॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
जरासन्ध के
जेल से छूटे हुए राजाओं की विदाई
और भगवान् का
इन्द्रप्रस्थ लौट आना
श्रीशुक उवाच -
संस्तूयमानो भगवान् राजभिर्मुक्तबन्धनैः ।
तानाह करुणस्तात
शरण्यः श्लक्ष्णया गिरा ॥ १७ ॥
श्रीभगवानुवाच -
अद्य प्रभृति वो भूपा मय्यात्मन्यखिलेश्वरे ।
सुदृढा जायते
भक्तिः बाढमाशंसितं तथा ॥ १८ ॥
दिष्ट्या व्यवसितं
भूपा भवन्त ऋतभाषिणः ।
श्रीयैश्वर्यमदोन्नाहं पश्य उन्मादकं नृणाम् ॥
१९ ॥
हैहयो नहुषो वेनो
रावणो नरकोऽपरे ।
श्रीमदाद्
भ्रंशिताः स्थानाद् देवदैत्यनरेश्वराः ॥ २० ॥
भवन्त एतद्
विज्ञाय देहाद्युत्पाद्यमन्तवत् ।
मां
यजन्तोऽध्वरैर्युक्ताः प्रजा धर्मेण रक्षथ ॥ २१ ॥
संतन्वन्तः
प्रजातन्तून् सुखं दुःखं भवाभवौ ।
प्राप्तं प्राप्तं
च सेवन्तो मच्चित्ता विचरिष्यथ ॥ २२ ॥
उदासीनाश्च देहादौ
आत्मारामा धृतव्रताः ।
मय्यावेश्य मनः
सम्यङ् मां अन्ते ब्रह्म यास्यथ ॥ २३ ॥
श्रीशुक उवाच -
इत्यादिश्य नृपान् कृष्णो भगवान् भुवनेश्वरः ।
तेषां न्ययुङ्क्त
पुरुषान् स्त्रियो मज्जनकर्मणि ॥ २४ ॥
सपर्यां कारयामास
सहदेवेन भारत ।
नरदेवोचितैर्वस्त्रैः
भूषणैः स्रग्विलेपनैः ॥ २५ ॥
भोजयित्वा वरान्नेन
सुस्नातान् समलङ्कृतान् ।
भोगैश्च
विविधैर्युक्तान् तांबूलाद्यैर्नृपोचितैः ॥ २६ ॥
ते पूजिता
मुकुन्देन राजानो मृष्टकुण्डलाः ।
विरेजुर्मोचिताः
क्लेशात् प्रावृडन्ते यथा ग्रहाः ॥ २७ ॥
रथान् सदश्वान्
आरोप्य मणिकाञ्चनभूषितान् ।
प्रीणय्य
सुनृतैर्वाक्यैः स्वदेशान् प्रत्ययापयत् ॥ २८ ॥
त एवं मोचिताः
कृच्छ्रात् कृष्णेन सुमहात्मना ।
ययुस्तमेव
ध्यायन्तः कृतानि च जगत्पतेः ॥ २९ ॥
जगदुः
प्रकृतिभ्यस्ते महापुरुषचेष्टितम् ।
यथान्वशासद्
भगवान् तथा चक्रुरतन्द्रिताः ॥ ३० ॥
जरासन्धं घातयित्वा
भीमसेनेन केशवः ।
पार्थाभ्यां संयुतः
प्रायात् सहदेवेन पूजितः ॥ ३१ ॥
गत्वा ते
खाण्डवप्रस्थं शङ्खान् दध्मुर्जितारयः ।
हर्षयन्तः
स्वसुहृदो दुर्हृदां चासुखावहाः ॥ ३२ ॥
तच्छ्रुत्वा
प्रीतमनस इन्द्रप्रस्थनिवासिनः ।
मेनिरे मागधं
शान्तं राजा चाप्तमनोरथः ॥ ३३ ॥
अभिवन्द्याथ राजानं
भीमार्जुनजनार्दनाः ।
सर्वमाश्रावयां
चक्रुः आत्मना यदनुष्ठितम् ॥ ३४ ॥
निशम्य
धर्मराजस्तत् केशवेनानुकम्पितम् ।
आनन्दाश्रुकलां
मुञ्चन् प्रेम्णा नोवाच किञ्चन ॥ ३५ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! कारागारसे मुक्त
राजाओंने जब इस प्रकार करुणावरुणालय भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति की, तब शरणागतरक्षक प्रभु ने बड़ी मधुर वाणीसे उनसे कहा ॥१७॥
भगवान्
श्रीकृष्णने कहा—नरपतियो ! तुमलोगोंने जैसी
इच्छा प्रकट की है, उसके अनुसार आजसे मुझमें तुम लोगोंकी
निश्चय ही सुदृढ़ भक्ति होगी। यह जान लो कि मैं सबका आत्मा और सबका स्वामी हूँ ॥
१८ ॥ नरपतियो ! तुमलोगोंने जो निश्चय किया है, वह सचमुच
तुम्हारे लिये बड़े सौभाग्य और आनन्दकी बात है। तुमलोगों ने मुझसे जो कुछ कहा है,
वह बिलकुल ठीक है। क्योंकि मैं देखता हूँ, धन-सम्पत्ति
और ऐश्वर्यके मदसे चूर होकर बहुत-से लोग उच्छृङ्खल और मतवाले हो जाते हैं ॥ १९ ॥
हैहय, नहुष, वेन, रावण, नरकासुर आदि अनेकों देवता, दैत्य और नरपति श्रीमद के कारण अपने स्थानसे, पदसे
च्युत हो गये ॥ २० ॥ तुमलोग यह समझ लो कि शरीर और इसके सम्बन्धी पैदा होते हैं,
इसलिये उनका नाश भी अवश्यम्भावी है। अत: उनमें आसक्ति मत करो। बड़ी
