॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
भगवान्
श्रीकृष्णके साथ बाणासुरका युद्ध
श्रीशुक उवाच -
अपश्यतां चानिरुद्धं तद्बन्धूनां च भारत ।
चत्वारो वार्षिका
मासा व्यतीयुरनुशोचताम् ॥ १ ॥
नारदात्
तदुपाकर्ण्य वार्तां बद्धस्य कर्म च ।
प्रययुः शोणितपुरं
वृष्णयः कृष्णदैवताः ॥ २ ॥
प्रद्युम्नो
युयुधानश्च गदः साम्बोऽथ सारणः ।
नन्दोपनन्दभद्राद्या रामकृष्णानुवर्तिनः ॥ ३ ॥
अक्षौहिणीभिर्द्वादशभिः समेताः सर्वतो दिशम् ।
रुरुधुर्बाणनगरं
समन्तात् सात्वतर्षभाः ॥ ४ ॥
भज्यमानपुरोद्यान
प्राकाराट्टालगोपुरम् ।
प्रेक्षमाणो
रुषाविष्टः तुल्यसैन्योऽभिनिर्ययौ ॥ ५ ॥
बाणार्थे भगवान् रुद्रः
ससुतः प्रमथैर्वृतः ।
आरुह्य नन्दिवृषभं
युयुधे रामकृष्णयोः ॥ ६ ॥
आसीत् सुतुमुलं
युद्धं अद्भुतं रोमहर्षणम् ।
कृष्णशङ्करयो राजन्
प्रद्युम्नगुहयोरपि ॥ ७ ॥
कुम्भाण्डकूपकर्णाभ्यां बलेन सह संयुगः ।
साम्बस्य
बाणपुत्रेण बाणेन सह सात्यकेः ॥ ८ ॥
ब्रह्मादयः
सुराधीशा मुनयः सिद्धचारणाः ।
गन्धर्वाप्सरसो
यक्षा विमानैर्द्रष्टुमागमन् ॥ ९ ॥
शङ्करानुचरान्
शौरिः भूतप्रमथगुह्यकान् ।
डाकिनीर्यातुधानांश्च वेतालान् सविनायकान् ॥ १०
॥
प्रेतमातृपिशाचांश्च कुष्माण्डान्
ब्रह्मराक्षसान् ।
द्रावयामास
तीक्ष्णाग्रैः शरैः शार्ङ्गधनुश्च्युतैः ॥ ११ ॥
पृथग्विधानि
प्रायुङ्क्त पिणाक्यस्त्राणि शाङ्र्गिणे ।
प्रत्यस्त्रैः
शमयामास शार्ङ्गपाणिरविस्मितः ॥ १२ ॥
ब्रह्मास्त्रस्य च
ब्रह्मास्त्रं वायव्यस्य च पार्वतम् ।
आग्नेयस्य च
पार्जन्यं नैजं पाशुपतस्य च ॥ १३ ॥
मोहयित्वा तु
गिरिशं जृम्भणास्त्रेण जृम्भितम् ।
बाणस्य पृतनां
शौरिः जघानासिगदेषुभिः ॥ १४ ॥
स्कन्दः
प्रद्युम्नबाणौघैः अर्द्यमानः समन्ततः ।
असृग् विमुञ्चन्
गात्रेभ्यः शिखिनापक्रमद् रणात् ॥ १५ ॥
कुम्भाण्डः
कूपकर्णश्च पेततुर्मुषलार्दितौ ।
दुद्रुवुस्तदनीकनि
हतनाथानि सर्वतः ॥ १६ ॥
विशीर्यमाणं स्वबलं
दृष्ट्वा बाणोऽत्यमर्षणः ।
कृष्णं अभ्यद्रवत्
संख्ये रथी हित्वैव सात्यकिम् ॥ १७ ॥
धनूंष्याकृष्य
युगपद् बाणः पञ्चशतानि वै ।
एकैकस्मिन् शरौ
द्वौ द्वौ सन्दधे रणदुर्मदः ॥ १८ ॥
तानि चिच्छेद
भगवान् धनूंसि युगपद्धरिः ।
सारथिं रथमश्वांश्च
हत्वा शङ्खमपूरयत् ॥ १९ ॥
तन्माता कोटरा नाम
नग्ना मक्तशिरोरुहा ।
पुरोऽवतस्थे
कृष्णस्य पुत्रप्राणरिरक्षया ॥ २० ॥
ततस्तिर्यङ्मुखो
नग्नां अनिरीक्षन् गदाग्रजः ।
बाणश्च तावद् विरथः
छिन्नधन्वाविशत् पुरम् ॥ २१ ॥
विद्राविते भूतगणे
ज्वरस्तु त्रीशिरास्त्रिपात् ।
अभ्यधावत दाशार्हं
दहन्निव दिशो दश ॥ २२ ॥
अथ नारायणः देवः तं
