॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
भगवान् की
अग्रपूजा और शिशुपालका उद्धार
श्रीशुक उवाच -
एवं युधिष्ठिरो राजा जरासन्धवधं विभोः ।
कृष्णस्य चानुभावं
तं श्रुत्वा प्रीतस्तमब्रवीत् ॥ १ ॥
श्रीयुधिष्ठिर उवाच
-
ये स्युस्त्रैलोक्यगुरवः सर्वे लोकमहेश्वराः ।
वहन्ति दुर्लभं
लब्ध्वा शिरसैवानुशासनम् ॥ २ ॥
स भवान्
अरविन्दाक्षो दीनानां ईशमानिनाम् ।
धत्तेऽनुशासनं
भूमन् तदत्यन्तविडम्बनम् ॥ ३ ॥
न
ह्येकस्याद्वितीयस्य ब्रह्मणः परमात्मनः ।
कर्मभिर्वर्धते
तेजो ह्रसते च यथा रवेः ॥ ४ ॥
न वै तेऽजित
भक्तानां ममाहमिति माधव ।
त्वं तवेति च
नानाधीः पशूनामिव वैकृती ॥ ५ ॥
श्रीशुक उवाच -
इत्युक्त्वा यज्ञिये काले वव्रे युक्तान् स ऋत्विजः ।
कृष्णानुमोदितः पार्थो
ब्राह्मणान् ब्रह्मवादिनः ॥ ६ ॥
द्वैपायनो भरद्वाजः
सुमन्तुर्गोतमोऽसितः ।
वसिष्ठश्च्यवनः
कण्वो मैत्रेयः कवषस्त्रितः ॥ ७ ॥
विश्वामित्रो
वामदेवः सुमतिर्जैमिनिः क्रतुः ।
पैलः पराशरो गर्गो
वैशम्पायन एव च ॥ ८ ॥
अथर्वा कश्यपो
धौम्यो रामो भार्गव आसुरिः ।
वीतिहोत्रो
मधुच्छन्दा वीरसेनोऽकृतव्रणः ॥ ९ ॥
उपहूतास्तथा चान्ये
द्रोणभीष्मकृपादयः ।
धृतराष्ट्रः सहसुतो
विदुरश्च महामतिः ॥ १० ॥
ब्राह्मणाः
क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा यज्ञदिदृक्षवः ।
तत्रेयुः
सर्वराजानो राज्ञां प्रकृतयो नृप ॥ ११ ॥
ततस्ते देवयजनं
ब्राह्मणाः स्वर्णलाङ्गलैः ।
कृष्ट्वा तत्र
यथाम्नायं दीक्षयां चक्रिरे नृपम् ॥ १२ ॥
हैमाः किलोपकरणा
वरुणस्य यथा पुरा ।
इन्द्रादयो लोकपाला
विरिञ्चिभवसंयुताः ॥ १३ ॥
सगणाः
सिद्धगन्धर्वा विद्याधरमहोरगाः ।
मुनयो यक्षरक्षांसि
खगकिन्नरचारणाः ॥ १४ ॥
राजानश्च समाहूता राजपत्न्यश्च सर्वशः ।
राजसूयं समीयुः स्म
राज्ञः पाण्डुसुतस्य वै ॥ १५ ॥
मेनिरे
कृष्णभक्तस्य सूपपन्नमविस्मिताः ।
अयाजयन् महाराजं
याजका देववर्चसः ।
राजसूयेन विधिवत्
प्रचेतसमिवामराः ॥ १६ ॥
सूत्येऽहन्यवनीपालो
याजकान् सदसस्पतीन् ।
अपूजयन् महाभागान्
यथावत् सुसमाहितः ॥ १७ ॥
सदस्याग्र्यार्हणार्हं वै विमृशन्तः सभासदः ।
नाध्यगच्छन्
नन्ननैकान्त्यात् सहदेवस्तदाब्रवीत् ॥ १८ ॥
अर्हति ह्यच्युतः
श्रैष्ठ्यं भगवान्सात्वतां पतिः ।
एष वै देवताः सर्वा
देशकालधनादयः ॥ १९ ॥
यस् आत्मकमिदं
विश्वं क्रतवश्च यदात्मकाः ।
अग्निराहुतयो
मंत्राः साङ्ख्यं योगश्च यत्परः ॥ २० ॥
एक एवाद्वितीयोऽसौ
अवैतदात्म्यमिदं जगत् ।
आत्मनात्माश्रयः
सभ्याः सृजत्यवति हन्त्यजः ॥ २१ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! धर्मराज
युधिष्ठिर जरासन्धका वध और सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्णकी अद्भुत महिमा सुनकर
बहुत प्रसन्न हुए और उनसे बोले ॥ १ ॥
धर्मराज
युधिष्ठिरने कहा—सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण
! त्रिलोकी के स्वामी ब्रह्मा, शङ्कर आदि और इन्द्रादि
लोकपाल—सब आपकी आज्ञा पानेके लिये तरसते रहते हैं और यदि वह
मिल जाती है तो बड़ी श्रद्धासे उसको शिरोधार्य करते हैं ॥ २ ॥ अनन्त ! हमलोग हैं
तो अत्यन्त दीन, परन्तु मानते हैं अपनेको भूपति और नरपति।
ऐसी स्थितिमें हैं तो हम दण्डके पात्र, परन्तु आप हमारी
आज्ञा स्वीकार करते हैं और उसका पालन करते हैं। सर्वशक्तिमान् कमलनयन भगवान्के
लिये यह मनुष्य-लीलाका अभिनयमात्र है ॥ ३ ॥ जैसे उदय अथवा अस्तके कारण सूर्यके
तेजमें घटती या बढ़ती नहीं होती, वैसे ही किसी भी प्रकारके
कर्मोंसे न तो आपका उल्लास होता है और न तो ह्रास ही। क्योंकि आप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेदसे रहित स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं ॥ ४ ॥ किसीसे
पराजित न होनेवाले माधव ! ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है तथा यह
तू है और यह तेरा’—इस प्रकारकी विकारयुक्त भेदबुद्धि तो
