॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अट्ठावनवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
भगवान्
श्रीकृष्णके अन्यान्य विवाहोंकी कथा
श्रीशुक उवाच
तमाह भगवान्हृष्टः कृतासनपरिग्रहः
मेघगम्भीरया वाचा सस्मितं कुरुनन्दन ३९
श्रीभगवानुवाच
नरेन्द्र याच्ञा कविभिर्विगर्हिता
राजन्यबन्धोर्निजधर्मवर्तिनः
तथापि याचे तव सौहृदेच्छया
कन्यां त्वदीयां न हि शुल्कदा वयम् ४०
श्रीराजोवाच
कोऽन्यस्तेऽभ्यधिको नाथ कन्यावर इहेप्सितः
गुणैकधाम्नो यस्याङ्गे श्रीर्वसत्यनपायिनी ४१
किन्त्वस्माभिः कृतः पूर्वं समयः सात्वतर्षभ
पुंसां वीर्यपरीक्षार्थं कन्यावरपरीप्सया ४२
सप्तैते गोवृषा वीर दुर्दान्ता दुरवग्रहाः
एतैर्भग्नाः सुबहवो भिन्नगात्रा नृपात्मजाः ४३
यदिमे निगृहीताः स्युस्त्वयैव यदुनन्दन
वरो भवानभिमतो दुहितुर्मे श्रियःपते ४४
एवं समयमाकर्ण्य बद्ध्वा परिकरं प्रभुः
आत्मानं सप्तधा कृत्वा न्यगृह्णाल्लीलयैव तान् ४५
बद्ध्वा तान्दामभिः शौरिर्भग्नदर्पान्हतौजसः
व्यकर्षल्लीलया बद्धान्बालो दारुमयान्यथा ४६
ततः प्रीतः सुतां राजा ददौ कृष्णाय विस्मितः
तां प्रत्यगृह्णाद्भगवान्विधिवत्सदृशीं प्रभुः ४७
राजपत्न्यश्च दुहितुः कृष्णं लब्ध्वा प्रियं पतिम्
लेभिरे परमानन्दं जातश्च परमोत्सवः ४८
शङ्खभेर्यानका नेदुर्गीतवाद्यद्विजाशिषः
नरा नार्यः प्रमुदिताः सुवासःस्रगलङ्कृताः ४९
दशधेनुसहस्राणि पारिबर्हमदाद्विभुः
युवतीनां त्रिसाहस्रं निष्कग्रीवसुवाससम् ५०
नवनागसहस्राणि नागाच्छतगुणान्रथान्
रथाच्छतगुणानश्वानश्वाच्छतगुणान्नरान् ५१
दम्पती रथमारोप्य महत्या सेनया वृतौ
स्नेहप्रक्लिन्नहृदयो यापयामास कोशलः ५२
श्रुत्वैतद्रुरुधुर्भूपा नयन्तं पथि कन्यकाम्
भग्नवीर्याः सुदुर्मर्षा यदुभिर्गोवृषैः पुरा ५३
तानस्यतः शरव्रातान्बन्धुप्रियकृदर्जुनः
गाण्डीवी कालयामास सिंहः क्षुद्रमृगानिव ५४
पारिबर्हमुपागृह्य द्वारकामेत्य सत्यया
रेमे यदूनामृषभो भगवान्देवकीसुतः ५५
श्रुतकीर्तेः सुतां भद्रां उपयेमे पितृष्वसुः
कैकेयीं भ्रातृभिर्दत्तां कृष्णः सन्तर्दनादिभिः ५६
सुतां च मद्राधिपतेर्लक्ष्मणां लक्षणैर्युताम्
स्वयंवरे जहारैकः स सुपर्णः सुधामिव ५७
अन्याश्चैवंविधा भार्याः कृष्णस्यासन्सहस्रशः
भौमं हत्वा तन्निरोधादाहृताश्चारुदर्शनाः ५८
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! राजा नग्नजित् का
दिया हुआ आसन, पूजा आदि स्वीकार करके भगवान् श्रीकृष्ण बहुत
सन्तुष्ट हुए। उन्होंने मुसकराते हुए मेघके समान गम्भीर वाणीसे कहा ।। ३९ ।।
भगवान्
श्रीकृष्णने कहा—राजन् ! जो क्षत्रिय अपने
धर्ममें स्थित है, उसका कुछ भी माँगना उचित नहीं। धर्मज्ञ
विद्वानोंने उसके इस कर्मकी निन्दा की है। फिर भी मैं आपसे सौहार्दका— प्रेमका सम्बन्ध स्थापित करनेके लिये आपकी कन्या चाहता हूँ। हमारे यहाँ
इसके बदलेमें कुछ शुल्क देनेकी प्रथा नहीं है ।। ४० ।।
राजा नग्नजित्
ने कहा—‘प्रभो ! आप समस्त गुणोंके
धाम हैं, एकमात्र आश्रय हैं। आपके वक्ष:स्थलपर भगवती लक्ष्मी
नित्य-निरन्तर निवास करती हैं। आप से बढक़र कन्याके लिये अभीष्ट वर भला और कौन हो
सकता है ? ।। ४१ ।। परंतु यदुवंशशिरोमणे ! हमने पहले ही इस
विषयमें एक प्रण कर लिया है। कन्याके लिये कौन-सा वर उपयुक्त है, उसका बल-पौरुष कैसा है—इत्यादि बातें जाननेके लिये
ही ऐसा किया गया है ।। ४२ ।। वीरश्रेष्ठ श्रीकृष्ण ! हमारे ये सातों बैल किसीके
वशमें न आनेवाले और बिना सधाये हुए हैं। इन्होंने बहुत-से राजकुमारों के अङ्गों को
