॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बयासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
भगवान्
श्रीकृष्ण-बलराम से गोप-गोपियों की भेंट
श्रीशुक उवाच -
अथैकदा द्वारवत्यां वसतो रामकृष्णयोः ।
सूर्योपरागः
सुमहानासीत्कल्पक्षये यथा ॥ १ ॥
तं ज्ञात्वा मनुजा
राजन्पुरस्तादेव सर्वतः ।
समन्तपञ्चकं
क्षेत्रं ययुः श्रेयोविधित्सया ॥ २ ॥
निःक्षत्रियां महीं
कुर्वन्रामः शस्त्रभृतां वरः ।
नृपाणां रुधिरौघेण
यत्र चक्रे महाह्रदान् ॥ ३ ॥
ईजे च भगवान्रामो
यत्रास्पृष्टोऽपि कर्मणा ।
लोकं
सङ्ग्राहयन्नीशो यथान्योऽघापनुत्तये ॥ ४ ॥
महत्यां
तीर्थयात्रायां तत्रागन्भारतीः प्रजाः ।
वृष्णयश्च तथाक्रूर
वसुदेवाहुकादयः ॥ ५ ॥
ययुर्भारत
तत्क्षेत्रं स्वमघं क्षपयिष्णवः ।
गदप्रद्युम्नसाम्बाद्याः सुचन्द्रशुकसारणैः ॥ ६
॥
आस्तेऽनिरुद्धो
रक्षायां कृतवर्मा च यूथपः ।
ते
रथैर्देवधिष्ण्याभैः हयैश्च तरलप्लवैः ॥ ७ ॥
गजैर्नदद्भिरभ्राभैः
नृभिर्विद्याधरद्युभिः ।
व्यरोचन्त महातेजाः
पथि काञ्चनमालिनः ॥ ८ ॥
दिव्यस्रग्वस्त्रसन्नाहाः
कलत्रैः खेचरा इव ।
तत्र स्नात्वा
महाभागा उपोष्य सुसमाहिताः ॥ ९ ॥
ब्राह्मणेभ्यो
ददुर्धेनूः वासःस्रग्रुक्ममालिनीः ।
रामह्रदेषु विधिवत्
पुनराप्लुत्य वृष्णयः ॥ १० ॥
ददुः स्वन्नं
द्विजाग्र्येभ्यः कृष्णे नो भक्तिरस्त्विति ।
स्वयं च तदनुज्ञाता
वृष्णयः कृष्णदेवताः ॥ ११ ॥
भुक्त्वोपविविशुः
कामं स्निग्धच्छायाङ्घ्रिपाङ्घ्रिषु ।
तत्रागतांस्ते
ददृशुः सुहृत्संबन्धिनो नृपान् ॥ १२ ॥
मत्स्योशीनरकौशल्य
विदर्भकुरुसृञ्जयान् ।
काम्बोजकैकयान्
मद्रान् कुन्तीनानर्तकेरलान् ॥ १३ ॥
अन्यांश्चैवात्मपक्षीयान् परांश्च शतशो नृप ।
नन्दादीन् सुहृदो
गोपान् गोपीश्चोत्कण्ठिताश्चिरम् ॥ १४ ॥
अन्योन्यसन्दर्शनहर्षरंहसा
प्रोत्फुल्लहृद्वक्त्रसरोरुहश्रियः ।
आश्लिष्य गाढं
नयनैः स्रवज्जला
हृष्यत्त्वचो
रुद्धगिरो ययुर्मुदम् ॥ १५ ॥
स्त्रियश्च
संवीक्ष्य मिथोऽतिसौहृद
स्मितामलापाङ्गदृशोऽभिरेभिरे ।
स्तनैः स्तनान्
कुङ्कुमपङ्करूषितान्
निहत्य दोर्भिः
प्रणयाश्रुलोचनाः ॥ १६ ॥
ततोऽभिवाद्य ते वृद्धान् यविष्ठैरभिवादिताः ।
स्वागतं कुशलं
पृष्ट्वा चक्रुः कृष्णकथा मिथः ॥ १७ ॥
पृथा भ्रातॄन्
स्वसॄर्वीक्ष्य तत्पुत्रान् पितरावपि ।
भ्रातृपत्नीर्मुकुन्दं
च जहौ सङ्कथया शुचः ॥ १८ ॥
कुन्त्युवाच -
आर्य भ्रातरहं मन्ये आत्मानमकृताशिषम् ।
यद्वा आपत्सु
मद्वार्तां नानुस्मरथ सत्तमाः ॥ १९ ॥
सुहृदो ज्ञातयः
पुत्रा भ्रातरः पितरावपि ।
नानुस्मरन्ति
स्वजनं यस्य दैवमदक्षिणम् ॥ २० ॥
श्रीवसुदेव उवाच -
अम्ब मास्मानसूयेथा दैवक्रीडनकान् नरान् ।
ईशस्य हि वशे लोकः
कुरुते कार्यतेऽथ वा ॥ २१ ॥
कंसप्रतापिताः
सर्वे वयं याता दिशं दिशम् ।
एतर्ह्येव पुनः
स्थानं दैवेनासादिताः स्वसः ॥ २२ ॥
श्रीशुक उवाच -
वसुदेवोग्रसेनाद्यैः यदुभिस्तेऽर्चिता नृपाः ।
आसन् अच्युतसन्दर्श
