॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौवनवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
शिशुपालके
साथी राजाओंकी और रुक्मी की हार
तथा
श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-विवाह
श्रीशुक उवाच
इति सर्वे सुसंरब्धा वाहानारुह्य दंशिताः
स्वैः स्वैर्बलैः परिक्रान्ता अन्वीयुर्धृतकार्मुकाः १
तानापतत आलोक्य यादवानीकयूथपाः
तस्थुस्तत्सम्मुखा राजन्विस्फूर्ज्य स्वधनूंषि ते २
अश्वपृष्ठे गजस्कन्धे रथोपस्थेऽस्त्र कोविदाः
मुमुचुः शरवर्षाणि मेघा अद्रिष्वपो यथा ३
पत्युर्बलं शरासारैश्छन्नं वीक्ष्य सुमध्यमा
सव्रीडमैक्षत्तद्वक्त्रं भयविह्वललोचना ४
प्रहस्य भगवानाह मा स्म भैर्वामलोचने
विनङ्क्ष्यत्यधुनैवैतत्तावकैः शात्रवं बलम् ५
तेषां तद्विक्रमं वीरा गदसङ्कर्षणादयः
अमृष्यमाणा नाराचैर्जघ्नुर्हयगजान्रथान् ६
पेतुः शिरांसि रथिनामश्विनां गजिनां भुवि
सकुण्डलकिरीटानि सोष्णीषाणि च कोटिशः ७
हस्ताः सासिगदेष्वासाः करभा ऊरवोऽङ्घ्रयः
अश्वाश्वतरनागोष्ट्र खरमर्त्यशिरांसि च ८
हन्यमानबलानीका वृष्णिभिर्जयकाङ्क्षिभिः
राजानो विमुखा जग्मुर्जरासन्धपुरःसराः ९
शिशुपालं समभ्येत्य हृतदारमिवातुरम्
नष्टत्विषं गतोत्साहं शुष्यद्वदनमब्रुवन् १०
भो भोः पुरुषशार्दूल दौर्मनस्यमिदं त्यज
न प्रियाप्रिययो राजन्निष्ठा देहिषु दृश्यते ११
यथा दारुमयी योषित्नृत्यते कुहकेच्छया
एवमीश्वरतन्त्रोऽयमीहते सुखदुःखयोः १२
शौरेः सप्तदशाहं वै संयुगानि पराजितः
त्रयोविंशतिभिः सैन्यैर्जिग्ये एकमहं परम् १३
तथाप्यहं न शोचामि न प्रहृष्यामि कर्हिचित्
कालेन दैवयुक्तेन जानन्विद्रावितं जगत् १४
अधुनापि वयं सर्वे वीरयूथपयूथपाः
पराजिताः फल्गुतन्त्रैर्यदुभिः कृष्णपालितैः १५
रिपवो जिग्युरधुना काल आत्मानुसारिणि
तदा वयं विजेष्यामो यदा कालः प्रदक्षिणः १६
श्रीशुक उवाच
एवं प्रबोधितो मित्रैश्चैद्योऽगात्सानुगः पुरम्
हतशेषाः पुनस्तेऽपि ययुः स्वं स्वं पुरं नृपाः १७
रुक्मी तु राक्षसोद्वाहं कृष्णद्विडसहन्स्वसुः
पृष्ठतोऽन्वगमत्कृष्णमक्षौहिण्या वृतो बली १८
रुक्म्यमर्षी सुसंरब्धः शृण्वतां सर्वभूभुजाम्
प्रतिजज्ञे महाबाहुर्दंशितः सशरासनः १९
अहत्वा समरे कृष्णमप्रत्यूह्य च रुक्मिणीम्
कुण्डिनं न प्रवेक्ष्यामि सत्यमेतद्ब्रवीमि वः २०
इत्युक्त्वा रथमारुह्य सारथिं प्राह सत्वरः
चोदयाश्वान्यतः कृष्णः तस्य मे संयुगं भवेत् २१
अद्याहं निशितैर्बाणैर्गोपालस्य सुदुर्मतेः
नेष्ये वीर्यमदं येन स्वसा मे प्रसभं हृता २२
विकत्थमानः कुमतिरीश्वरस्याप्रमाणवित्
रथेनैकेन गोविन्दं तिष्ठ तिष्ठेत्यथाह्वयत् २३
धनुर्विकृष्य सुदृढं जघ्ने कृष्णं त्रिभिः शरैः
आह चात्र क्षणं तिष्ठ यदूनां कुलपांसन २४
यत्र यासि स्वसारं मे मुषित्वा ध्वाङ्क्षवद्धविः
