॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौवनवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
शिशुपालके
साथी राजाओंकी और रुक्मी की हार
तथा
श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-विवाह
श्रीशुक उवाच
तया परित्रासविकम्पिताङ्गया
शुचावशुष्यन्मुखरुद्धकण्ठया
कातर्यविस्रंसितहेममालया
गृहीतपादः करुणो न्यवर्तत ३४
चैलेन बद्ध्वा तमसाधुकारिणं
सश्मश्रुकेशं प्रवपन्व्यरूपयत्
तावन्ममर्दुः परसैन्यमद्भुतं
यदुप्रवीरा नलिनीं यथा गजाः ३५
कृष्णान्तिकमुपव्रज्य ददृशुस्तत्र रुक्मिणम्
तथाभूतं हतप्रायं दृष्ट्वा सङ्कर्षणो विभुः
विमुच्य बद्धं करुणो भगवान्कृष्णमब्रवीत् ३६
असाध्विदं त्वया कृष्ण कृतमस्मज्जुगुप्सितम्
वपनं श्मश्रुकेशानां वैरूप्यं सुहृदो वधः ३७
मैवास्मान्साध्व्यसूयेथा भ्रातुर्वैरूप्यचिन्तया
सुखदुःखदो न चान्योऽस्ति यतः स्वकृतभुक्पुमान् ३८
बन्धुर्वधार्हदोषोऽपि न बन्धोर्वधमर्हति
त्याज्यः स्वेनैव दोषेण हतः किं हन्यते पुनः ३९
क्षत्रियाणामयं धर्मः प्रजापतिविनिर्मितः
भ्रातापि भ्रातरं हन्याद्येन घोरतमस्ततः ४०
राज्यस्य भूमेर्वित्तस्य स्त्रियो मानस्य तेजसः
मानिनोऽन्यस्य वा हेतोः श्रीमदान्धाः क्षिपन्ति हि ४१
तवेयं विषमा बुद्धिः सर्वभूतेषु दुर्हृदाम्
यन्मन्यसे सदाभद्रं सुहृदां भद्रमज्ञवत् ४२
आत्ममोहो नृणामेव कल्पते देवमायया
सुहृद्दुर्हृदुदासीन इति देहात्ममानिनाम् ४३
एक एव परो ह्यात्मा सर्वेषामपि देहिनाम्
नानेव गृह्यते मूढैर्यथा ज्योतिर्यथा नभः ४४
देह आद्यन्तवानेष द्रव्यप्राणगुणात्मकः
आत्मन्यविद्यया कॢप्तः संसारयति देहिनम् ४५
नात्मनोऽन्येन संयोगो वियोगश्च सतः सति
तद्धेतुत्वात्तत्प्रसिद्धेर्दृग्रूपाभ्यां यथा रवेः ४६
जन्मादयस्तु देहस्य विक्रिया नात्मनः क्वचित्
कलानामिव नैवेन्दोर्मृतिर्ह्यस्य कुहूरिव ४७
यथा शयान आत्मानं विषयान्फलमेव च
अनुभुङ्क्तेऽप्यसत्यर्थे तथाप्नोत्यबुधो भवम् ४८
तस्मादज्ञानजं शोकमात्मशोषविमोहनम्
तत्त्वज्ञानेन निर्हृत्य स्वस्था भव शुचिस्मिते ४९
श्रीशुक उवाच
एवं भगवता तन्वी रामेण प्रतिबोधिता
वैमनस्यं परित्यज्य मनो बुद्ध्या समादधे ५०
प्राणावशेष उत्सृष्टो द्विड्भिर्हतबलप्रभः
स्मरन्विरूपकरणं वितथात्ममनोरथः ५१
चक्रे भोजकटं नाम निवासाय महत्पुरम्
अहत्वा दुर्मतिं कृष्णमप्रत्यूह्य यवीयसीम्
कुण्डिनं न प्रवेक्ष्यामीत्युक्त्वा तत्रावसद्रुषा ५२
भगवान्भीष्मकसुतामेवं निर्जित्य भूमिपान्
पुरमानीय विधिवदुपयेमे कुरूद्वह ५३
तदा महोत्सवो नॄणां यदुपुर्यां गृहे गृहे
अभूदनन्यभावानां कृष्णे यदुपतौ नृप ५४
नरा नार्यश्च मुदिताः प्रमृष्टमणिकुण्डलाः
पारिबर्हमुपाजह्रुर्वरयोश्चित्रवाससोः ५५
सा वृष्णिपुर्युत्तम्भितेन्द्र केतुभिर्
विचित्रमाल्याम्बररत्नतोरणैः
बभौ प्रतिद्वार्युपकॢप्तमङ्गलैर्