परमानन्दनिर्वृताः ॥ २३ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! इसी प्रकार
भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी द्वारकामें निवास कर रहे थे। एक बार सर्वग्रास
सूर्यग्रहण लगा, जैसा कि प्रलयके समय लगा करता है ॥ १ ॥
परीक्षित् ! मनुष्योंको ज्योतिषियोंके द्वारा उस ग्रहणका पता पहलेसे ही चल गया था,
इसलिये सब लोग अपने-अपने कल्याणके उद्देश्यसे पुण्य आदि उपार्जन
करनेके लिये समन्तपञ्चक-तीर्थ कुरुक्षेत्रमें आये ॥ २ ॥ समन्तपञ्चक क्षेत्र वह है,
जहाँ शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ परशुरामजीने सारी पृथ्वीको
क्षत्रियहीन करके राजाओंकी रुधिरधारासे पाँच बड़े-बड़े कुण्ड बना दिये थे ॥ ३ ॥
जैसे कोई साधारण मनुष्य अपने पापकी निवृत्तिके लिये प्रायश्चित्त करता है, वैसे ही सर्वशक्तिमान् भगवान् परशुरामने अपने साथ कर्मका कुछ सम्बन्ध न
होनेपर भी लोकमर्यादाकी रक्षाके लिये वहींपर यज्ञ किया था ॥ ४ ॥
परीक्षित् !
इस महान् तीर्थयात्राके अवसरपर भारतवर्षके सभी प्रान्तोंकी जनता कुरुक्षेत्र आयी
थी। उनमें अक्रूर, वसुदेव, उग्रसेन आदि बड़े-बूढ़े तथा गद, प्रद्युम्र, साम्ब आदि अन्य यदुवंशी भी अपने-अपने पापोंका नाश करनेके लिये कुरुक्षेत्र
आये थे। प्रद्युम्रनन्दन अनिरुद्ध और यदुवंशी सेनापति कृतवर्मा—ये दोनों सुचन्द्र, शुक, सारण
आदिके साथ नगरकी रक्षाके लिये द्वारकामें रह गये थे। यदुवंशी एक तो स्वभावसे ही
परम तेजस्वी थे; दूसरे गलेमें सोनेकी माला, दिव्य पुष्पोंके हार, बहुमूल्य वस्त्र और कवचोंसे
सुसज्जित होनेके कारण उनकी शोभा और भी बढ़ गयी थी। वे तीर्थयात्राके पथमें
देवताओंके विमानके समान रथों, समुद्रकी तरङ्गके समान
चलनेवाले घोड़ों, बादलोंके समान विशालकाय एवं गर्जना करते
हुए हाथियों तथा विद्याधरोंके समान मनुष्योंके द्वारा ढोयी जानेवाली पालकियोंपर
अपनी पत्नियोंके साथ इस प्रकार शोभायमान हो रहे थे, मानो
स्वर्गके देवता ही यात्रा कर रहे हों। महाभाग्यवान् यदुवंशियोंने कुरुक्षेत्रमें
पहुँचकर एकाग्रचित्तसे संयमपूर्वक स्नान किया और ग्रहणके उपलक्ष्यमें निश्चित
कालतक उपवास किया ॥ ५—९ ॥ उन्होंने ब्राह्मणोंको गोदान किया।
ऐसी गौओंका दान किया जिन्हें वस्त्रोंकी सुन्दर-सुन्दर झूलें, पुष्पमालाएँ एवं सोनेकी जंजीरें पहना दी गयी थीं। इसके बाद ग्रहणका मोक्ष
हो जानेपर परशुरामजीके बनाये हुए कुण्डोंमें यदुवंशियोंने विधिपूर्वक स्नान किया और
सत्पात्र ब्राह्मणोंको सुन्दर-सुन्दर पकवानोंका भोजन कराया। उन्होंने अपने मनमें
यह सङ्कल्प किया था कि भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें हमारी प्रेमभक्ति बनी रहे।
भगवान् श्रीकृष्णको ही अपना आदर्श और इष्टदेव माननेवाले यदुवंशियोंने
ब्राह्मणोंसे अनुमति लेकर तब स्वयं भोजन किया और फिर घनी एवं ठंडी छायावाले
वृक्षोंके नीचे अपनी-अपनी इच्छाके अनुसार डेरा डालकर ठहर गये। परीक्षित् !