हरिष्येऽद्य मदं मन्द मायिनः कूटयोधिनः २५
यावन्न मे हतो बाणैः शयीथा मुञ्च दारिकाम्
स्मयन्कृष्णो धनुश्छित्त्वा षड्भिर्विव्याध रुक्मिणम् २६
अष्टभिश्चतुरो वाहान्द्वाभ्यां सूतं ध्वजं त्रिभिः
स चान्यद्धनुराधाय कृष्णं विव्याध पञ्चभिः २७
तैस्तादितः शरौघैस्तु चिच्छेद धनुरच्युतः
पुनरन्यदुपादत्त तदप्यच्छिनदव्ययः २८
परिघं पट्टिशं शूलं चर्मासी शक्तितोमरौ
यद्यदायुधमादत्त तत्सर्वं सोऽच्छिनद्धरिः २९
ततो रथादवप्लुत्य खड्गपाणिर्जिघांसया
कृष्णमभ्यद्रवत्क्रुद्धः पतङ्ग इव पावकम् ३०
तस्य चापततः खड्गं तिलशश्चर्म चेषुभिः
छित्त्वासिमाददे तिग्मं रुक्मिणं हन्तुमुद्यतः ३१
दृष्ट्वा भ्रातृवधोद्योगं रुक्मिणी भयविह्वला
पतित्वा पादयोर्भर्तुरुवाच करुणं सती ३२
श्रीरुक्मिण्युवाच
योगेश्वराप्रमेयात्मन्देवदेव जगत्पते
हन्तुं नार्हसि कल्याण भ्रातरं मे महाभुज ३३
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! इस प्रकार
कह-सुनकर सब-के-सब राजा क्रोधसे आगबबूला हो उठे और कवच पहनकर अपने-अपने वाहनोंपर
सवार हो गये। अपनी-अपनी सेनाके साथ सब धनुष ले-लेकर भगवान् श्रीकृष्णके पीछे
दौड़े ।। १ ।। राजन् ! जब यदुवंशियोंके सेनापतियोंने देखा कि शत्रुदल हमपर चढ़ा आ
रहा है, तब उन्होंने भी अपने-अपने धनुष का टङ्कार किया और
घूमकर उनके सामने डट गये ।। २ ।। जरासन्ध की सेनाके लोग कोई घोड़े पर, कोई हाथीपर, तो कोई रथपर चढ़े हुए थे। वे सभी
धनुर्वेद के बड़े मर्मज्ञ थे। वे यदुवंशियोंपर इस प्रकार बाणोंकी वर्षा करने लगे,
मानो दल-के-दल बादल पहाड़ोंपर मूसलधार पानी बरसा रहे हों ।। ३ ।।
परमसुन्दरी
रुक्मिणीजीने देखा कि उनके पति श्रीकृष्णकी सेना बाण-वर्षासे ढक गयी है। तब
उन्होंने लज्जाके साथ भयभीत नेत्रोंसे भगवान् श्रीकृष्णके मुखकी ओर देखा ।। ४ ।।
भगवान्ने हँसकर कहा—‘सुन्दरी ! डरो मत। तुम्हारी
सेना अभी तुम्हारे शत्रुओंकी सेनाको नष्ट किये डालती है’ ।।
५ ।। इधर गद और सङ्कर्षण आदि यदुवंशी वीर अपने शत्रुओंका पराक्रम और अधिक न सह
सके। वे अपने बाणोंसे शत्रुओंके हाथी, घोड़े तथा रथोंको
छिन्न-भिन्न करने लगे ।। ६ ।। उनके बाणोंसे रथ, घोड़े और
हाथियोंपर बैठे विपक्षी वीरोंके कुण्डल, किरीट और पगडिय़ोंसे सुशोभित
करोड़ों सिर, खड्ग, गदा और धनुषयुक्त
हाथ, पहुँचे, जाँघें और पैर कट-कटकर
पृथ्वीपर गिरने लगे। इसी प्रकार घोड़े, खच्चर, हाथी, ऊँट, गधे और मनुष्योंके
सिर भी कट-कटकर रणभूमिमें लोटने लगे ।। ७-८ ।। अन्तमें विजयकी सच्ची आकाङ्क्षावाले
यदुवंशियोंने शत्रुओंकी सेना तहस-नहस कर डाली। जरासन्ध आदि सभी राजा युद्धसे पीठ
दिखाकर भाग खड़े हुए ।। ९ ।।
उधर शिशुपाल
अपनी भावी पत्नीके छिन जानेके कारण मरणासन्न-सा हो रहा था। न तो उसके हृदयमें
उत्साह रह गया था और न तो शरीरपर कान्ति। उसका मुँह सूख रहा था। उसके पास जाकर