सावधानीसे मन और इन्द्रियोंको वशमें रखकर यज्ञोंके द्वारा मेरा यजन करो और
धर्मपूर्वक प्रजाकी रक्षा करो ॥ २१ ॥ तुमलोग अपनी वंश-परम्पराकी रक्षाके लिये,
भोगके लिये नहीं, सन्तान उत्पन्न करो और
प्रारब्धके अनुसार जन्म-मृत्यु, सुख-दु:ख, लाभ-हानि—जो कुछ भी प्राप्त हों, उन्हें समानभावसे मेरा प्रसाद समझकर सेवन करो और अपना चित्त मुझमें लगाकर
जीवन बिताओ ॥ २२ ॥ देह और देहके सम्बन्धियोंसे किसी प्रकारकी आसक्ति न रखकर उदासीन
रहो; अपने-आपमें, आत्मामें ही रमण करो
और भजन तथा आश्रमके योग्य व्रतोंका पालन करते रहो। अपना मन भलीभाँति मुझमें लगाकर
अन्तमें तुमलोग मुझ ब्रह्मस्वरूपको ही प्राप्त हो जाओगे ॥ २३ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! भुवनेश्वर
भगवान् श्रीकृष्णने राजाओंको यह आदेश देकर उन्हें स्नान आदि करानेके लिये बहुत-से
स्त्री-पुरुष नियुक्त कर दिये ॥ २४ ॥ परीक्षित् ! जरासन्ध के पुत्र सहदेवसे उनको
राजोचित वस्त्र-आभूषण, माला-चन्दन आदि दिलवाकर उनका खूब
सम्मान करवाया ॥ २५ ॥ जब वे स्नान करके वस्त्राभूषणसे सुसज्जित हो चुके, तब भगवान्ने उन्हें उत्तम उत्तम पदार्थोंका भोजन करवाया और पान आदि विविध
प्रकारके राजोचित भोग दिलवाये ॥ २६ ॥ भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार उन बंदी
राजाओंको सम्मानित किया। अब वे समस्त क्लेशोंसे छुटकारा पाकर तथा कानोंमें
झिलमिलाते हुए सुन्दर-सुन्दर कुण्डल पहनकर ऐसे शोभायमान हुए, जैसे वर्षाऋतुका अन्त हो जानेपर तारे ॥ २७ ॥ फिर भगवान् श्रीकृष्णने
उन्हें सुवर्ण और मणियोंसे भूषित एवं श्रेष्ठ घोड़ोंसे युक्त रथोंपर चढ़ाया,
मधुर वाणीसे तृप्त किया और फिर उन्हें उनके देशोंको भेज दिया ॥ २८ ॥
इस प्रकार उदारशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णने उन राजाओंको महान् कष्टसे मुक्त किया।
अब वे जगत्पति भगवान् श्रीकृष्णके रूप, गुण और लीलाओंका
चिन्तन करते हुए अपनी-अपनी राजधानीको चले गये ॥ २९ ॥ वहाँ जाकर उन लोगोंने
अपनी-अपनी प्रजासे परमपुरुष भगवान् श्रीकृष्णकी अद्भुत कृपा और लीला कह सुनायी और
फिर बड़ी सावधानीसे भगवान्के आज्ञानुसार वे अपना जीवन व्यतीत करने लगे ॥ ३० ॥
परीक्षित् !
इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण भीमसेनके द्वारा जरासन्धका वध करवाकर भीमसेन और
अर्जुनके साथ जरासन्धनन्दन सहदेवसे सम्मानित होकर इन्द्रप्रस्थके लिये चले। उन
विजयी वीरोंने इन्द्रप्रस्थके पास पहुँचकर अपने-अपने शङ्ख बजाये, जिससे उनके इष्टमित्रोंको सुख और शत्रुओंको
बड़ा दु:ख हुआ ॥ ३१-३२ ॥ इन्द्रप्रस्थनिवासियोंका मन उस शङ्खध्वनिको सुनकर खिल
उठा। उन्होंने समझ लिया कि जरासन्ध मर गया और अब राजा युधिष्ठिरका राजसूय यज्ञ
करनेका सङ्कल्प एक प्रकारसे पूरा हो गया ॥ ३३ ॥ भीमसेन, अर्जुन
और भगवान् श्रीकृष्णने राजा युधिष्ठिरकी वन्दना की और वह सब कृत्य कह सुनाया,
जो उन्हें जरासन्धके वधके लिये करना पड़ा था ॥ ३४ ॥ धर्मराज
युधिष्ठिर भगवान् श्रीकृष्णके इस परम अनुग्र हकी बात सुनकर प्रेमसे भर गये,
उनके नेत्रोंसे आनन्दके आँसुओंकी बूँदें टपकने लगीं और वे उनसे कुछ
भी कह न सके ॥ ३५ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे कृष्णाद्यागमने नाम
त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७३ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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