आपूर्णकुम्भागुरुधूपदीपकैः ५६
सिक्तमार्गा मदच्युद्भिराहूतप्रेष्ठभूभुजाम्
गजैर्द्वाःसु परामृष्ट रम्भापूगोपशोभिता ५७
कुरुसृञ्जयकैकेय विदर्भयदुकुन्तयः
मिथो मुमुदिरे तस्मिन्सम्भ्रमात्परिधावताम् ५८
रुक्मिण्या हरणं श्रुत्वा गीयमानं ततस्ततः
राजानो राजकन्याश्च बभूवुर्भृशविस्मिताः ५९
द्वारकायामभूद्राजन्महामोदः पुरौकसाम्
रुक्मिण्या रमयोपेतं दृष्ट्वा कृष्णं श्रियः पतिम् ६०
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—रुक्मिणीजीका एक-एक अङ्ग भयके
मारे थर-थर काँप रहा था। शोककी प्रबलतासे मुँह सूख गया था, गला
रुँध गया था। आतुरतावश सोनेका हार गलेसे गिर पड़ा था और इसी अवस्थामें वे भगवान्के
चरणकमल पकड़े हुए थीं। परमदयालु भगवान् उन्हें भयभीत देखकर करुणासे द्रवित हो
गये। उन्होंने रुक्मीको मार डालनेका विचार छोड़ दिया ।। ३४ ।। फिर भी रुक्मी उनके
अनिष्टकी चेष्टासे विमुख न हुआ। तब भगवान् श्रीकृष्णने उसको उसीके दुपट्टेसे बाँध
दिया और उसकी दाढ़ी-मूँछ तथा केश कई जगहसे मूँडक़र उसे कुरूप बना दिया। तबतक
यदुवंशी वीरोंने शत्रुकी अद्भुत सेनाको तहस-नहस कर डाला—ठीक
वैसे ही, जैसे हाथी कमलवनको रौंद डालता है ।। ३५ ।। फिर वे
लोग उधरसे लौटकर श्रीकृष्णके पास आये, तो देखा कि रुक्मी
दुपट्टेसे बँधा हुआ अधमरी अवस्थामें पड़ा हुआ है। उसे देखकर सर्वशक्तिमान् भगवान्
बलरामजीको बड़ी दया आयी और उन्होंने उसके बन्धन खोलकर उसे छोड़ दिया तथा
श्रीकृष्णसे कहा—।। ३६ ।। ‘कृष्ण !
तुमने यह अच्छा नहीं किया। यह निन्दित कार्य हमलोगोंके योग्य नहीं है। अपने
सम्बन्धीकी दाढ़ी-मूँछ मूँडक़र उसे कुरूप कर देना, यह तो एक
प्रकारका वध ही है’ ।। ३७ ।। इसके बाद बलरामजीने रुक्मिणीको
सम्बोधन करके कहा— ‘साध्वी ! तुम्हारे भाईका रूप विकृत कर
दिया गया है, यह सोचकर हमलोगोंसे बुरा न मानना; क्योंकि जीवको सुख-दु:ख देनेवाला कोई दूसरा नहीं है। उसे तो अपने ही
कर्मका फल भोगना पड़ता है’ ।। ३८ ।। अब श्रीकृष्णसे बोले—‘कृष्ण ! यदि अपना सगा-सम्बन्धी वध करनेयोग्य अपराध करे, तो भी अपने ही सम्बन्धियोंके द्वारा उसका मारा जाना उचित नहीं है। उसे
छोड़ देना चाहिये। वह तो अपने अपराधसे ही मर चुका है, मरे
हुएको फिर क्या मारना ?’ ।। ३९ ।। फिर रुक्मिणीजीसे बोले—‘साध्वी ! ब्रह्माजीने क्षत्रियोंका धर्म ही ऐसा बना दिया है कि सगा भाई भी
अपने भाईको मार डालता है। इसलिये यह क्षात्रधर्म अत्यन्त घोर है’ ।। ४० ।। इसके बाद श्रीकृष्णसे बोले—‘भाई कृष्ण ! यह
ठीक है कि जो लोग धनके नशेमें अंधे हो रहे हैं और अभिमानी हैं, वे राज्य, पृथ्वी, पैसा,
स्त्री, मान, तेज अथवा
किसी और कारणसे अपने बन्धुओंका भी तिरस्कार कर दिया करते हैं’ ।। ४१ ।। अब वे रुक्मिणीजीसे बोले—‘साध्वी !