जरासन्ध कहने लगा— ।। १० ।। ‘शिशुपालजी ! आप तो एक श्रेष्ठ पुरुष हैं। यह उदासी छोड़ दीजिये। क्योंकि
राजन् ! कोई भी बात सर्वदा अपने मनके अनुकूल ही हो या प्रतिकूल ही हो, इस सम्बन्धमें कुछ स्थिरता किसी भी प्राणीके जीवनमें नहीं देखी जाती ।। ११
।। जैसे कठपुतली बाजीगरकी इच्छाके अनुसार नाचती है, वैसे ही
यह जीव भी भगवदिच्छाके अधीन रहकर सुख और दु:खके सम्बन्धमें यथाशक्ति चेष्टा करता
रहता है ।। १२ ।। देखिये, श्रीकृष्णने मुझे तेईस-तेईस
अक्षौहिणी सेनाओंके साथ सत्रह बार हरा दिया, मैंने केवल एक
बार—अठारहवीं बार उनपर विजय प्राप्त की ।। १३ ।। फिर भी इस
बातको लेकर मैं न तो कभी शोक करता हूँ और न तो कभी हर्ष; क्योंकि
मैं जानता हूँ कि प्रारब्धके अनुसार कालभगवान् ही इस चराचर जगत्को झकझोरते रहते
हैं ।। १४ ।। इसमें सन्देह नहीं कि हमलोग बड़े-बड़े वीर सेनापतियोंके भी नायक हैं।
फिर भी, इस समय श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित यदुवंशियोंकी
थोड़ी-सी सेनाने हमें हरा दिया है ।। १५ ।। इस बार हमारे शत्रुओंकी ही जीत हुई,
क्योंकि काल उन्हींके अनुकूल था। जब काल हमारे दाहिने होगा, तब हम भी उन्हें जीत लेंगे’ ।। १६ ।। परीक्षित् !
जब मित्रोंने इस प्रकार समझाया, तब चेदिराज शिशुपाल अपने
अनुयायियोंके साथ अपनी राजधानीको लौट गया और उसके मित्र राजा भी, जो मरनेसे बचे थे, अपने-अपने नगरोंको चले गये ।। १७
।।
रुक्मिणीजीका
बड़ा भाई रुक्मी भगवान् श्रीकृष्णसे बहुत द्वेष रखता था। उसको यह बात बिलकुल सहन
न हुई कि मेरी बहिनको श्रीकृष्ण हर ले जायँ और राक्षसरीतिसे बलपूर्वक उसके साथ
विवाह करें। रुक्मी बली तो था ही, उसने एक अक्षौहिणी सेना साथ ले ली और श्रीकृष्णका पीछा किया ।। १८ ।।
महाबाहु रुक्मी क्रोधके मारे जल रहा था। उसने कवच पहनकर और धनुष धारण करके समस्त
नरपतियोंके सामने यह प्रतिज्ञा की— ।। १९ ।। ‘मैं आपलोगोंके बीचमें यह शपथ करता हूँ कि यदि मैं युद्धमें श्रीकृष्णको न
मार सका और अपनी बहिन रुक्मिणीको न लौटा सका तो अपनी राजधानी कुण्डिनपुरमें प्रवेश
नहीं करूँगा’ ।। २० ।। परीक्षित् ! यह कहकर वह रथपर सवार हो
गया और सारथिसे बोला—‘जहाँ कृष्ण हो वहाँ शीघ्र-से-शीघ्र
मेरा रथ ले चलो। आज मेरा उसीके साथ युद्ध होगा ।। २१ ।। आज मैं अपने तीखे बाणोंसे
उस खोटी बुद्धिवाले ग्वालेके बलवीर्यका घमंड चूर-चूर कर दूँगा। देखो तो उसका साहस,
वह हमारी बहिन को बलपूर्वक हर ले गया है’ ।।
२२ ।। परीक्षित् ! रुक्मीकी बुद्धि बिगड़ गयी थी। वह भगवान् के तेजष प्रभावको
बिलकुल नहीं जानता था। इसीसे इस प्रकार बहक-बहककर बातें करता हुआ वह एक ही रथसे
श्रीकृष्णके पास पहुँचकर ललकारने लगा—‘खड़ा रह ! खड़ा रह !’
