॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचपनवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
प्रद्युम्न का
जन्म और शम्बरासुरका वध
श्रीशुक उवाच -
कामस्तु वासुदेवांशो दग्धः प्राग् रुद्रमन्युना ।
देहोपपत्तये भूयः
तमेव प्रत्यपद्यत ॥ १ ॥
स एव जातो
वैदर्भ्यां कृष्णवीर्यसमुद्भवः ।
प्रद्युम्न इति
विख्यातः सर्वतोऽनवमः पितुः ॥ २ ॥
तं शम्बरः कामरूपी
हृत्वा तोकमनिर्दशम् ।
स विदित्वात्मनः
शत्रुं प्रास्योदन्वत्यगाद् गृहम् ॥ ३ ॥
तं निर्जगार बलवान्
मीनः सोऽप्यपरैः सह ।
वृतो जालेन महता
गृहीतो मत्स्यजीविभिः ॥ ४ ॥
तं शम्बराय कैवर्ता
उपाजह्रुरुपायनम् ।
सूदा महानसं नीत्वा
वद्यन् स्वधितिनाद्भुतम् ॥ ५ ॥
दृष्ट्वा तद् उदरे
बालं मायावत्यै न्यवेदयन् ।
नारदोऽकथयत्सर्वं
तस्याः शङ्कितचेतसः ।
बालस्य
तत्त्वमुत्पत्तिं मत्स्योदरनिवेशनम् ॥ ६ ॥
सा च कामस्य वै पत्नी
रतिर्नाम यशस्विनी ।
पत्युर्निर्दग्धदेहस्य देहोत्पत्तिं प्रतीक्षती
॥ ७ ॥
निरूपिता शम्बरेण
सा सूदौदनसाधने ।
कामदेवं शिशुं
बुद्ध्वा चक्रे स्नेहं तदार्भके ॥ ८ ॥
नातिदीर्घेण कालेन
स कार्ष्णि रूढयौवनः ।
जनयामास नारीणां
वीक्षन्तीनां च विभ्रमम् ॥ ९ ॥
सा तं पतिं पद्मदलायतेक्षणं
प्रलम्बबाहुं
नरलोकसुन्दरम् ।
सव्रीडहासोत्तभितभ्रुवेक्षती
प्रीत्योपतस्थे
रतिरङ्ग सौरतैः ॥ १० ॥
तामह भगवान् कार्ष्णिः मातस्ते मतिरन्यथा ।
मातृभावं अतिक्रम्य
वर्तसे कामिनी यथा ॥ ११ ॥
रतिरुवाच -
भवान् नारायणसुतः शम्बरेणाहृतो गृहात् ।
अहं तेऽधिकृता पत्नी
रतिः कामो भवान् प्रभो ॥ १२ ॥
एष त्वानिर्दशं
सिन्धौ अक्षिपत् शंबरोऽसुरः ।
मत्स्योऽग्रसीत्
तत् उदराद् इतः प्राप्तो भवान् प्रभो ॥ १३ ॥
तमिमं जहि
दुर्धर्षं दुर्जयं शत्रुमात्मनः ।
मायाशतविदं तं च
मायाभिर्मोहनादिभिः ॥ १४ ॥
परीशोचति ते माता
कुररीव गतप्रजा ।
पुत्रस्नेहाकुला
दीना विवत्सा गौरिवातुरा ॥ १५ ॥
प्रभाष्यैवं ददौ
विद्यां प्रद्युम्नाय महात्मने ।
मायावती महामायां
सर्वमायाविनाशिनीम् ॥ १६ ॥
स च शम्बरमभ्येत्य
संयुगाय समाह्वयत् ।
अविषह्यैस्तमाक्षेपैः क्षिपन् सञ्जनयन् कलिम् ॥
१७ ॥
सोऽधिक्षिप्तो
दुर्वाचोभिः पदाहत इवोरगः ।
निश्चक्राम
गदापाणिः अमर्षात् ताम्रलोचनः ॥ १८ ॥
गदामाविध्य तरसा
प्रद्युम्नाय महात्मने ।
प्रक्षिप्य व्यनदद्
नादं वज्रनिष्पेषनिष्ठुरम् ॥ १९ ॥
तामापतन्तीं
भगवानन् प्रद्युम्नो गदया गदाम् ।
अपास्य शत्रवे
क्रुद्धः प्राहिणोर् स्वगदां नृप ॥ २० ॥
स च मायां
समाश्रित्य दैतेयीं मयदर्शितम् ।
मुमुचेऽस्त्रमयं
वर्षं कार्ष्णौ वैहायसोऽसुरः ॥ २१ ॥
बाध्यमानोऽस्त्रवर्षेण रौक्मिणेयो महारथः ।
सत्त्वात्मिकां
महाविद्यां सर्वमायोपमर्दिनीम् ॥ २२ ॥
ततो गौह्यकगान्धर्व
पैशाचोरगराक्षसीः ।
प्रायुङ्क्त शतशो
दैत्यः कार्ष्णिर्व्यधमयत्स ताः ॥ २३ ॥
निशातमसिमुद्यम्य
सकिरीटं सकुण्डलम् ।
शम्बरस्य शिरः
कायात् ताम्रश्मश्र्वोजसाहरत् ॥ २४ ॥
आकीर्यमाणो दिविजैः
स्तुवद्भिः कुसुमोत्करैः ।
