॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
भगवान्
श्रीकृष्णके साथ बाणासुरका युद्ध
ज्वर उवाच -
नमामि त्वानन्तशक्तिं परेशं
सर्वात्मानं
केवलं ज्ञप्तिमात्रम् ।
विश्वोत्पत्तिस्थानसंरोधहेतुं
यत्तद् ब्रह्म
ब्रह्मलिङ्गं प्रशान्तम् ॥ २५ ॥
कालो दैवं कर्म
जीवः स्वभावो
द्रव्यं
क्षेत्रं प्राण आत्मा विकारः ।
तत्सङ्घातो
बीजरोहप्रवाहः
त्वन्मायैषा
तन्निषेधं प्रपद्ये ॥ २६ ॥
नानाभावैर्लीलयैवोपपन्नैः
देवान् साधून्
लोकसेतून्बिभर्षि ।
हंस्युन्मार्गान्
हिंसया वर्तमानान्
जन्मैतत्ते
भारहाराय भूमेः ॥ २७ ॥
तप्तोऽहं ते तेजसा
दुःसहेन
शान्तोग्रेणात्युल्बणेन ज्वरेण ।
तावत्तापो देहिनां
तेऽङ्घ्रिमूलं
नो सेवेरन्
यावदाशानुबद्धाः ॥ २८ ॥
श्रीभगवानुवाच -
त्रिशिरस्ते
प्रसन्नोऽस्मि व्येतु ते मज्ज्वराद्भयम् ।
यो नौ स्मरति
संवादं तस्य त्वन्न भवेद्भयम् ॥ २९ ॥
इत्युक्तोऽच्युतमानम्य गतो माहेश्वरो ज्वरः ।
बाणस्तु रथमारूढः
प्रागाद्योत्स्यञ्जनार्दनम् ॥ ३० ॥
ततो बाहुसहस्रेण
नानायुधधरोऽसुरः ।
मुमोच परमक्रुद्धो
बाणांश्चक्रायुधे नृप ॥ ३१ ॥
तस्यास्यतोऽस्त्राण्यसकृत् चक्रेण क्षुरनेमिना ।
चिच्छेद भगवान्बाहून्
शाखा इव वनस्पतेः ॥ ३२ ॥
बाहुषु छिद्यमानेषु
बाणस्य भगवान् भवः ।
भक्तानकम्प्युपव्रज्य चक्रायुधमभाषत ॥ ३३ ॥
श्रीरुद्र उवाच -
त्वं हि ब्रह्म परं
ज्योतिः गूढं ब्रह्मणि वाङ्मये ।
यं
पश्यन्त्यमलात्मान आकाशमिव केवलम् ॥ ३४ ॥
नाभिर्नभोऽग्निर्मुखमम्बु
रेतो
द्यौः
शीर्षमाशाः श्रुतिरङ्घ्रिरुर्वी ।
चन्द्रो मनो यस्य
दृगर्क आत्मा
अहं समुद्रो
जठरं भुजेन्द्रः ॥ ३५ ॥
रोमाणि
यस्यौषधयोऽम्बुवाहाः
केशा विरिञ्चो
धिषणा विसर्गः ।
प्रजापतिर्हृदयं
यस्य धर्मः
स वै भवान्
पुरुषो लोककल्पः ॥ ३६ ॥
तवावतारोऽयमकुण्ठधामन्
धर्मस्य
गुप्त्यै जगतो हिताय ।
वयं च सर्वे
भवतानुभाविता
विभावयामो
भुवनानि सप्त ॥ ३७ ॥
त्वमेक आद्यः
पुरुषोऽद्वितीयः
तुर्यः स्वदृग् हेतुरहेतुरीशः ।
प्रतीयसेऽथापि
यथाविकारं
स्वमायया
सर्वगुणप्रसिद्ध्यै ॥ ३८ ॥
यथैव सूर्यः
पिहितश्छायया स्वया
छायां च रूपाणि
च सञ्चकास्ति ।
एवं गुणेनापिहितो
गुणांस्त्वम्
आत्मप्रदीपो
गुणिनश्च भूमन् ॥ ३९ ॥
ज्वर ने कहा—प्रभो ! आपकी शक्ति अनन्त है। आप ब्रह्मादि
ईश्वरोंके भी परम महेश्वर हैं। आप सबके आत्मा और सर्वस्वरूप हैं। आप अद्वितीय और
केवल ज्ञानस्वरूप हैं। संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहारके
कारण आप ही हैं। श्रुतियोंके द्वारा आपका ही वर्णन और अनुमान किया जाता है। आप
समस्त विकारोंसे रहित स्वयं ब्रह्म हैं। मैं आपको प्रणाम करता हूँ ।। २५ ।। काल,
दैव (अदृष्ट), कर्म, जीव,
स्वभाव, सूक्ष्मभूत, शरीर,
सूत्रात्मा प्राण, अहंकार, एकादश इन्द्रियाँ और पञ्चभूत—इन सबका संघात
लिङ्गशरीर और बीजाङ्कुर-न्याय के अनुसार उससे कर्म और कर्मसे फिर लिङ्गशरीरकी
उत्पत्ति—यह सब आपकी माया है। आप मायाके निषेधकी परम अवधि
हैं। मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ ।। २६ ।। प्रभो ! आप अपनी लीलासे ही अनेकों रूप
धारण कर लेते हैं और देवता, साधु तथा लोकमर्यादाओंका
पालन-पोषण करते हैं। साथ ही उन्मार्गगामी और हिंसक असुरोंका संहार भी करते हैं।
आपका यह अवतार पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ही हुआ है ।। २७ ।। प्रभो ! आपके शान्त,