।। २३ ।। उसने अपने धनुषको बलपूर्वक खींचकर भगवान् श्रीकृष्णको तीन
बाण मारे और कहा—‘एक क्षण मेरे सामने ठहर ! यदुवंशियोंके
कुलकलङ्क ! जैसे कौआ होमकी सामग्री चुराकर उड़ जाय, वैसे ही
तू मेरी बहिनको चुराकर कहाँ भागा जा रहा है ? अरे मन्द ! तू
बड़ा मायावी और कपट-युद्धमें कुशल है। आज मैं तेरा सारा गर्व खर्व किये डालता हूँ
।। २४-२५ ।। देख ! जबतक मेरे बाण तुझे धरतीपर सुला नहीं देते, उसके पहले ही इस बच्चीको छोडक़र भाग जा।’ रुक्मीकी
बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण मुसकराने लगे। उन्होंने उसका धनुष काट डाला और उसपर
छ: बाण छोड़े ।। २६ ।। साथ ही भगवान् श्रीकृष्णने आठ बाण उसके चार घोड़ोंपर और दो
सारथिपर छोड़े और तीन बाणोंसे उसके रथकी ध्वजाको काट डाला। तब रुक्मीने दूसरा धनुष
उठाया और भगवान् श्रीकृष्णको पाँच बाण मारे ।। २७ ।। उन बाणोंके लगनेपर उन्होंने
उसका वह धनुष भी काट डाला। रुक्मीने इसके बाद एक और धनुष लिया, परंतु हाथमें लेते-ही-लेते अविनाशी अच्युतने उसे भी काट डाला ।। २८ ।। इस
प्रकार रुक्मीने परिघ, पट्टिश, शूल,
ढाल, तलवार, शक्ति और
तोमर— जितने अस्त्र-शस्त्र उठाये, उन
सभीको भगवान्ने प्रहार करनेके पहले ही काट डाला ।। २९ ।। अब रुक्मी क्रोधवश
हाथमें तलवार लेकर भगवान् श्रीकृष्णको मार डालनेकी इच्छासे रथसे कूद पड़ा और इस
प्रकार उनकी ओर झपटा, जैसे पतंगा आगकी ओर लपकता है ।। ३० ।।
जब भगवान् ने देखा कि रुक्मी मुझपर चोट करना चाहता है, तब
उन्होंने अपने बाणोंसे उसकी ढाल-तलवारको तिल-तिल करके काट दिया और उसको मार
डालनेके लिये हाथमें तीखी तलवार निकाल ली ।। ३१ ।। जब रुक्मिणीजीने देखा कि ये तो
हमारे भाईको अब मार ही डालना चाहते हैं, तब वे भयसे विह्वल
हो गयीं और अपने प्रियतम पति भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंपर गिरकर करुण- स्वरमें
बोलीं— ।। ३२ ।। ‘देवताओंके भी
आराध्यदेव ! जगत्पते ! आप योगेश्वर हैं। आपके स्वरूप और इच्छाओं को कोई जान नहीं
सकता। आप परम बलवान् हैं। परंतु कल्याण-स्वरूप भी तो हैं। प्रभो ! मेरे भैयाको
मारना आपके योग्य काम नहीं है’ ।। ३३ ।।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें