॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इकसठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
भगवान् की
सन्तति का वर्णन तथा
अनिरुद्ध के
विवाह में रुक्मी का मारा जाना
श्रीशुक उवाच
वृतः स्वयंवरे साक्षादनङ्गोऽङ्गयुतस्तया
राज्ञः समेतान्निर्जित्य जहारैकरथो युधि २२
यद्यप्यनुस्मरन्वैरं रुक्मी कृष्णावमानितः
व्यतरद्भागिनेयाय सुतां कुर्वन्स्वसुः प्रियम् २३
रुक्मिण्यास्तनयां राजन्कृतवर्मसुतो बली
उपयेमे विशालाक्षीं कन्यां चारुमतीं किल २४
दौहित्रायानिरुद्धाय पौत्रीं रुक्म्याददाद्धरेः
रोचनां बद्धवैरोऽपि स्वसुः प्रियचिकीर्षया
जानन्नधर्मं तद्यौनं स्नेहपाशानुबन्धनः २५
तस्मिन्नभ्युदये राजन्रुक्मिणी रामकेशवौ
पुरं भोजकटं जग्मुः साम्बप्रद्युम्नकादयः २६
तस्मिन्निवृत्त उद्वाहे कालिङ्गप्रमुखा नृपाः
दृप्तास्ते रुक्मिणं प्रोचुर्बलमक्षैर्विनिर्जय २७
अनक्षज्ञो ह्ययं राजन्नपि तद्व्यसनं महत्
इत्युक्तो बलमाहूय तेनाक्षैर्रुक्म्यदीव्यत २८
शतं सहस्रमयुतं रामस्तत्राददे पणम्
तं तु रुक्म्यजयत्तत्र कालिङ्गः प्राहसद्बलम्
दन्तान्सन्दर्शयन्नुच्चैर्नामृष्यत्तद्धलायुधः २९
ततो लक्षं रुक्म्यगृह्णाद्ग्लहं तत्राजयद्बलः
जितवानहमित्याह रुक्मी कैतवमाश्रितः ३०
मन्युना क्षुभितः श्रीमान्समुद्र इव पर्वणि
जात्यारुणाक्षोऽतिरुषा न्यर्बुदं ग्लहमाददे ३१
तं चापि जितवान्रामो धर्मेण छलमाश्रितः
रुक्मी जितं मयात्रेमे वदन्तु प्राश्निका इति ३२
तदाब्रवीन्नभोवाणी बलेनैव जितो ग्लहः
धर्मतो वचनेनैव रुक्मी वदति वै मृषा ३३
तामनादृत्य वैदर्भो दुष्टराजन्यचोदितः
सङ्कर्षणं परिहसन्बभाषे कालचोदितः ३४
नैवाक्षकोविदा यूयं गोपाला वनगोचराः
अक्षैर्दीव्यन्ति राजानो बाणैश्च न भवादृशाः ३५
रुक्मिणैवमधिक्षिप्तो राजभिश्चोपहासितः
क्रुद्धः परिघमुद्यम्य जघ्ने तं नृम्णसंसदि ३६
कलिङ्गराजं तरसा गृहीत्वा दशमे पदे
दन्तानपातयत्क्रुद्धो योऽहसद्विवृतैर्द्विजैः ३७
अन्ये निर्भिन्नबाहूरु शिरसो रुधिरोक्षिताः
राजानो दुद्रवुर्भीता बलेन परिघार्दिताः ३८
निहते रुक्मिणि श्याले नाब्रवीत्साध्वसाधु वा
रक्मिणीबलयो राजन्स्नेहभङ्गभयाद्धरिः ३९
ततोऽनिरुद्धं सह सूर्यया वरं
रथं समारोप्य ययुः कुशस्थलीम्
रामादयो भोजकटाद्दशार्हाः
सिद्धाखिलार्था मधुसूदनाश्रयाः ४०
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! प्रद्युम्न जी
मूर्तिमान् कामदेव थे। उनके सौन्दर्य और गुणोंपर रीझकर रुक्मवती ने स्वयंवर में
उन्हीं को वरमाला पहना दी। प्रद्युम्रजीने युद्धमें अकेले ही वहाँ इकट्ठे हुए
नरपतियों को जीत लिया और रुक्मवती को हर लाये ।। २२ ।। यद्यपि भगवान् श्रीकृष्णसे
अपमानित होनेके कारण रुक्मीके हृदयकी क्रोधाग्नि शान्त नहीं हुई थी, वह अब भी उनसे वैर गाँठे हुए था, फिर भी अपनी बहिन
रुक्मिणीको प्रसन्न करनेके लिये उसने अपने भानजे प्रद्युम्न को अपनी बेटी ब्याह दी
।। २३ ।। परीक्षित् ! दस पुत्रोंके अतिरिक्त रुक्मिणीजीके एक परम सुन्दरी
बड़े-बड़े नेत्रोंवाली कन्या थी। उसका नाम था चारुमती। कृतवर्माके पुत्र बलीने
उसके साथ विवाह किया ।। २४ ।।
परीक्षित् !