तुम्हारे भाई- बन्धु समस्त प्राणियोंके प्रति दुर्भाव रखते हैं। हमने उनके मङ्गलके
लिये ही उनके प्रति दण्डविधान किया है। उसे तुम अज्ञानियोंकी भाँति अमङ्गल मान रही
हो, यह तुम्हारी बुद्धिकी विषमता है ।। ४२ ।। देवि ! जो लोग
भगवान्की मायासे मोहित होकर देहको ही आत्मा मान बैठते हैं, उन्हींको
ऐसा आत्ममोह होता है कि यह मित्र है, यह शत्रु है और यह
उदासीन है ।। ४३ ।। समस्त देहधारियोंकी आत्मा एक ही है और कार्य-कारणसे, मायासे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। जल और घड़ा आदि उपाधियोंके भेदसे जैसे
सूर्य, चन्द्रमा आदि प्रकाशयुक्त पदार्थ और आकाश भिन्न-भिन्न
मालूम पड़ते हैं; परंतु हैं एक ही, वैसे
ही मूर्ख लोग शरीरके भेदसे आत्माका भेद मानते हैं ।। ४४ ।। यह शरीर आदि और
अन्तवाला है। पञ्चभूत, पञ्चप्राण, तन्मात्रा
और त्रिगुण ही इसका स्वरूप है। आत्मामें उसके अज्ञानसे ही इसकी कल्पना हुई है और
वह कल्पित शरीर ही, जो उसे ‘मैं समझता
है, उसको जन्म-मृत्युके चक्करमें ले जाता है ।। ४५ ।। साध्वी
! नेत्र और रूप दोनों ही सूर्यके द्वारा प्रकाशित होते हैं। सूर्य ही उनका कारण
है। इसलिये सूर्यके साथ नेत्र और रूपका न तो कभी वियोग होता है और न संयोग। इसी
प्रकार समस्त संसारकी सत्ता आत्मसत्ताके कारण जान पड़ती है, समस्त
संसारका प्रकाशक आत्मा ही है। फिर आत्माके साथ दूसरे असत् पदार्थोंका संयोग या
वियोग हो ही कैसे सकता है ? ।। ४६ ।। जन्म लेना, रहना, बढऩा, बदलना, घटना और मरना—ये सारे विकार शरीरके ही होते हैं,
आत्माके नहीं। जैसे कृष्णपक्षमें कलाओंका ही क्षय होता है, चन्द्रमाका नहीं, परंतु अमावस्याके दिन व्यवहारमें
लोग चन्द्रमाका ही क्षय हुआ कहते-सुनते हैं; वैसे ही
जन्म-मृत्यु आदि सारे विकार शरीरके ही होते हैं, परंतु लोग
उसे भ्रमवश अपना—अपने आत्माका मान लेते हैं ।। ४७ ।। जैसे
सोया हुआ पुरुष किसी पदार्थके न होनेपर भी स्वप्नमें भोक्ता, भोग्य और भोगरूप फलोंका अनुभव करता है, उसी प्रकार
अज्ञानी लोग झूठमूठ संसारचक्रका अनुभव करते हैं ।। ४८ ।। इसलिये साध्वी ! अज्ञानके
कारण होनेवाले इस शोकको त्याग दो। यह शोक अन्त:करणको मुरझा देता है, मोहित कर देता है। इसलिये इसे छोडक़र तुम अपने स्वरूपमें स्थित हो जाओ ’।। ४९ ।।
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! जब बलरामजीने इस
प्रकार समझाया, तब परमसुन्दरी रुक्मिणीजीने अपने मनका मैल
मिटाकर विवेक-बुद्धिसे उसका समाधान किया ।। ५० ।। रुक्मीकी सेना और उसके तेजका नाश
