श्रीकृष्ण पूर्णकाम और लक्ष्मीपति होनेके कारण अनन्त भोगसामग्रियों से युक्त हैं।
इसलिये वे याचक भक्त को उसके मनका भाव जानकर बहुत कुछ दे देते हैं, परन्तु उसे समझते हैं बहुत थोड़ा; इसलिये सामने कुछ
कहते नहीं। मेरे यदुवंशशिरोमणि सखा श्यामसुन्दर सचमुच उस मेघसे भी बढक़र उदार हैं,
जो समुद्रको भर देनेकी शक्ति रखनेपर भी किसान के सामने न बरसकर उसके
सो जानेपर रातमें बरसता है और बहुत बरसनेपर भी थोड़ा ही समझता है ॥ ३४ ॥ मेरे
प्यारे सखा श्रीकृष्ण देते हैं बहुत, पर उसे मानते हैं बहुत
थोड़ा ! और उनका प्रेमी भक्त यदि उनके लिये कुछ भी कर दे, तो
वे उसको बहुत मान लेते हैं। देखो तो सही ! मैंने उन्हें केवल एक मुट्ठी चिउड़ा
भेंट किया था, पर उदार-शिरोमणि श्रीकृष्णने उसे कितने
प्रेमसे स्वीकार किया ॥ ३५ ॥ मुझे जन्म- जन्म उन्हींका प्रेम, उन्हींकी हितैषिता, उन्हींकी मित्रता और उन्हींकी
सेवा प्राप्त हो। मुझे सम्पत्तिकी आवश्यकता नहीं, सदा-सर्वदा
उन्हीं गुणोंके एकमात्र निवासस्थान महानुभाव भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें मेरा
अनुराग बढ़ता जाय और उन्हींके प्रेमी भक्तोंका सत्सङ्ग प्राप्त हो ॥ ३६ ॥ अजन्मा
भगवान् श्रीकृष्ण सम्पत्ति आदिके दोष जानते हैं। वे देखते हैं कि बड़े-बड़े
धनियोंका धन और ऐश्वर्यके मदसे पतन हो जाता है। इसलिये वे अपने अदूरदर्शी भक्तको
उसके माँगते रहनेपर भी तरह-तरहकी सम्पत्ति, राज्य और ऐश्वर्य
आदि नहीं देते। यह उनकी बड़ी कृपा है’ ॥ ३७ ॥ परीक्षित् !
अपनी बुद्धिसे इस प्रकार निश्चय करके वे ब्राह्मणदेवता त्यागपूर्वक अनासक्तभावसे
अपनी पत्नीके साथ भगवत्प्रसादस्वरूप विषयोंको ग्रहण करने लगे और दिनोंदिन उनकी
प्रेम-भक्ति बढऩे लगी ॥ ३८ ॥
प्रिय
परीक्षित् ! देवताओंके भी आराध्यदेव भक्त-भयहारी यज्ञपति सर्वशक्तिमान् भगवान्
स्वयं ब्राह्मणों को अपना प्रभु, अपना इष्टदेव मानते हैं। इसलिये ब्राह्मणोंसे बढक़र और कोई भी प्राणी जगत् में
नहीं है ॥ ३९ ॥ इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णके प्यारे सखा उस ब्राह्मणने देखा कि ‘यद्यपि भगवान् अजित हैं, किसीके अधीन नहीं हैं;
फिर भी वे अपने सेवकोंके अधीन हो जाते हैं, उनसे
पराजित हो जाते हैं;’ अब वे उन्हींके ध्यानमें तन्मय हो गये।
ध्यानके आवेगसे उनकी अविद्याकी गाँठ कट गयी और उन्होंने थोड़े ही समयमें भगवान् का
धाम, जो कि संतोंका एकमात्र आश्रय है, प्राप्त
किया ॥ ४० ॥ परीक्षित् ! ब्राह्मणोंको अपना इष्टदेव माननेवाले भगवान्
श्रीकृष्णकी इस ब्राह्मणभक्तिको जो सुनता है, उसे भगवान् के
चरणोंमें प्रेमभाव प्राप्त हो जाता है और वह कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है ॥ ४१ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे पृथुकोपाख्यानं
नाम एकशीतितमोऽध्यायः ॥ ८१ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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