विश्राम कर लेनेके बाद यदुवंशियोंने अपने सुहृद् और सम्बन्धी राजाओंसे
मिलना-भेंटना शुरू किया ॥ १०—१२ ॥ वहाँ मत्स्य, उशीनर, कोसल, विदर्भ, कुरु, सृञ्जय, काम्बोज,
कैकय, मद्र, कुन्ति,
आनर्त, केरल एवं दूसरे अनेकों देशोंके—अपने पक्षके तथा शत्रुपक्षके—सैकड़ों नरपति आये हुए
थे। परीक्षित् ! इनके अतिरिक्त यदुवंशियोंके परम हितैषी बन्धु नन्द आदि गोप तथा
भगवान्के दर्शनके लिये चिरकालसे उत्कण्ठित गोपियाँ भी वहाँ आयी हुई थीं। यादवोंने
इन सबको देखा ॥ १३-१४ ॥ परीक्षित् ! एक-दूसरेके दर्शन, मिलन
और वार्तालापसे सभीको बड़ा आनन्द हुआ। सभीके हृदय- कमल एवं मुख-कमल खिल उठे। सब
एक-दूसरेको भुजाओंमें भरकर हृदयसे लगाते, उनके नेत्रोंसे
आँसुओंकी झड़ी लग जाती, रोम-रोम खिल उठता, प्रेमके आवेगसे बोली बंद हो जाती और सब-के-सब आनन्द-समुद्रमें
डूबने-उतराने लगते ॥ १५ ॥ पुरुषोंकी भाँति स्त्रियाँ भी एक-दूसरेको देखकर प्रेम और
आनन्दसे भर गयीं। वे अत्यन्त सौहार्द, मन्द-मन्द मुसकान,
परम पवित्र तिरछी चितवनसे देख-देखकर परस्पर भेंट-अँकवार भरने लगीं।
वे अपनी भुजाओंमें भरकर केसर लगे हुए वक्ष:स्थलोंको दूसरी स्त्रियोंके
वक्ष:स्थलोंसे दबातीं और अत्यन्त आनन्दका अनुभव करतीं। उस समय उनके नेत्रोंसे
प्रेमके आँसू छलकने लगते ॥ १६ ॥ अवस्था आदिमें छोटोंने बड़े-बूढ़ोंको प्रणाम किया
और उन्होंने अपनेसे छोटोंका प्रणाम स्वीकार किया। वे एक-दूसरेका स्वागत करके तथा
कुशल-मङ्गल आदि पूछकर फिर श्रीकृष्णकी मधुर लीलाएँ आपसमें कहने-सुनने लगे ॥ १७ ॥
परीक्षित् !
कुन्ती वसुदेव आदि अपने भाइयों, बहिनों, उनके पुत्रों, माता-पिता,
भाभियों और भगवान् श्रीकृष्णको देखकर तथा उनसे बातचीत करके अपना
सारा दु:ख भूल गयीं ॥ १८ ॥
कुन्तीने
वसुदेवजीसे कहा—भैया ! मैं सचमुच बड़ी अभागिन
हूँ। मेरी एक भी साध पूरी न हुई। आप-जैसे साधु-स्वभाव सज्जन भाई आपत्तिके समय मेरी
सुधि भी न लें, इससे बढक़र दु:खकी बात क्या होगी ? ॥ १९ ॥ भैया ! विधाता जिसके बाँयें हो जाता है उसे स्वजन-सम्बन्धी,
पुत्र और माता-पिता भी भूल जाते हैं। इसमें आपलोगोंका कोई दोष नहीं
॥ २० ॥
वसुदेवजीने
कहा—बहिन ! उलाहना मत दो। हमसे
बिलग न मानो। सभी मनुष्य दैवके खिलौने हैं। यह सम्पूर्ण लोक ईश्वरके वशमें रहकर
कर्म करता है, और उसका फल भोगता है ॥ २१ ॥ बहिन ! कंससे
सताये जाकर हमलोग इधर-उधर अनेक दिशाओंमें भगे हुए थे। अभी कुछ ही दिन हुए, ईश्वरकृपासे हम सब पुन: अपना स्थान प्राप्त कर सके हैं ॥ २२ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! वहाँ जितने भी
नरपति आये थे—वसुदेव, उग्रसेन आदि
यदुवंशियोंने उनका खूब सम्मान-सत्कार किया। वे सब भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन पाकर
परमानन्द और शान्तिका अनुभव करने लगे ॥ २३ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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