हो चुका था। केवल प्राण बच रहे थे। उसके चित्तकी सारी आशा- अभिलाषाएँ व्यर्थ हो
चुकी थीं और शत्रुओंने अपमानित करके उसे छोड़ दिया था। उसे अपने विरूप किये जानेकी
कष्टदायक स्मृति भूल नहीं पाती थी ।। ५१ ।। अत: उसने अपने रहनेके लिये भोजकट नामकी
एक बहुत बड़ी नगरी बसायी। उसने पहले ही यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि ‘दुर्बुद्धि कृष्णको मारे बिना और अपनी छोटी बहिनको लौटाये बिना मैं
कुण्डिनपुरमें प्रवेश नहीं करूँगा।’ इसलिये क्रोध करके वह
वहीं रहने लगा ।। ५२ ।।
परीक्षित् !
भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार सब राजाओंको जीत लिया और विदर्भराजकुमारी
रुक्मिणीजीको द्वारकामें लाकर उनका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया ।। ५३ ।। हे राजन् !
उस समय द्वारकापुरीमें घर-घर बड़ा ही उत्सव मनाया जाने लगा। क्यों न हो, वहाँके सभी लोगोंका यदुपति श्रीकृष्णके
प्रति अनन्य प्रेम जो था ।। ५४ ।। वहाँके सभी नर-नारी मणियोंके चमकीले कुण्डल धारण
किये हुए थे। उन्होंने आनन्दसे भरकर चित्र-विचित्र वस्त्र पहने दूल्हा और दुलहिनको
अनेकों भेंटकी सामग्रियाँ उपहारमें दीं ।। ५५ ।। उस समय द्वारकाकी अपूर्व शोभा हो
रही थी। कहीं बड़ी- बड़ी पताकाएँ बहुत ऊँचेतक फहरा रही थीं। चित्र-विचित्र मालाएँ,
वस्त्र और रत्नोंके तोरन बँधे हुए थे। द्वार-द्वारपर दूब, खील आदि मङ्गलकी वस्तुएँ सजायी हुई थीं। जलभरे कलश, अरगजा
और धूपकी सुगन्ध तथा दीपावलीसे बड़ी ही विलक्षण शोभा हो रही थी ।। ५६ ।। मित्र
नरपति आमन्त्रित किये गये थे। उनके मतवाले हाथियोंके मदसे द्वारकाकी सडक़ और
गलियोंका छिडक़ाव हो गया था। प्रत्येक दरवाजेपर केलोंके खंभे और सुपारीके पेड़ रोपे
हुए बहुत ही भले मालूम होते थे ।। ५७ ।। उस उत्सवमें कुतूहलवश इधर-उधर दौड़-धूप
करते हुए बन्धुवर्गोंमें कुरु, सृञ्जय, कैकय, विदर्भ, यदु और कुन्ति
आदि वंशोंके लोग परस्पर आनन्द मना रहे थे ।। ५८ ।। जहाँ-तहाँ रुक्मिणी-हरणकी ही
गाथा गायी जाने लगी। उसे सुनकर राजा और राजकन्याएँ अत्यन्त विस्मित हो गयीं ।। ५९
।। महाराज ! भगवती लक्ष्मीजीको रुक्मिणीके रूपमें साक्षात् लक्ष्मीपति भगवान्
श्रीकृष्णके साथ देखकर द्वारकावासी नर-नारियोंको परम आनन्द हुआ ।। ६० ।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे रुक्मिण्युद्वाहे
चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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