॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अट्ठावनवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
भगवान्
श्रीकृष्णके अन्यान्य विवाहों की कथा
श्रीशुक उवाच
एकदा पाण्डवान्द्रष्टुं प्रतीतान्पुरुषोत्तमः
इन्द्रप्रस्थं गतः श्रीमान्युयुधानादिभिर्वृतः १
दृष्ट्वा तमागतं पार्था मुकुन्दमखिलेश्वरम्
उत्तस्थुर्युगपद्वीराः प्राणा मुख्यमिवागतम् २
परिष्वज्याच्युतं वीरा अङ्गसङ्गहतैनसः
सानुरागस्मितं वक्त्रं वीक्ष्य तस्य मुदं ययुः ३
युधिष्ठिरस्य भीमस्य कृत्वा पादाभिवन्दनम्
फाल्गुनं परिरभ्याथ यमाभ्यां चाभिवन्दितः ४
परमासन आसीनं कृष्णा कृष्णमनिन्दिता
नवोढा व्रीडिता किञ्चिच्छनैरेत्याभ्यवन्दत ५
तथैव सात्यकिः पार्थैः पूजितश्चाभिवन्दितः
निषसादासनेऽन्ये च पूजिताः पर्युपासत ६
पृथाम्समागत्य कृताभिवादन-
स्तयातिहार्दार्द्र दृशाभिरम्भितः
आपृष्टवांस्तां कुशलं सहस्नुषां
पितृष्वसारम्परिपृष्टबान्धवः ७
तमाह प्रेमवैक्लव्य रुद्धकण्ठाश्रुलोचना
स्मरन्ती तान्बहून्क्लेशान्क्लेशापायात्मदर्शनम् ८
तदैव कुशलं नोऽभूत्सनाथास्ते कृता वयम्
ज्ञातीन्नः स्मरता कृष्ण भ्राता मे प्रेषितस्त्वया ९
न तेऽस्ति स्वपरभ्रान्तिर्विश्वस्य सुहृदात्मनः
तथापि स्मरतां शश्वत्क्लेशान्हंसि हृदि स्थितः १०
युधिष्ठिर उवाच
किं न आचरितं श्रेयो न वेदाहमधीश्वर
योगेश्वराणां दुर्दर्शो यन्नो दृष्टः कुमेधसाम् ११
इति वै वार्षिकान्मासान्राज्ञा सोऽभ्यर्थितः सुखम्
जनयन्नयनानन्दमिन्द्रप्रस्थौकसां विभुः १२
एकदा रथमारुह्य विजयो वानरध्वजम्
गाण्डीवं धनुरादाय तूणौ चाक्षयसायकौ १३
साकं कृष्णेन सन्नद्धो विहर्तुं विपिनं महत्
बहुव्यालमृगाकीर्णं प्राविशत्परवीरहा १४
तत्राविध्यच्छरैर्व्याघ्रान्शूकरान्महिषान्रुरून्
शरभान्गवयान्खड्गान्हरिणान्शशशल्लकान् १५
तान्निन्युः किङ्करा राज्ञे मेध्यान्पर्वण्युपागते
तृट्परीतः परिश्रान्तो बिभत्सुर्यमुनामगात् १६
तत्रोपस्पृश्य विशदं पीत्वा वारि महारथौ
कृष्णौ ददृशतुः कन्यां चरन्तीं चारुदर्शनाम् १७
तामासाद्य वरारोहां सुद्विजां रुचिराननाम्
पप्रच्छ प्रेषितः सख्या फाल्गुनः प्रमदोत्तमाम् १८
का त्वं कस्यासि सुश्रोणि कुतो वा किं चिकीर्षसि
मन्ये त्वां पतिमिच्छन्तीं सर्वं कथय शोभने १९
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! अब पाण्डवोंका
पता चल गया था कि वे लाक्षाभवन में जले नहीं हैं। एक बार भगवान् श्रीकृष्ण उनसे
मिलनेके लिये इन्द्रप्रस्थ पधारे। उनके साथ सात्यकि आदि बहुत-से यदुवंशी भी थे ।।
१ ।। जब वीर पाण्डवोंने देखा कि सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण पधारे हैं तो जैसे
प्राणका सञ्चार होनेपर सभी इन्द्रियाँ सचेत हो जाती हैं, वैसे
ही वे सब-के-सब एक साथ उठ खड़े हुए ।। २ ।। वीर पाण्डवोंने भगवान् श्रीकृष्णका
आलिङ्गन किया, उनके अङ्ग-सङ्ग से इनके सारे पाप-ताप धुल गये।
भगवान्की प्रेमभरी मुसकराहटसे सुशोभित मुख-सुषमा देखकर वे आनन्दमें मग्र हो गये
।। ३ ।। भगवान् श्रीकृष्णने युधिष्ठिर और भीमसेनके चरणोंमें प्रणाम किया और
अर्जुनको हृदयसे लगाया। नकुल और सहदेवने भगवान् के चरणोंकी वन्दना की ।। ४ ।। जब
भगवान् श्रीकृष्ण श्रेष्ठ सिंहासनपर विराजमान हो गये; तब
परमसुन्दरी श्यामवर्णा द्रौपदी, जो नवविवाहिता होनेके कारण
तनिक लजा रही थी, धीरे-धीरे भगवान् श्रीकृष्ण के पास आयी और
उन्हें प्रणाम किया ।। ५ ।। पाण्डवोंने भगवान् श्रीकृष्ण के समान ही वीर सात्यकि का
भी स्वागत- सत्कार और अभिनन्दन-वन्दन किया। वे एक आसनपर बैठ गये। दूसरे यदुवंशियों