उग्र और अत्यन्त भयानक दुस्सह तेज ज्वरसे मैं अत्यन्त सन्तप्त हो
रहा हूँ। भगवन् ! देहधारी जीवोंको तभीतक ताप-सन्ताप रहता है, जबतक वे आशाके फंदोंमें फँसे रहनेके कारण आपके चरणकमलोंकी शरण नहीं ग्रहण
करते ।। २८ ।।
भगवान्
श्रीकृष्णने कहा—‘त्रिशिरा ! मैं तुमपर
प्रसन्न हूँ। अब तुम मेरे ज्वरसे निर्भय हो जाओ। संसारमें जो कोई हम दोनोंके
संवादका स्मरण करेगा, उसे तुमसे कोई भय न रहेगा’ ।। २९ ।। भगवान् श्रीकृष्णके इस प्रकार कहनेपर माहेश्वर ज्वर उन्हें
प्रणाम करके चला गया। तबतक बाणासुर रथपर सवार होकर भगवान् श्रीकृष्णसे युद्ध
करनेके लिये फिर आ पहुँचा ।। ३० ।। परीक्षित् ! बाणासुरने अपने हजार हाथोंमें
तरह-तरहके हथियार ले रखे थे। अब वह अत्यन्त क्रोधमें भरकर चक्रपाणि भगवान्पर
बाणोंकी वर्षा करने लगा ।। ३१ ।। जब भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि बाणासुरने तो
बाणोंकी झड़ी लगा दी है, तब वे छुरेके समान तीखी धारवाले
चक्रसे उसकी भुजाएँ काटने लगे, मानो कोई किसी वृक्षकी
छोटी-छोटी डालियाँ काट रहा हो ।। ३२ ।। जब भक्तवत्सल भगवान् शङ्करने देखा कि
बाणासुरकी भुजाएँ कट रही हैं, तब वे चक्रधारी भगवान्
श्रीकृष्णके पास आये और स्तुति करने लगे ।। ३३ ।।
भगवान्
शङ्करने कहा—प्रभो ! आप वेदमन्त्रोंमें
तात्पर्यरूपसे छिपे हुए परमज्योति:स्वरूप परब्रह्म हैं। शुद्धहृदय महात्मागण आपके
आकाशके समान सर्वव्यापक और निर्विकार (निर्लेप) स्वरूपका साक्षात्कार करते हैं ।।
३४ ।। आकाश आपकी नाभि है, अग्रि मुख है और जल वीर्य। स्वर्ग
सिर, दिशाएँ कान और पृथ्वी चरण है। चन्द्रमा मन, सूर्य नेत्र और मैं शिव आपका अहंकार हूँ। समुद्र आपका पेट है और इन्द्र
भुजा ।। ३५ ।। धान्यादि ओषधियाँ रोम हैं, मेघ केश हैं और
ब्रह्मा बुद्धि। प्रजापति लिङ्ग हैं और धर्म हृदय। इस प्रकार समस्त लोक और
लोकान्तरोंके साथ जिसके शरीरकी तुलना की जाती है, वे
परमपुरुष आप ही हैं ।। ३६ ।। अखण्ड ज्योति:स्वरूप परमात्मन् ! आपका यह अवतार
धर्मकी रक्षा और संसारके अभ्युदय—अभिवृद्धिके लिये हुआ है।
हम सब भी आपके प्रभावसे ही प्रभावान्वित होकर सातों भुवनोंका पालन करते हैं ।। ३७
।। आप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेदसे रहित हैं—एक और अद्वितीय आदिपुरुष हैं। मायाकृत जाग्रत्, स्वप्न
और सुषुप्ति—इन तीन अवस्थाओंमें अनुगत और उनसे अतीत
तुरीयतत्त्व भी आप ही हैं। आप किसी दूसरी वस्तुके द्वारा प्रकाशित नहीं होते,
स्वयंप्रकाश हैं। आप सबके कारण हैं, परंतु
आपका न तो कोई कारण है और न तो आपमें कारणपना ही है। भगवन् ! ऐसा होनेपर भी आप
तीनों गुणोंकी विभिन्न विषमताओंको प्रकाशित करनेके लिये अपनी मायासे देवता,
पशु- पक्षी, मनुष्य आदि शरीरों के अनुसार
भिन्न-भिन्न रूपोंमें प्रतीत होते हैं ।। ३८ ।। प्रभो ! जैसे सूर्य अपनी छाया बादलों
से ही ढक जाता है और उन बादलों तथा विभिन्न रूपों को प्रकाशित करता है उसी प्रकार
आप तो स्वयंप्रकाश हैं, परंतु गुणों के द्वारा मानो ढक-से
जाते हैं और समस्त गुणों तथा गुणाभिमानी जीवों को प्रकाशित करते हैं। वास्तवमें आप अनन्त हैं ।। ३९ ।।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
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