दृष्ट्वा व्यसृजज्ज्वरम् ।
माहेश्वरो
वैष्णवश्च युयुधाते ज्वरावुभौ ॥ २३ ॥
माहेश्वरः
समाक्रन्दन् वैष्णवेन बलार्दितः ।
अलब्ध्वाभयमन्यत्र
भीतो माहेश्वरो ज्वरः ।
शरणार्थी हृषीकेशं
तुष्टाव प्रयताञ्जलिः ॥ २४ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! बरसात के चार
महीने बीत गये। परंतु अनिरुद्धजीका कहीं पता न चला। उनके घरके लोग, इस घटनासे बहुत ही शोकाकुल हो रहे थे ।। १ ।। एक दिन नारदजीने आकर
अनिरुद्धका शोणितपुर जाना, वहाँ बाणासुरके सैनिकोंको हराना
और फिर नागपाशमें बाँधा जाना—यह सारा समाचार सुनाया। तब
श्रीकृष्णको ही अपना आराध्यदेव माननेवाले यदुवंशियोंने शोणितपुरपर चढ़ाई कर दी ।।
२ ।। अब श्रीकृष्ण और बलरामजीके साथ उनके अनुयायी सभी यदुवंशी—प्रद्युम्र, सात्यकि, गद,
साम्ब, सारण, नन्द,
उपनन्द और भद्र आदिने बारह अक्षौहिणी सेनाके साथ व्यूह बनाकर चारों
ओरसे बाणासुरकी राजधानीको घेर लिया ।। ३-४ ।। जब बाणासुरने देखा कि यदुवंशियोंकी
सेना नगरके उद्यान, परकोटों, बुर्जों
और सिंहद्वारों को तोड़-फोड़ रही है, तब उसे बड़ा क्रोध आया
और वह भी बारह अक्षौहिणी सेना लेकर नगरसे निकल पड़ा ।। ५ ।। बाणासुरकी ओरसे
साक्षात् भगवान् शङ्कर वृषभराज नन्दीपर सवार होकर अपने पुत्र कार्तिकेय और गणोंके
साथ रणभूमिमें पधारे और उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजीसे युद्ध किया ।। ६
।। परीक्षित् ! वह युद्ध इतना अद्भुत और घमासान हुआ कि उसे देखकर रोंगटे खड़े हो
जाते थे। भगवान् श्रीकृष्णसे शङ्करजीका और प्रद्युम्रसे स्वामिकार्तिकका युद्ध
हुआ ।। ७ ।। बलरामजीसे कुम्भाण्ड और कूपकर्णका युद्ध हुआ। बाणासुरके पुत्रके साथ
साम्ब और स्वयं बाणासुरके साथ सात्यकि भिड़ गये ।। ८ ।। ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े
देवता, ऋषि-मुनि, सिद्ध-चारण, गन्धर्व-अप्सराएँ और यक्ष विमानोंपर चढ़-चढक़र युद्ध देखनेके लिये आ पहुँचे
।। ९ ।। भगवान् श्रीकृष्णने अपने शार्ङ्गधनुषके तीखी नोकवाले बाणोंसे शङ्करजीके
अनुचरों—भूत, प्रेत, प्रमथ, गुह्यक, डाकिनी,
यातुधान, वेताल, विनायक,
प्रेतगण, मातृगण, पिशाच,
कूष्माण्ड और ब्रह्म-राक्षसोंको मार-मारकर खदेड़ दिया ।। १०-११ ।।
पिनाकपाणि शङ्करजीने भगवान् श्रीकृष्णपर भाँति-भाँतिके अगणित अस्त्र-शस्त्रोंका
प्रयोग किया, परंतु भगवान् श्रीकृष्णने बिना किसी प्रकारके
विस्मयके उन्हें विरोधी शास्त्रास्त्रोंसे शान्त कर दिया ।। १२ ।। भगवान्
श्रीकृष्णने ब्रह्मास्त्रकी शान्तिके लिये ब्रह्मास्त्रका, वायव्यास्त्रके