भार्ययाम्बरचारिण्या पुरं नीतो विहायसा ॥ २५ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! कामदेव भगवान्
वासुदेवके ही अंश हैं। वे पहले रुद्र- भगवान् की क्रोधाग्नि से भस्म हो गये थे।
अब फिर शरीर-प्राप्तिके लिये उन्होंने अपने अंशी भगवान् वासुदेवका ही आश्रय लिया
।। १ ।। वे ही काम अबकी बार भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा रुक्मिणीजी- के गर्भसे
उत्पन्न हुए और प्रद्युम्न नामसे जगत् में प्रसिद्ध हुए। सौन्दर्य, वीर्य, सौशील्य आदि सद्गुणोंमें भगवान् श्रीकृष्णसे
वे किसी प्रकार कम न थे ।। २ ।। बालक प्रद्युम्न अभी दस दिनके भी न हुए थे कि
कामरूपी शम्बरासुर वेष बदलकर सूतिकागृहसे उन्हें हर ले गया और समुद्रमें फेंककर
अपने घर लौट गया। उसे मालूम हो गया था कि यह मेरा भावी शत्रु है ।। ३ ।। समुद्रमें
बालक प्रद्युम्न को एक बड़ा भारी मच्छ निगल गया। तदनन्तर मछुओंने अपने बहुत बड़े
जालमें फँसाकर दूसरी मछलियोंके साथ उस मच्छको भी पकड़ लिया ।। ४ ।। और उन्होंने
उसे ले जाकर शम्बरासुरको भेंटके रूपमें दे दिया। शम्बरासुरके रसोइये उस अद्भुत
मच्छको उठाकर रसोईघरमें ले आये और कुल्हाडिय़ोंसे उसे काटने लगे ।। ५ ।। रसोइयोंने
मत्स्यके पेटमें बालक देखकर उसे शम्बरासुरकी दासी मायावतीको समॢपत किया। उसके
मनमें बड़ी शंका हुई। तब नारदजीने आकर बालकका कामदेव होना, श्रीकृष्णकी
पत्नी रुक्मिणीके गर्भसे जन्म लेना, मच्छके पेटमें जाना सब
कुछ कह सुनाया ।। ६ ।। परीक्षित् ! वह मायावती कामदेवकी यशस्विनी पत्नी रति ही
थी। जिस दिन शङ्करजीके क्रोधसे कामदेवका शरीर भस्म हो गया था, उसी दिनसे वह उसकी देहके पुन: उत्पन्न होनेकी प्रतीक्षा कर रही थी ।। ७ ।।
उसी रतिको शम्बरासुरने अपने यहाँ दाल-भात बनानेके काममें नियुक्त कर रखा था। जब
उसे मालूम हुआ कि इस शिशुके रूपमें मेरे पति कामदेव ही हैं, तब
वह उसके प्रति बहुत प्रेम करने लगी ।। ८ ।। श्रीकृष्णकुमार भगवान् प्रद्युम्न
बहुत थोड़े दिनोंमें जवान हो गये। उनका रूप-लावण्य इतना अद्भुत था कि जो स्त्रियाँ
उनकी ओर देखतीं, उनके मनमें शृङ्गार-रसका उद्दीपन हो जाता ।।
९ ।। कमलदल के समान कोमल एवं विशाल नेत्र, घुटनोंतक
लंबी-लंबी बाँहें और मनुष्यलोकमें सबसे सुन्दर शरीर ! रति सलज्ज हास्यके साथ भौंह
मटकाकर उनकी ओर देखती और प्रेमसे भरकर स्त्री-पुरुषसम्बन्धी भाव व्यक्त करती हुई
उनकी सेवा-शुश्रूषामें लगी रहती ।। १० ।। श्रीकृष्णनन्दन भगवान् प्रद्युम्रने
उसके भावोंमें परिवर्तन देखकर कहा—‘देवि ! तुम तो मेरी माँके
समान हो। तुम्हारी बुद्धि उलटी कैसे हो गयी ? मैं देखता हूँ
कि तुम माताका भाव छोडक़र कामिनीके समान हाव-भाव दिखा रही हो’ ।। ११ ।।
रतिने कहा—‘प्रभो ! आप स्वयं भगवान् नारायणके पुत्र
हैं। शम्बरासुर आपको सूतिकागृहसे चुरा लाया था। आप मेरे पति स्वयं कामदेव हैं और
मैं आपकी सदाकी धर्मपत्नी रति हूँ ।। १२ ।। मेरे स्वामी ! जब आप दस दिनके भी न थे,