का भी यथायोग्य सत्कार किया गया तथा वे भी श्रीकृष्णके चारों ओर आसनोंपर बैठ गये
।। ६ ।। इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण अपनी फूआ कुन्तीके पास गये और उनके चरणोंमें
प्रणाम किया। कुन्तीजीने अत्यन्त स्नेहवश उन्हें अपने हृदयसे लगा लिया। उस समय
उनके नेत्रोंमें प्रेमके आँसू छलक आये। कुन्तीजीने श्रीकृष्णसे अपने भाई-बन्धुओंकी
कुशल-क्षेम पूछी और भगवान् ने भी उनका यथोचित उत्तर देकर उनसे उनकी पुत्रवधू
द्रौपदी और स्वयं उनका कुशल-मङ्गल पूछा ।। ७ ।। उस समय प्रेमकी विह्वलतासे
कुन्तीजीका गला रुँध गया था, नेत्रोंसे आँसू बह रहे थे।
भगवान् के पूछनेपर उन्हें अपने पहलेके कलेश-पर-कलेश याद आने लगे और वे अपनेको
बहुत सँभालकर, जिनका दर्शन समस्त कलेशोंका अन्त करनेके लिये
ही हुआ करता है, उन भगवान् श्रीकृष्णसे कहने लगीं— ।। ८ ।। ‘श्रीकृष्ण ! जिस समय तुमने हमलोगोंको अपना
कुटुम्बी, सम्बन्धी समझकर स्मरण किया और हमारा कुशल-मङ्गल
जाननेके लिये भाई अक्रूरको भेजा, उसी समय हमारा कल्याण हो
गया, हम अनाथोंको तुमने सनाथ कर दिया ।। ९ ।। मैं जानती हूँ
कि तुम सम्पूर्ण जगत्के परम हितैषी सुहृद् और आत्मा हो। यह अपना है और यह पराया,
इस प्रकारकी भ्रान्ति तुम्हारे अंदर नहीं है। ऐसा होनेपर भी,
श्रीकृष्ण ! जो सदा तुम्हें स्मरण करते हैं, उनके
हृदयमें आकर तुम बैठ जाते हो और उनकी कलेश-परम्पराको सदाके लिये मिटा देते हो’
।। १० ।।
युधिष्ठिरजीने
कहा—‘सर्वेश्वर श्रीकृष्ण ! हमें
इस बातका पता नहीं है कि हमने अपने पूर्वजन्मोंमें या इस जन्ममें कौन-सा
कल्याण-साधन किया है ? आपका दर्शन बड़े-बड़े योगेश्वर भी
बड़ी कठिनतासे प्राप्त कर पाते हैं और हम कुबुद्धियोंको घर बैठे ही आपके दर्शन हो
रहे हैं’ ।। ११ ।। राजा युधिष्ठिरने इस प्रकार भगवान् का
खूब सम्मान किया और कुछ दिन वहीं रहनेकी प्रार्थना की। इसपर भगवान् श्रीकृष्ण
इन्द्रप्रस्थके नर-नारियोंको अपनी रूपमाधुरीसे नयनानन्दका दान करते हुए बरसातके
चार महीनोंतक सुखपूर्वक वहीं रहे ।। १२ ।। परीक्षित् ! एक बार वीरशिरोमणि
अर्जुनने गाण्डीव धनुष और अक्षय बाणवाले दो तरकस लिये तथा भगवान् श्रीकृष्णके साथ
कवच पहनकर अपने उस रथपर सवार हुए, जिसपर वानर-चिह्नसे
चिह्नित ध्वजा लगी हुई थी। इसके बाद विपक्षी वीरोंका नाश करनेवाले अर्जुन उस गहन
वनमें शिकार खेलने गये, जो बहुतसे ङ्क्षसह, बाघ आदि भयङ्कर जानवरोंसे भरा हुआ था ।। १३-१४ ।। वहाँ उन्होंने बहुतसे
बाघ, सूअर, भैंसे, काले हरिन, शरभ, गवय (नीलापन
लिये हुए भूरे रंगका एक बड़ा हिरन), गैंडे, हरिन, खरगोश और शल्लक (साही) आद पशुओंपर अपने
बाणोंका निशाना लगाया ।। १५ ।। उनमेंसे जो यज्ञके योग्य थे, उन्हें
सेवकगण पर्वका समय जानकर राजा युधिष्ठिरके पास ले गये। अर्जुन शिकार खेलते-खेलते
थक गये थे। अब वे प्यास लगनेपर यमुनाजीके किनारे गये ।। १६ ।। भगवान् श्रीकृष्ण
और अर्जुन दोनों महारथियोंने यमुनाजीमें हाथ-पैर धोकर उनका निर्मल जल पिया और देखा
कि एक परमसुन्दरी कन्या वहाँ तपस्या कर रही है ।। १७ ।। उस श्रेष्ठ सुन्दरीकी जंघा,
दाँत और मुख अत्यन्त सुन्दर थे। अपने प्रिय मित्र श्रीकृष्णके
भेजनेपर अर्जुनने उसके पास जाकर पूछा— ।। १८ ।। ‘सुन्दरी ! तुम कौन हो ? किसकी पुत्री हो ? कहाँसे आयी हो ? और क्या करना चाहती हो ? मैं ऐसा समझता हूँ कि तुम अपने योग्य पति चाह रही हो। हे कल्याणि ! तुम
अपनी सारी बात बतलाओ’ ।। १९ ।।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
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