खण्डित करके उनका उत्साह तोड़ दिया है ।। ४३ ।। श्रीकृष्ण ! यदि इन्हें आप ही नाथ
लें, अपने वशमें कर लें, तो लक्ष्मीपते
! आप ही हमारी कन्याके लिये अभीष्ट वर होंगे ।। ४४ ।। भगवान् श्रीकृष्णने राजा
नग्नजित् का ऐसा प्रण सुनकर कमरमें फेंट कस ली और अपने सात रूप बनाकर खेल-खेलमें
ही उन बैलों को नाथ लिया ।। ४५ ।। इससे बैलों का घमंड चूर हो गया और उनका बल-पौरुष
भी जाता रहा। अब भगवान् श्रीकृष्ण उन्हें रस्सी से बाँधकर इस प्रकार खींचने लगे,
जैसे खेलते समय नन्हा- सा बालक काठ के बैलों को घसीटता है ।। ४६ ।।
राजा नग्नजित् को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने प्रसन्न होकर भगवान् श्रीकृष्णको
अपनी कन्याका दान कर दिया और सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्णने भी अपने अनुरूप
पत्नी सत्याका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया ।। ४७ ।। रानियोंने देखा कि हमारी
कन्याको उसके अत्यन्त प्यारे भगवान् श्रीकृष्ण ही पतिके रूपमें प्राप्त हो गये
हैं। उन्हें बड़ा आनन्द हुआ और चारों ओर बड़ा भारी उत्सव मनाया जाने लगा ।। ४८ ।।
शङ्ख, ढोल, नगारे बजने लगे। सब ओर
गाना-बजाना होने लगा। ब्राह्मण आशीर्वाद देने लगे। सुन्दर वस्त्र, पुष्पोंके हार और गहनोंसे सज-धजकर नगरके नर-नारी आनन्द मनाने लगे ।। ४९ ।।
राजा नग्रजित्ने दस हजार गौएँ और तीन हजार ऐसी नवयुवती दासियाँ जो सुन्दर वस्त्र
तथा गलेमें स्वर्णहार पहने हुए थीं, दहेजमें दीं। इनके साथ
ही नौ हजार हाथी, नौ लाख रथ, नौ करोड़
घोड़े और नौ अरब सेवक भी दहेजमें दिये ।। ५०-५१ ।। कोसलनरेश राजा नग्नजित् ने
कन्या और दामाद को रथपर चढ़ाकर एक बड़ी सेनाके साथ विदा किया। उस समय उनका हृदय
वात्सल्य-स्नेहके उद्रेकसे द्रवित हो रहा था ।। ५२ ।।
परीक्षित् !
यदुवंशियोंने और राजा नग्नजित् के बैलोंने
पहले बहुत-से राजाओंका बल-पौरुष धूलमें मिला दिया था। जब उन राजाओंने यह समाचार
सुना, तब उनसे भगवान् श्रीकृष्णकी
यह विजय सहन न हुई। उन लोगोंने नाग्नजिती सत्याको लेकर जाते समय मार्गमें भगवान्
श्रीकृष्णको घेर लिया ।। ५३ ।। और वे बड़े वेगसे उनपर बाणोंकी वर्षा करने लगे। उस
समय पाण्डववीर अर्जुनने अपने मित्र भगवान् श्रीकृष्णका प्रिय करनेके लिये गाण्डीव
धनुष धारण करके—जैसे सिंह छोटे-मोटे पशुओंको खदेड़ दे,
वैसे ही उन नरपतियोंको मारपीटकर भगा दिया ।। ५४ ।। तदनन्तर
यदुवंशशिरोमणि देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण उस दहेज और सत्याके साथ द्वारकामें
आये और वहाँ रहकर गृहस्थोचित विहार करने लगे ।। ५५ ।।
परीक्षित् !
भगवान् श्रीकृष्णकी फूआ श्रुतकीर्ति केकय-देशमें ब्याही गयी थीं। उनकी कन्याका
नाम था भद्रा। उसके भाई सन्तर्दन आदिने उसे स्वयं ही भगवान् श्रीकृष्णको दे दिया
और उन्होंने उसका पाणिग्रहण किया ।। ५६ ।। मद्रप्रदेश के राजाकी एक कन्या थी
लक्ष्मणा। वह अत्यन्त सुलक्षणा थी। जैसे गरुडऩे स्वर्ग से अमृतका हरण किया था, वैसे ही भगवान् श्रीकृष्ण ने स्वयंवर में
अकेले ही उसे हर लिया ।। ५७ ।।
परीक्षित् !
इसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण की और भी सहस्रों स्त्रियाँ थीं। उन परम सुन्दरियों को
वे भौमासुर को मारकर उसके बंदीगृह से छुड़ा लाये थे ।। ५८ ।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धेऽष्टमहिष्युद्वाहो
नामाष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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