तब इस शम्बरासुरने आपको हरकर समुद्रमें डाल दिया था। वहाँ एक मच्छ
आपको निगल गया और उसीके पेटसे आप यहाँ मुझे प्राप्त हुए हैं ।। १३ ।। यह शम्बरासुर
सैकड़ों प्रकारकी माया जानता है। इसको अपने वशमें कर लेना या जीत लेना बहुत ही
कठिन है। आप अपने इस शत्रुको मोहन आदि मायाओंके द्वारा नष्ट कर डालिये ।। १४ ।।
स्वामिन् ! अपनी सन्तान आपके खो जानेसे आपकी माता पुत्रस्नेहसे व्याकुल हो रही हैं,
वे आतुर होकर अत्यन्त दीनतासे रात-दिन चिन्ता करती रहती हैं। उनकी
ठीक वैसी ही दशा हो रही है, जैसी बच्चा खो जानेपर कुररी
पक्षीकी अथवा बछड़ा खो जानेपर बेचारी गायकी होती है ।। १५ ।। मायावती रतिने इस
प्रकार कहकर परमशक्तिशाली प्रद्युम्रको महामाया नामकी विद्या सिखायी । यह विद्या
ऐसी है, जो सब प्रकारकी मायाओंका नाश कर देती है ।। १६ ।। अब
प्रद्युम्रजी शम्बरासुरके पास जाकर उसपर बड़े कटु-कटु आक्षेप करने लगे । वे चाहते
थे कि यह किसी प्रकार झगड़ा कर बैठे । इतना ही नहीं, उन्होंने
युद्धके लिये उसे स्पष्टरूपसे ललकारा ।। १७ ।।
प्रद्युम्न जी
के कटुवचनोंकी चोटसे शम्बरासुर तिलमिला उठा । मानो किसीने विषैले साँपको पैर से
ठोकर मार दी हो । उसकी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं । वह हाथमें गदा लेकर बाहर निकल
आया ।। १८ ।। उसने अपनी गदा बड़े जोरसे आकाश में घुमायी और इसके बाद प्रद्युम्नजी पर
चला दी । गदा चलाते समय उसने इतना कर्कश सिंहनाद किया, मानो बिजली कडक़ रही हो ।। १९ ।। परीक्षित्
! भगवान् प्रद्युम्रने देखा कि उसकी गदा बड़े वेगसे मेरी ओर आ रही है । तब
उन्होंने अपनी गदाके प्रहारसे उसकी गदा गिरा दी और क्रोधमें भरकर अपनी गदा उसपर
चलायी ।। २० ।। तब वह दैत्य मयासुरकी बतलायी हुई आसुरी मायाका आश्रय लेकर आकाशमें
चला गया और वहींसे प्रद्युम्न जी पर अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा करने लगा ।। २१ ।।
महारथी प्रद्युम्नजी पर बहुत-सी अस्त्र- वर्षा करके जब वह उन्हें पीडि़त करने लगा,
तब उन्होंने समस्त मायाओं को शान्त करनेवाली सत्त्वमयी महाविद्याका
प्रयोग किया ।। २२ ।। तदनन्तर शम्बरासुर ने यक्ष, गन्धर्व,
पिशाच, नाग और राक्षसोंकी सैकड़ों मायाओंका
प्रयोग किया; परंतु श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्रजीने अपनी
महाविद्यासे उन सबका नाश कर दिया ।। २३ ।। इसके बाद उन्होंने एक तीक्ष्ण तलवार
उठायी और शम्बरासुरका किरीट एवं कुण्डलसे सुशोभित सिर, जो
लाल-लाल दाढ़ी, मूछोंसे बड़ा भयङ्कर लग रहा था, काटकर धड़से अलग कर दिया ।। २४ ।। देवतालोग पुष्पोंकी वर्षा करते हुए
स्तुति करने लगे और इसके बाद मायावती रति, जो आकाश में चलना
जानती थी, अपने पति प्रद्युम्न जी को आकाशमार्ग से
द्वारकापुरीमें ले गयी ।। २५ ।।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
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