रुक्मीका भगवान् श्रीकृष्ण के साथ पुराना वैर था। फिर भी अपनी बहिन रुक्मिणीको
प्रसन्न करनेके लिये उसने अपनी पौत्री रोचनाका विवाह रुक्मिणीके पौत्र, अपने नाती (दौहित्र) अनिरुद्धके साथ कर
दिया। यद्यपि रुक्मी को इस बातका पता था कि इस प्रकारका विवाह-सम्बन्ध धर्मके
अनुकूल नहीं है, फिर भी स्नेह-बन्धनमें बँधकर उसने ऐसा कर
दिया।। २५ ।। परीक्षित् ! अनिरुद्धके विवाहोत्सवमें सम्मिलित होनेके लिये भगवान्
श्रीकृष्ण, बलरामजी, रुक्मिणीजी,
प्रद्युम्न, साम्ब आदि द्वारकावासी भोजकट
नगरमें पधारे ।। २६ ।। जब विवाहोत्सव निर्विघ्र समाप्त हो गया, तब कलिङ्गनरेश आदि घमंडी नरपतियोंने रुक्मीसे कहा कि ‘तुम बलरामजीको पासोंके खेलमें जीत लो ।। २७ ।। राजन् ! बलरामजीको पासे
डालने तो आते नहीं, परंतु उन्हें खेलनेका बहुत बड़ा व्यसन
है।’ उन लोगोंके बहकानेसे रुक्मीने बलरामजीको बुलवाया और वह
उनके साथ चौसर खेलने लगा ।। २८ ।। बलरामजीने पहले सौ, फिर
हजार और इसके बाद दस हजार मुहरोंका दाँव लगाया। उन्हें रुक्मीने जीत लिया।
रुक्मीकी जीत होनेपर कलिङ्गनरेश दाँत दिखा-दिखाकर, ठहाका
मारकर बलरामजीकी हँसी उड़ाने लगा। बलरामजीसे वह हँसी सहन न हुई। वे कुछ चिढ़ गये
।। २९ ।। इसके बाद रुक्मीने एक लाख मुहरोंका दाँव लगाया। उसे बलरामजीने जीत लिया।
परंतु रुक्मी धूर्ततासे यह कहने लगा कि ‘मैंने जीता है’
।। ३० ।। इसपर श्रीमान् बलरामजी क्रोधसे तिलमिला उठे। उनके हृदयमें
इतना क्षोभ हुआ, मानो पूर्णिमा के दिन समुद्र में ज्वार आ
गया हो। उनके नेत्र एक तो स्वभावसे ही लाल-लाल थे, दूसरे
अत्यन्त क्रोधके मारे वे और भी दहक उठे। अब उन्होंने दस करोड़ मुहरोंका दाँव रखा
।। ३१ ।। इस बार भी द्यूतनियमके अनुसार बलरामजीकी ही जीत हुई। परंतु रुक्मीने छल
करके कहा—‘मेरी जीत है। इस विषयके विशेषज्ञ कलिङ्गनरेश आदि
सभासद् इसका निर्णय कर दें’ ।। ३२ ।। उस समय आकाशवाणीने कहा—‘यदि धर्मपूर्वक कहा जाय, तो बलरामजीने ही यह दाँव
जीता है। रुक्मीका यह कहना सरासर झूठ है कि उसने जीता है’ ।।
३३ ।। एक तो रुक्मीके सिरपर मौत सवार थी और दूसरे उसके साथी दुष्ट राजाओंने भी उसे
उभाड़ रखा था। इससे उसने आकाशवाणीपर कोई ध्यान न दिया और बलरामजीकी हँसी उड़ाते
हुए कहा— ।। ३४ ।। ‘बलरामजी ! आखिर
आपलोग वन- वन भटकनेवाले ग्वाले ही तो ठहरे ! आप पासा खेलना क्या जानें ? पासों और बाणोंसे तो केवल राजालोग ही खेला करते हैं, आप-जैसे नहीं’ ।। ३५ ।। रुक्मीके इस प्रकार आक्षेप
और राजाओंके उपहास करनेपर बलरामजी क्रोधसे आगबबूला हो उठे। उन्होंने एक मुद्गर
उठाया और उस माङ्गलिक सभामें ही रुक्मीको मार डाला ।। ३६ ।। पहले कलिङ्गनरेश दाँत
दिखा-दिखाकर हँसता था, अब रंगमें भंग देखकर वहाँसे भागा;
परंतु बलरामजी ने दस ही कदम पर उसे पकड़ लिया और क्रोधसे उसके दाँत
तोड़ डाले ।। ३७ ।। बलरामजी ने अपने मुद्गरकी चोटसे दूसरे राजाओं की भी बाँह,
जाँघ और सिर आदि तोड़-फोड़ डाले। वे खूनसे लथपथ और भयभीत होकर
वहाँसे भागते बने ।। ३८ ।। परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्णने यह सोचकर कि बलरामजी का
समर्थन करनेसे रुक्मिणीजी अप्रसन्न होंगी और रुक्मीके वधको बुरा बतलानेसे बलरामजी
रुष्ट होंगे, अपने साले रुक्मीकी मृत्युपर भला-बुरा कुछ भी न
कहा ।। ३९ ।। इसके बाद अनिरुद्धजीका विवाह और शत्रुका वध दोनों प्रयोजन सिद्ध हो
जानेपर भगवान्के आश्रित बलरामजी आदि यदुवंशी नवविवाहिता दुलहिन रोचनाके साथ
अनिरुद्धजीको श्रेष्ठ रथपर चढ़ाकर भोजकट नगरसे द्वारकापुरीको चले आये ।। ४० ।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे अनिरुद्धविवाहे रुक्मिवधो
नामैकषष्टितमोऽध्यायः
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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