लिये पार्वतास्त्रका, आग्रेयास्त्रके लिये पर्जन्यास्त्रका
और पाशुपतास्त्रके लिये नारायणास्त्रका प्रयोग किया ।। १३ ।। इसके बाद भगवान्
श्रीकृष्णने जृम्भणास्त्रसे (जिससे मनुष्यको जँभाई-पर-जँभाई आने लगती है)
महादेवजीको मोहित कर दिया। वे युद्धसे विरत होकर जँभाई लेने लगे, तब भगवान् श्रीकृष्ण शङ्करजीसे छुट्टी पाकर तलवार, गदा
और बाणोंसे बाणासुरकी सेनाका संहार करने लगे ।। १४ ।। इधर प्रद्युम्रने बाणोंकी
बौछारसे स्वामिकार्तिकको घायल कर दिया, उनके अङ्ग-अङ्गसे
रक्तकी धारा बह चली, वे रणभूमि छोडक़र अपने वाहन मयूरद्वारा
भाग निकले ।। १५ ।। बलरामजीने अपने मूसलकी चोटसे कुम्भाण्ड और कूपकर्णको घायल कर
दिया, वे रणभूमिमें गिर पड़े। इस प्रकार अपने सेनापतियोंको
हताहत देखकर बाणासुरकी सारी सेना तितर-बितर हो गयी ।। १६ ।। जब रथपर सवार
बाणासुरने देखा कि श्रीकृष्ण आदिके प्रहारसे हमारी सेना तितर-बितर और तहस-नहस हो
रही है, तब उसे बड़ा क्रोध आया। उसने चिढक़र सात्यकिको छोड़
दिया और वह भगवान् श्रीकृष्णपर आक्रमण करनेके लिये दौड़ पड़ा ।। १७ ।। परीक्षित्
! रणोन्मत्त बाणासुरने अपने एक हजार हाथोंसे एक साथ ही पाँच सौ धनुष खींचकर
एक-एकपर दो-दो बाण चढ़ाये ।। १८ ।। परंतु भगवान् श्रीकृष्णने एक साथ ही उसके सारे
धनुष काट डाले और सारथि, रथ तथा घोड़ोंको भी धराशायी कर दिया
एवं शङ्खध्वनि की ।। १९ ।। कोटरा नामकी एक देवी बाणासुरकी धर्ममाता थी। वह अपने
उपासक पुत्रके प्राणोंकी रक्षाके लिये बाल-बिखेरकर नंग- धड़ंग भगवान् श्रीकृष्णके
सामने आकर खड़ी हो गयी ।। २० ।। भगवान् श्रीकृष्णने इसलिये कि कहीं उसपर दृष्टि न
पड़ जाय, अपना मुँह फेर लिया और वे दूसरी ओर देखने लगे। तबतक
बाणासुर धनुष कट जाने और रथहीन हो जानेके कारण अपने नगरमें चला गया ।। २१ ।।
इधर जब भगवान्
शङ्करके भूतगण इधर-उधर भाग गये, तब उनका छोड़ा हुआ तीन सिर और तीन पैरवाला ज्वर दसों दिशाओंको जलाता
हुआ-सा भगवान् श्रीकृष्णकी ओर दौड़ा ।। २२ ।। भगवान् श्रीकृष्णने उसे अपनी ओर
आते देखकर उसका मुकाबला करनेके लिये अपना ज्वर छोड़ा। अब वैष्णव और माहेश्वर दोनों
ज्वर आपसमें लडऩे लगे ।। २३ ।। अन्तमें वैष्णव ज्वरके तेजसे माहेश्वर ज्वर पीडि़त
होकर चिल्लाने लगा और अत्यन्त भयभीत हो गया। जब उसे अन्यत्र कहीं त्राण न मिला,
तब वह अत्यन्त नम्रतासे हाथ जोडक़र शरणमें लेनेके लिये भगवान्
श्रीकृष्णसे प्रार्थना करने लगा ।। २४ ।।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
जय श्री कृष्णा, बहुत ही सुंदर सराहनीय।
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