॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बासठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
ऊषा-अनिरुद्ध-मिलन
ततः प्रव्यथितो बाणो दुहितुः श्रुतदूषणः ।
त्वरितः कन्यकागारं
प्राप्तोऽद्राक्षीद् यदूद्वहम् ॥ ३० ॥
कामात्मजं तं भुवनैकसुन्दरं
श्यामं
पिशङ्गाम्बरमम्बुजेक्षणम् ।
बृहद्भुजं
कुण्डलकुन्तलत्विषा
स्मितावलोकेन च
मण्डिताननम् ॥ ३१ ॥
दीव्यन्तमक्षैः
प्रिययाभिनृम्णया
तदङ्गसङ्गस्तनकुङ्कुमस्रजम् ।
बाह्वोर्दधानं
मधुमल्लिकाश्रितां
तस्याग्र
आसीनमवेक्ष्य विस्मितः ॥ ३२ ॥
स तं प्रविष्टं
वृतमाततायिभिः
भटैरनीकैरवलोक्य माधवः ।
उद्यम्य मौर्वं
परिघं व्यवस्थितो
यथान्तको
दण्डधरो जिघांसया ॥ ३३ ॥
जिघृक्षया तान्
परितः प्रसर्पतः
शुनो यथा
शूकरयूथपोऽहनत् ।
ते हन्यमाना भवनाद्
विनिर्गता
निर्भिन्नमूर्धोरुभुजाः प्रदुद्रुवुः ॥ ३४ ॥
तं
नागपाशैर्बलिनन्दनो बली
घ्नन्तं
स्वसैन्यं कुपितो बबन्ध ह ।
ऊषा भृशं
शोकविषादविह्वला
बद्धं
निशम्याश्रुकलाक्ष्यरौदिषीत् ॥ ३५ ॥
परीक्षित् !
पहरेदारों से यह समाचार जानकर कि कन्याका चरित्र दूषित हो गया है, बाणासुरके हृदयमें बड़ी पीड़ा हुई। वह झटपट
ऊषाके महलमें जा धमका और देखा कि अनिरुद्धजी वहाँ बैठे हुए हैं ।। ३० ।। प्रिय
परीक्षित् ! अनिरुद्धजी स्वयं कामावतार प्रद्युम्नजीके पुत्र थे। त्रिभुवनमें
उनके-जैसा सुन्दर और कोई न था। साँवरा-सलोना शरीर और उसपर पीताम्बर फहराता हुआ,
कमलदलके समान बड़ी-बड़ी कोमल आँखें, लंबी-लंबी
भुजाएँ, कपोलोंपर घुँघराली अलकें और कुण्डलोंकी झिलमिलाती
हुई ज्योति, होठोंपर मन्द-मन्द मुसकान और प्रेमभरी चितवनसे
मुखकी शोभा अनूठी हो रही थी ।। ३१ ।। अनिरुद्धजी उस समय अपनी सब ओरसे सज-धजकर बैठी
हुई प्रियतमा ऊषाके साथ पासे खेल रहे थे। उनके गलेमें बसंती बेलाके बहुत सुन्दर
पुष्पोंका हार सुशोभित हो रहा था और उस हारमें ऊषाके अङ्गका सम्पर्क होनेसे उसके
वक्ष:स्थलकी केसर लगी हुई थी। उन्हें ऊषाके सामने ही बैठा देखकर बाणासुर
विस्मित-चकित हो गया ।। ३२ ।। जब अनिरुद्धजीने देखा कि बाणासुर बहुत-से आक्रमणकारी
शस्त्रास्त्रसे सुसज्जित वीर सैनिकोंके साथ महलोंमें घुस आया है, तब वे उन्हें धराशायी कर देनेके लिये लोहेका एक भयङ्कर परिघ लेकर डट गये,
मानो स्वयं कालदण्ड लेकर मृत्यु (यम) खड़ा हो ।। ३३ ।। बाणासुरके
साथ आये हुए सैनिक उनको पकडऩेके लिये ज्यों-ज्यों उनकी ओर झपटते, त्यों-त्यों वे उन्हें मार-मारकर गिराते जाते— ठीक
वैसे ही, जैसे सूअरोंके दलका नायक कुत्तोंको मार डाले !
अनिरुद्धजीकी चोटसे उन सैनिकोंके सिर, भुजा, जंघा आदि अङ्ग टूट-फूट गये और वे महलोंसे निकल भागे ।। ३४ ।। जब बली
बाणासुरने देखा कि यह तो मेरी सारी सेनाका संहार कर रहा है, तब
वह क्रोधसे तिलमिला उठा और उसने नागपाशसे उन्हें बाँध लिया। ऊषाने जब सुना कि उसके
प्रियतमको बाँध लिया गया है, तब वह अत्यन्त शोक और विषादसे
विह्वल हो गयी; उसके नेत्रोंसे आँसूकी धारा बहने लगी,
वह रोने लगी ।। ३५ ।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे अनिरुद्धबन्धो नाम
द्विषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६२ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु
॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
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