॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बासठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
ऊषा-अनिरुद्ध-मिलन
श्रीराजोवाच -
बाणस्य तनयां ऊषां उपयेमे यदूत्तमः ।
तत्र युद्धमभूद्
घोरं हरिशङ्करयोर्महत् ।
एतत्सर्वं
महायोगिन् समाख्यातुं त्वमर्हसि ॥ १ ॥
श्रीशुक उवाच -
बाणः पुत्रशतज्येष्ठो बलेरासीन् महात्मनः ।
येन वामनरूपाय
हरयेऽदायि मेदिनी ॥ २ ॥
तस्यौरसः सुतो बानः
शिवभक्तिरतः सदा ।
मान्यो वदान्यो
धीमांश्च सत्यसन्धो दृढव्रतः ॥ ३ ॥
शोणिताख्ये पुरे
रम्ये स राज्यं अकरोत्पुरा ।
तस्य शम्भोः
प्रसादेन किङ्करा इव तेऽमराः ।
सहस्रबाहुर्वाद्येन
ताण्डवेऽतोषयन्मृडम् ॥ ४ ॥
भगवान् सर्वभूतेशः
शरण्यो भक्तवत्सलः ।
वरेण छन्दयामास स
तं वव्रे पुराधिपम् ॥ ५ ॥
स एकदाऽऽह गिरिशं
पार्श्वस्थं वीर्यदुर्मदः ।
किरीटेनार्कवर्णेन
संस्पृशन् तत्पदाम्बुजम् ॥ ६ ॥
नमस्ये त्वां
महादेव लोकानां गुरुमीश्वरम् ।
पुंसां
अपूर्णकामानां कामपूरामराङ्घ्रिपम् ॥ ७ ॥
दोःसहस्रं त्वया
दत्तं परं भाराय मेऽभवत् ।
त्रिलोक्यां
प्रतियोद्धारं न लभे त्वदृते समम् ॥ ८ ॥
कण्डूत्या
निभृतैर्दोर्भिः युयुत्सुर्दिग्गजानहम् ।
आद्यायां
चूर्णयन्नद्रीन् भीतास्तेऽपि प्रदुद्रुवुः ॥ ९ ॥
तत् श्रुत्वा
भगवान् क्रुद्धः केतुस्ते भज्यते यदा ।
त्वद्दर्पघ्नं
भवेन्मूढ संयुगं मत्समेन ते ॥ १० ॥
इत्युक्तः
कुमतिर्हृष्टः स्वगृहं प्राविशन्नृप ।
प्रतीक्षन्
गिरिशादेशं स्ववीर्यनशनं कुधीः ॥ ११ ॥
तस्योषा नाम दुहिता
स्वप्ने प्राद्युम्निना रतिम् ।
कन्यालभत कान्तेन
प्राग् अदृष्टश्रुतेन सा ॥ १२ ॥
सा तत्र तमपश्यन्ती
क्वासि कान्तेति वादिनी ।
सखीनां मध्य
उत्तस्थौ विह्वला व्रीडिता भृशम् ॥ १३ ॥
बाणस्य मंत्री
कुम्भाण्डः चित्रलेखा च तत्सुता ।
सख्यपृच्छत् सखीं
ऊषां कौतूहलसमन्विता ॥ १४ ॥
कं त्वं मृगयसे
सुभ्रु कीदृशस्ते मनोरथः ।
हस्तग्राहं न
तेऽद्यापि राजपुत्र्युपलक्षये ॥ १५ ॥
दृष्टः कश्चिन्नरः
स्वप्ने श्यामः कमललोचनः ।
पीतवासा बृहद्
बाहुः योषितां हृदयंगमः ॥ १६ ॥
तमहं मृगये कान्तं
पाययित्वाधरं मधु ।
क्वापि यातः
स्पृहयतीं क्षिप्त्वा मां वृजिनार्णवे ॥ १७ ॥
चित्रलेखोवाच -
व्यसनं तेऽपकर्षामि
त्रिलोक्यां यदि भाव्यते ।
तं आनेष्ये वरं
यस्ते मनोहर्ता तमादिश ॥ १८ ॥
इत्युक्त्वा
देवगन्धर्व सिद्धचारणपन्नगान् ।
दैत्यविद्याधरान्
यक्षान् मनुजांश्च यथालिखत् ॥ १९ ॥
मनुजेषु च सा
वृष्नीन् शूरं आनकदुन्दुभिम् ।
व्यलिखद् रामकृष्णौ
च प्रद्युम्नं वीक्ष्य लज्जिता ॥ २० ॥
अनिरुद्धं विलिखितं
वीक्ष्योषावाङ्मुखी ह्रिया ।
सोऽसावसाविति प्राह
स्मयमाना महीपते ॥ २१ ॥
चित्रलेखा तमाज्ञाय
पौत्रं कृष्णस्य योगिनी ।
ययौ विहायसा राजन्
द्वारकां कृष्णपालिताम् ॥ २२ ॥
तत्र सुप्तं
सुपर्यङ्के प्राद्युम्निं योगमास्थिता ।
गृहीत्वा शोणितपुरं
सख्यै प्रियमदर्शयत् ॥ २३ ॥
सा च तं सुन्दरवरं
विलोक्य मुदितानना ।
दुष्प्रेक्ष्ये
स्वगृहे पुम्भी रेमे प्राद्युम्निना समम् ॥ २४ ॥
परार्ध्यवासःस्रग्गन्ध धूपदीपासनादिभिः ।
पानभोजन भक्ष्यैश्च
वाक्यैः शुश्रूषणार्चितः ॥ २५ ॥
गूढः कन्यापुरे
शश्वत् प्रवृद्धस्नेहया तया ।
नाहर्गणान् स
बुबुधे ऊषयापहृतेन्द्रियः ॥ २६ ॥
तां तथा यदुवीरेण भुज्यमानां हतव्रताम् ।
हेतुभिर्लक्षयाञ्चक्रुः आप्रीतां दुरवच्छदैः ॥
२७ ॥
भटा आवेदयाञ्चक्रू
राजंस्ते दुहितुर्वयम् ।
विचेष्टितं लक्षयाम
कन्यायाः कुलदूषणम् ॥ २८ ॥
अनपायिभिरस्माभिः
गुप्तायाश्च गृहे प्रभो ।
कन्याया दूषणं
पुम्भिः दुष्प्रेक्ष्याया न विद्महे ॥ २९ ॥
राजा
परीक्षित् ने पूछा—महायोगसम्पन्न मुनीश्वर !
मैंने सुना है कि यदुवंशशिरोमणि अनिरुद्धजी ने बाणासुर की पुत्री ऊषा से विवाह
किया था और इस प्रसङ्ग में भगवान् श्रीकृष्ण और शङ्कर जी का बहुत बड़ा घमासान
युद्ध हुआ था। आप कृपा करके यह वृत्तान्त विस्तार से सुनाइये ।। १ ।।
श्रीशुकदेवजीने
कहा—परीक्षित् ! महात्मा बलि की
कथा तो तुम सुन ही चुके हो। उन्होंने वामन- रूपधारी भगवान् को सारी पृथ्वीका दान
कर दिया था। उनके सौ लडक़े थे। उनमें सबसे बड़ा था बाणासुर ।। २ ।। दैत्यराज बलिका
औरस पुत्र बाणासुर भगवान् शिवकी भक्तिमें सदा रत रहता था। समाज में उसका बड़ा आदर
था। उसकी उदारता और बुद्धिमत्ता प्रशंसनीय थी। उसकी प्रतिज्ञा अटल होती थी और
सचमुच वह बातका धनी था ।। ३ ।। उन दिनों वह परम रमणीय शोणितपुर में राज्य करता था।
भगवान् शङ्करकी कृपासे इन्द्रादि देवता नौकर-चाकरकी तरह उसकी सेवा करते थे। उसके
हजार भुजाएँ थीं। एक दिन जब भगवान् शङ्कर ताण्डवनृत्य कर रहे थे, तब उसने अपने हजार हाथोंसे अनेकों प्रकारके बाजे बजाकर उन्हें प्रसन्न कर
लिया ।। ४ ।। सचमुच भगवान् शङ्कर बड़े ही भक्तवत्सल और शरणागतरक्षक हैं। समस्त
भूतोंके एकमात्र स्वामी प्रभुने बाणासुरसे कहा—‘तुम्हारी जो
इच्छा हो, मुझसे माँग लो।’ बाणासुरने
कहा—‘भगवन् ! आप मेरे नगरकी रक्षा करते हुए यहीं रहा करें’
।। ५ ।।
एक दिन
बल-पौरुषके घमंडमें चूर बाणासुरने अपने समीप ही स्थित भगवान् शङ्कर के चरण-
कमलोंको सूर्यके समान चमकीले मुकुटसे छूकर प्रणाम किया और कहा— ।। ६ ।। ‘देवाधिदेव !
