॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तावनवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
स्यमन्तक-हरण, शतधन्वा का उद्धार और अक्रूरजी को फिर से
द्वारका बुलाना
गरुडध्वजमारुह्य रथं रामजनार्दनौ
अन्वयातां महावेगैरश्वै राजन्गुरुद्रुहम् १९
मिथिलायामुपवने विसृज्य पतितं हयम्
पद्भ्यामधावत्सन्त्रस्तः कृष्णोऽप्यन्वद्रवद्रुषा २०
पदातेर्भगवांस्तस्य पदातिस्तिग्मनेमिना
चक्रेण शिर उत्कृत्य वाससोर्व्यचिनोन्मणिम् २१
अलब्धमणिरागत्य कृष्ण आहाग्रजान्तिकम्
वृथा हतः शतधनुर्मणिस्तत्र न विद्यते २२
तत आह बलो नूनं स मणिः शतधन्वना
कस्मिंश्चित्पुरुषे न्यस्तस्तमन्वेष पुरं व्रज २३
अहं वैदेहमिच्छामि द्रष्टुं प्रियतमं मम
इत्युक्त्वा मिथिलां राजन्विवेश यदुनन्दनः २४
तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय मैथिलः प्रीतमानसः
अर्हयां आस विधिवदर्हणीयं समर्हणैः २५
उवास तस्यां कतिचिन्मिथिलायां समा विभुः
मानितः प्रीतियुक्तेन जनकेन महात्मना
ततोऽशिक्षद्गदां काले धार्तराष्ट्रः सुयोधनः २६
केशवो द्वारकामेत्य निधनं शतधन्वनः
अप्राप्तिं च मणेः प्राह प्रियायाः प्रियकृद्विभुः २७
ततः स कारयामास क्रिया बन्धोर्हतस्य वै
साकं सुहृद्भिर्भगवान्या याः स्युः साम्परायिकीः २८
अक्रूरः कृतवर्मा च श्रुत्वा शतधनोर्वधम्
व्यूषतुर्भयवित्रस्तौ द्वारकायाः प्रयोजकौ २९
अक्रूरे प्रोषितेऽरिष्टान्यासन्वै द्वारकौकसाम्
शारीरा मानसास्तापा मुहुर्दैविकभौतिकाः ३०
इत्यङ्गोपदिशन्त्येके विस्मृत्य प्रागुदाहृतम्
मुनिवासनिवासे किं घटेतारिष्टदर्शनम् ३१
देवेऽवर्षति काशीशः श्वफल्कायागताय वै
स्वसुतां गान्दिनीं प्रादात्ततोऽवर्षत्स्म काशिषु ३२
तत्सुतस्तत्प्रभावोऽसावक्रूरो यत्र यत्र ह
देवोऽभिवर्षते तत्र नोपतापा न मारिकाः ३३
इति वृद्धवचः श्रुत्वा नैतावदिह कारणम्
इति मत्वा समानाय्य प्राहाक्रूरं जनार्दनः ३४
पूजयित्वाभिभाष्यैनं कथयित्वा प्रियाः कथाः
विज्ञताखिलचित्तज्ञः स्मयमान उवाच ह ३५
ननु दानपते न्यस्तस्त्वय्यास्ते शतधन्वना
स्यमन्तको मणिः श्रीमान्विदितः पूर्वमेव नः ३६
सत्राजितोऽनपत्यत्वाद्गृह्णीयुर्दुहितुः सुताः
दायं निनीयापः पिण्डान्विमुच्यर्णं च शेषितम् ३७
तथापि दुर्धरस्त्वन्यैस्त्वय्यास्तां सुव्रते मणिः
किन्तु मामग्रजः सम्यङ्न प्रत्येति मणिं प्रति ३८
दर्शयस्व महाभाग बन्धूनां शान्तिमावह
अव्युच्छिन्ना मखास्तेऽद्य वर्तन्ते रुक्मवेदयः ३९
एवं सामभिरालब्धः श्वफल्कतनयो मणिम्
आदाय वाससाच्छन्नः ददौ सूर्यसमप्रभम् ४०
स्यमन्तकं दर्शयित्वा ज्ञातिभ्यो रज आत्मनः
विमृज्य मणिना भूयस्तस्मै प्रत्यर्पयत्प्रभुः ४१
यस्त्वेतद्भगवत ईश्वरस्य विष्णोर्
वीर्याढ्यं वृजिनहरं सुमङ्गलं च
आख्यानं पठति शृणोत्यनुस्मरेद्वा
दुष्कीर्तिं दुरितमपोह्य याति शान्तिम् ४२
परीक्षित् !
भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई अपने उस रथपर सवार हुए, जिसपर गरुड़चिह्न से चिह्नित ध्वजा फहरा
रही थी और बड़े वेगवाले घोड़े जुते हुए थे। अब उन्होंने अपने श्वशुर सत्राजित् को
मारनेवाले शतधन्वा का पीछा किया ।। १९ ।। मिथिलापुरीके निकट एक उपवनमें शतधन्वा का
घोड़ा गिर पड़ा, अब वह उसे छोडक़र पैदल ही भागा। वह अत्यन्त
भयभीत हो गया था। भगवान् श्रीकृष्ण भी क्रोध करके उसके पीछे दौड़े ।। २० ।।
शतधन्वा पैदल ही भाग रहा था, इसलिये भगवान्ने भी पैदल ही
दौडक़र अपने तीक्ष्ण धारवाले चक्रसे उसका सिर उतार लिया और उसके वस्त्रोंमें
स्यमन्तकमणिको ढूँढ़ा ।। २१ ।। परंतु जब मणि मिली नहीं तब भगवान् श्रीकृष्णने
बड़े भाई बलरामजीके पास आकर कहा—‘हमने शतधन्वाको व्यर्थ ही
मारा। क्योंकि उसके पास स्यमन्तकमणि तो है ही नहीं’ ।। २२ ।।
बलरामजीने कहा—‘इसमें सन्देह नहीं कि शतधन्वाने
स्यमन्तकमणिको किसी-न-किसीके पास रख दिया है। अब तुम द्वारका जाओ और उसका पता लगाओ
।। २३ ।। मैं विदेहराजसे मिलना चाहता हूँ; क्योंकि वे मेरे
बहुत ही प्रिय मित्र हैं।’ परीक्षित् ! यह कहकर
यदुवंशशिरोमणि बलरामजी मिथिला नगरीमें चले गये ।। २४ ।। जब मिथिलानरेशने देखा कि
पूजनीय बलरामजी महाराज पधारे हैं, तब उनका हृदय आनन्दसे भर
गया। उन्होंने झटपट अपने आसनसे उठकर अनेक सामग्रियोंसे उनकी पूजा की ।। २५ ।। इसके
बाद भगवान् बलरामजी कई वर्षोंतक मिथिलापुरीमें ही रहे। महात्मा जनकने बड़े प्रेम
और सम्मानसे उन्हें रखा। इसके बाद समयपर धृतराष्ट्रके पुत्र दुर्योधनने बलरामजीसे
गदायुद्धकी शिक्षा ग्रहण की ।। २६ ।। अपनी प्रिया सत्यभामाका प्रिय कार्य करके
भगवान् श्रीकृष्ण द्वारका लौट आये और उनको यह समाचार सुना दिया कि शतधन्वाको मार
डाला गया, परंतु स्यमन्तकमणि उसके पास न मिली ।। २७ ।। इसके
बाद उन्होंने भाई-बन्धुओंके साथ अपने श्वशुर सत्राजित्की वे सब औध्र्वदैहिक
क्रियाएँ करवायीं, जिनसे मृतक प्राणीका परलोक सुधरता है ।।
२८ ।।
अक्रूर और
कृतवर्माने शतधन्वाको सत्राजित्के वधके लिये उत्तेजित किया था। इसलिये जब उन्होंने
सुना कि भगवान् श्रीकृष्णने शतधन्वाको मार डाला है, तब वे अत्यन्त भयभीत होकर द्वारकासे भाग खड़े हुए ।। २९ ।।
परीक्षित् ! कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि अक्रूरके द्वारकासे चले जानेपर
द्वारका-वासियोंको बहुत प्रकारके अनिष्टों और अरिष्टोंका सामना करना पड़ा। दैविक
और भौतिक निमित्तोंसे बार-बार वहाँके नागरिकोंको शारीरिक और मानसिक कष्ट सहना
पड़ा। परंतु जो लोग ऐसा कहते हैं, वे पहले कही हुई बातोंको
भूल जाते हैं। भला, यह भी कभी सम्भव है कि जिन भगवान्
श्रीकृष्णमें समस्त ऋषि-मुनि निवास करते हैं, उनके
निवासस्थान द्वारकामें उनके रहते कोई उपद्रव खड़ा हो जाय ।। ३०-३१ ।। उस समय नगरके
बड़े-बूढ़े लोगोंने कहा—‘एक बार काशी-नरेशके राज्यमें वर्षा
नहीं हो रही थी, सूखा पड़ गया था। तब उन्होंने अपने राज्यमें
आये हुए अक्रूरके पिता श्वफल्कको अपनी पुत्री गान्दिनी ब्याह दी। तब उस प्रदेशमें
वर्षा हुई। अक्रूर भी श्वफल्कके ही पुत्र हैं और इनका प्रभाव भी वैसा ही है।
इसलिये जहाँ-जहाँ अक्रूर रहते हैं, वहाँ-वहाँ खूब वर्षा होती
है तथा किसी प्रकारका कष्ट और महामारी आदि उपद्रव नहीं होते।’ परीक्षित् ! उन लोगोंकी बात सुनकर भगवान्ने सोचा कि ‘इस उपद्रवका यही कारण नहीं है, यह जानकर भी भगवान् ने
दूत भेजकर अक्रूरजी को ढुँढ़वाया और आनेपर उनसे बातचीत की ।। ३२—३४ ।। भगवान् ने उनका खूब स्वागत-सत्कार किया और मीठी-मीठी प्रेमकी बातें
कहकर उनसे सम्भाषण किया। परीक्षित् ! भगवान् सबके चित्तका एक-एक संकल्प देखते
रहते हैं। इसलिये उन्होंने मुसकराते हुए अक्रूरसे कहा— ।। ३५
।। ‘चाचाजी ! आप दान-धर्मके पालक हैं। हमें यह बात पहलेसे ही
मालूम है कि शतधन्वा आपके पास वह स्यमन्तकमणि छोड़ गया है, जो
बड़ी ही प्रकाशमान और धन देनेवाली है ।। ३६ ।। आप जानते ही हैं कि सत्राजित् के
कोई पुत्र नहीं है। इसलिये उनकी लडक़ी के लडक़े—उनके नाती ही
उन्हें तिलाञ्जलि और पिण्डदान करेंगे, उनका ऋण चुकायेंगे और
जो कुछ बच रहेगा, उसके उत्तराधिकारी होंगे ।। ३७ ।। इस
प्रकार शास्त्रीय दृष्टिसे यद्यपि स्यमन्तकमणि हमारे पुत्रोंको ही मिलनी चाहिये,
तथापि वह मणि आपके ही पास रहे। क्योंकि आप बड़े व्रतनिष्ठ और
पवित्रात्मा हैं तथा दूसरोंके लिये उस मणिको रखना अत्यन्त कठिन भी है। परंतु हमारे
सामने एक बहुत बड़ी कठिनाई यह आ गयी है कि हमारे बड़े भाई बलरामजी मणिके
सम्बन्धमें मेरी बातका पूरा विश्वास नहीं करते ।। ३८ ।। इसलिये महाभाग्यवान्
अक्रूरजी ! आप वह मणि दिखाकर हमारे इष्टमित्र—बलरामजी,
सत्यभामा और जाम्बवतीका सन्देह दूर कर दीजिये और उनके हृदयमें
शान्तिका सञ्चार कीजिये। हमें पता है कि उसी मणिके प्रतापसे आजकल आप लगातार ही ऐसे
यज्ञ करते रहते हैं, जिनमें सोनेकी वेदियाँ बनती हैं’
।। ३९ ।। परीक्षित् ! जब भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार सान्त्वना
देकर उन्हें समझाया-बुझाया, तब अक्रूरजीने वस्त्रमें लपेटी
हुई सूर्यके समान प्रकाशमान वह मणि निकाली और भगवान् श्रीकृष्णको दे दी ।। ४० ।।
भगवान् श्रीकृष्णने वह स्यमन्तकमणि अपने जाति-भाइयोंको दिखाकर अपना कलङ्क दूर
किया और उसे अपने पास रखनेमें समर्थ होनेपर भी पुन: अक्रूरजीको लौटा दिया ।। ४१ ।।
सर्वशक्तिमान्
सर्वव्यापक भगवान् श्रीकृष्णके पराक्रमोंसे परिपूर्ण यह आख्यान समस्त पापों, अपराधों और कलङ्कोंका मार्जन करनेवाला तथा
परम मङ्गलमय है। जो इसे पढ़ता, सुनता अथवा स्मरण करता है,
वह सब प्रकार की अपकीर्ति और पापोंसे छूटकर शान्ति का अनुभव करता है
।। ४२ ।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे स्यमन्तकोपाख्याने
सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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