पशुओंकी होती है। जो आपके अनन्य भक्त हैं, उनके चित्तमें ऐसे
पागलपनके विचार कभी नहीं आते। फिर आपमें तो होंगे ही कहाँसे ? (इसलिये आप जो कुछ कर रहे हैं, वह लीला-ही-लीला है) ॥
५ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! इस प्रकार कहकर
धर्मराज युधिष्ठिरने भगवान् श्रीकृष्णकी अनुमतिसे यज्ञके योग्य समय आनेपर यज्ञके
कर्मोंमें निपुण वेदवादी ब्राह्मणोंको ऋत्विज्, आचार्य आदिके
रूपमें वरण किया ॥ ६ ॥ उनके नाम ये हैं—श्रीकृष्णद्वैपायनव्यासदेव,
भरद्वाज, सुमन्तु, गौतम,
असित, वसिष्ठ, च्यवन,
कण्व, मैत्रेय, कवष,
त्रित, विश्वामित्र, वामदेव,
सुमति, जैमिनि, क्रतु,
पैल, पराशर, गर्ग,
वैशम्पायन, अथर्वा, कश्यप,
धौम्य, परशुराम, शुक्राचार्य,
आसुरि, वीतिहोत्र, मधुच्छन्दा,
वीरसेन और अकृतव्रण ॥ ७-९ ॥ इनके अतिरिक्त धर्मराजने द्रोणाचार्य,
भीष्मपितामह, कृपाचार्य, धृतराष्ट्र और उनके दुर्योधन आदि पुत्रों और महामति विदुर आदिको भी
बुलवाया ॥ १० ॥ राजन् ! राजसूय यज्ञका दर्शन करनेके लिये देशके सब राजा, उनके मन्त्री तथा कर्मचारी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र—सब-के-सब वहाँ आये ॥ ११ ॥
इसके बाद
ऋत्विज् ब्राह्मणोंने सोनेके हलोंसे यज्ञभूमिको जुतवाकर राजा युधिष्ठिरको
शास्त्रानुसार यज्ञकी दीक्षा दी ॥ १२ ॥ प्राचीन कालमें जैसे वरुणदेवके यज्ञमें
सब-के-सब यज्ञपात्र सोनेके बने हुए थे,
वैसे ही युधिष्ठिरके यज्ञमें भी थे। पाण्डुनन्दन महाराज युधिष्ठिरके
यज्ञमें निमन्त्रण पाकर ब्रह्माजी, शङ्करजी, इन्द्रादि लोकपाल, अपने गणोंके साथ सिद्ध और गन्धर्व,
विद्याधर, नाग, मुनि,
यक्ष, राक्षस, पक्षी,
किन्नर, चारण, बड़े-बड़े
राजा और रानियाँ—ये सभी उपस्थित हुए ॥ १३—१५ ॥ सबने बिना किसी प्रकारके कौतूहलके यह बात मान ली कि राजसूय यज्ञ करना
युधिष्ठिरके योग्य ही है; क्योंकि भगवान् श्रीकृष्णके
भक्तके लिये ऐसा करना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। उस समय देवताओंके समान तेजस्वी
याजकोंने धर्मराज युधिष्ठिरसे विधिपूर्वक राजसूय यज्ञ कराया; ठीक वैसे ही, जैसे पूर्वकालमें देवताओंने वरुणसे
करवाया था ॥ १६ ॥ सोमलतासे रस निकालनेके दिन महाराज युधिष्ठिरने अपने परम
भाग्यवान् याजकों और यज्ञकर्मकी भूल-चूकका निरीक्षण करनेवाले सदसस्पतियोंका बड़ी
सावधानीसे विधिपूर्वक पूजन किया ॥ १७ ॥
अब सभासद् लोग
इस विषयपर विचार करने लगे कि सदस्योंमें सबसे पहले किसकी पूजा— अग्रपूजा होनी चाहिये। जितनी मति, उतने मत। इसलिये सर्वसम्मतिसे कोई निर्णय न हो सका। ऐसी स्थितिमें सहदेवने
कहा— ॥ १८ ॥ ‘यदुवंशशिरोमणि भक्तवत्सल
भगवान् श्रीकृष्ण ही सदस्योंमें सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजाके पात्र हैं; क्योंकि यही समस्त देवताओंके रूपमें हैं; और देश,
काल, धन आदि जितनी भी वस्तुएँ हैं, उन सबके रूपमें भी ये ही हैं ॥ १९ ॥ यह सारा विश्व श्रीकृष्णका ही रूप है।
समस्त यज्ञ भी श्रीकृष्णस्वरूप ही हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ही अग्रि, आहुति और मन्त्रोंके रूपमें हैं। ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग—ये दोनों भी श्रीकृष्णकी प्राप्तिके ही हेतु हैं ॥ २० ॥ सभासदो ! मैं
कहाँतक वर्णन करूँ, भगवान् श्रीकृष्ण वह एकरस अद्वितीय
ब्रह्म हैं, जिसमें सजातीय, विजातीय और
स्वगतभेद नाममात्रका भी नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् उन्हींका स्वरूप है। वे
अपने-आपमें ही स्थित और जन्म, अस्तित्व, वृद्धि आदि छ: भावविकारोंसे रहित हैं। वे अपने आत्मस्वरूप सङ्कल्प से ही
जगत् की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं ॥ २१ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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