आप समस्त चराचर जगत् के गुरु और ईश्वर हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। जिन
लोगोंके मनोरथ अबतक पूरे नहीं हुए हैं, उनको पूर्ण करनेके
लिये आप कल्पवृक्ष हैं ।। ७ ।। भगवन् ! आपने मुझे एक हजार भुजाएँ दी हैं, परंतु वे मेरे लिये केवल भाररूप हो रही हैं। क्योंकि त्रिलोकीमें आपको
छोडक़र मुझे अपनी बराबरीका कोई वीर-योद्धा ही नहीं मिलता, जो
मुझसे लड़ सके ।। ८ ।। आदिदेव ! एक बार मेरी बाहोंमें लडऩेके लिये इतनी खुजलाहट
हुई कि मैं दिग्गजों की ओर चला। परंतु वे भी डरके मारे भाग खड़े हुए। उस समय
मार्गमें अपनी बाहोंकी चोटसे मैंने बहुतसे पहाड़ोंको तोड़-फोड़ डाला था’ ।। ९ ।। बाणासुरकी यह प्रार्थना सुनकर भगवान् शङ्कर ने तनिक क्रोधसे कहा—‘रे मूढ़ ! जिस समय तेरी ध्वजा टूटकर गिर जायगी, उस
समय मेरे ही समान योद्धासे तेरा युद्ध होगा और वह युद्ध तेरा घमंड चूर-चूर कर देगा’
।। १० ।। परीक्षित् ! बाणासुरकी बुद्धि इतनी बिगड़ गयी थी कि
भगवान् शङ्करकी बात सुनकर उसे बड़ा हर्ष हुआ और वह अपने घर लौट गया। अब वह मूर्ख
भगवान् शङ्करके आदेशानुसार उस युद्धकी प्रतीक्षा करने लगा, जिसमें
उसके बल-वीर्यका नाश होनेवाला था ।। ११ ।।
परीक्षित् !
बाणासुरकी एक कन्या थी, उसका नाम था ऊषा। अभी वह
कुमारी ही थी कि एक दिन स्वप्नमें उसने देखा कि ‘परम सुन्दर
अनिरुद्धजीके साथ मेरा समागम हो रहा है।’ आश्चर्यकी बात तो
यह थी कि उसने अनिरुद्धजीको न तो कभी देखा था और न सुना ही था ।। १२ ।। स्वप्नमें
ही उन्हें न देखकर वह बोल उठी—‘प्राणप्यारे ! तुम कहाँ हो ?’
और उसकी नींद टूट गयी। वह अत्यन्त विह्वलताके साथ उठ बैठी और यह
देखकर कि मैं सखियोंके बीचमें हूँ, बहुत ही लज्जित हुई ।। १३
।। परीक्षित् ! बाणासुरके मन्त्रीका नाम था कुम्भाण्ड। उसकी एक कन्या थी, जिसका नाम था चित्रलेखा। ऊषा और चित्रलेखा एक-दूसरेकी सहेलियाँ थीं।
चित्रलेखाने ऊषासे कौतूहलवश पूछा—।। १४ ।। ‘सुन्दरी ! राजकुमारी ! मैं देखती हूँ कि अभीतक किसीने तुम्हारा पाणिग्रहण
भी नहीं किया है। फिर तुम किसे ढूँढ़ रही हो और तुम्हारे मनोरथका क्या स्वरूप है ?।। १५ ।।
ऊषाने कहा—सखी ! मैंने स्वप्नमें एक बहुत ही सुन्दर
नवयुवकको देखा है। उसके शरीरका रंग साँवला-साँवला-सा है। नेत्र कमलदलके समान हैं।
शरीरपर पीला-पीला पीताम्बर फहरा रहा है। भुजाएँ लंबी-लंबी हैं और वह स्त्रियोंका
चित्त चुरानेवाला है ।। १६ ।। उसने पहले तो अपने अधरोंका मधुर मधु मुझे पिलाया,
परंतु मैं उसे अघाकर पी ही न पायी थी कि वह मुझे दु:खके सागरमें
डालकर न जाने कहाँ चला गया। मैं तरसती ही रह गयी। सखी ! मैं अपने उसी प्राणवल्लभको
ढूँढ़ रही हूँ ।। १७ ।।
चित्रलेखाने
कहा—‘सखी ! यदि तुम्हारा चित्तचोर
त्रिलोकीमें कहीं भी होगा, और उसे तुम पहचान सकोगी, तो मैं तुम्हारी विरह-व्यथा अवश्य शान्त कर दूँगी। मैं चित्र बनाती हूँ,
तुम अपने चित्तचोर प्राणवल्लभको पहचानकर बतला दो। फिर वह चाहे कहीं
भी होगा, मैं उसे तुम्हारे पास ले आऊँगी’ ।। १८ ।। यों कहकर चित्रलेखाने बात-की-बातमें बहुत-से देवता, गन्धर्व, सिद्ध, चारण, पन्नग, दैत्य, विद्याधर,
यक्ष और मनुष्योंके चित्र बना दिये ।। १९ ।। मनुष्योंमें उसने
वृष्णिवंशी वसुदेवजीके पिता शूर, स्वयं वसुदेवजी, बलरामजी और भगवान् श्रीकृष्ण आदिके चित्र बनाये। प्रद्युम्रका चित्र
देखते ही ऊषा लज्जित हो गयी ।। २० ।। परीक्षित् ! जब उसने अनिरुद्धका चित्र देखा,
तब तो लज्जाके मारे उसका सिर नीचा हो गया। फिर मन्द-मन्द मुसकराते
हुए उसने कहा—‘मेरा वह प्राणवल्लभ यही है, यही है’ ।। २१ ।।
परीक्षित् !
चित्रलेखा योगिनी थी। वह जान गयी कि ये भगवान् श्रीकृष्णके पौत्र हैं। अब वह
आकाशमार्गसे रात्रिमें ही भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित द्वारकापुरीमें
पहुँची ।। २२ ।। वहाँ अनिरुद्धजी बहुत ही सुन्दर पलँगपर सो रहे थे। चित्रलेखा
योगसिद्धिके प्रभावसे उन्हें उठाकर शोणितपुर ले आयी और अपनी सखी ऊषाको उसके
प्रियतमका दर्शन करा दिया ।। २३ ।। अपने परम सुन्दर प्राणवल्लभको पाकर आनन्दकी
अधिकतासे उसका मुखकमल प्रफुल्लित हो उठा और वह अनिरुद्धजीके साथ अपने महलमें विहार
करने लगी। परीक्षित् ! उसका अन्त:पुर इतना सुरक्षित था कि उसकी ओर कोई पुरुष
झाँकतक नहीं सकता था ।। २४ ।। ऊषाका प्रेम दिन दूना रात चौगुना बढ़ता जा रहा था।
वह बहुमूल्य वस्त्र, पुष्पोंके हार, इत्र-फुलेल, धूप-दीप, आसन आदि
सामग्रियोंसे, सुमधुर पेय (पीनेयोग्य पदार्थ—दूध, शरबत आदि), भोज्य (चबाकर
खानेयोग्य) और भक्ष्य (निगल जानेयोग्य) पदार्थोंसे तथा मनोहर वाणी एवं
सेवा-शुश्रूषासे अनिरुद्धजीका बड़ा सत्कार करती। ऊषाने अपने प्रेमसे उनके मनको
अपने वशमें कर लिया। अनिरुद्धजी उस कन्याके अन्त:पुरमें छिपे रहकर अपने-आपको भूल
गये। उन्हें इस बातका भी पता न चला कि मुझे यहाँ आये कितने दिन बीत गये ।। २५-२६
।।
परीक्षित् !
यदुकुमार अनिरुद्धजीके सहवाससे ऊषाका कुआँरपन नष्ट हो चुका था। उसके शरीरपर ऐसे
चिह्न प्रकट हो गये, जो स्पष्ट इस बातकी सूचना दे
रहे थे और जिन्हें किसी प्रकार छिपाया नहीं जा सकता था। ऊषा बहुत प्रसन्न भी रहने
लगी। पहरेदारोंने समझ लिया कि इसका किसी-न-किसी पुरुषसे सम्बन्ध अवश्य हो गया है।
उन्होंने जाकर बाणासुरसे निवेदन किया— ‘राजन् ! हमलोग आपकी
अविवाहिता राजकुमारीका जैसा रंग-ढंग देख रहे हैं, वह आपके
कुलपर बट्टा लगानेवाला है ।। २७-२८ ।। प्रभो ! इसमें सन्देह नहीं कि हमलोग बिना
क्रम टूटे, रात-दिन महलका पहरा देते रहते हैं। आपकी कन्याको
बाहरके मनुष्य देख भी नहीं सकते। फिर भी वह कलङ्कित कैसे हो गयी ? इसका कारण हमारी समझमें नहीं आ रहा है’ ।। २९ ।।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
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