॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उनसठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
भौमासुर का
उद्धार और सोलह हजार एक सौ राजकन्याओं के साथ
भगवान् का
विवाह
श्रीराजोवाच
-
यथा
हतो भगवता भौमो येने च ताः स्त्रियः ।
निरुद्धा एतदाचक्ष्व विक्रमं शार्ङ्गधन्वनः ॥ १
॥
श्रीशुक उवाच -
इन्द्रेण
हृतछत्रेण हृतकुण्डलबन्धुना ।
हृतामराद्रिस्थानेन ज्ञापितो भौमचेष्टितम् ।
सभार्यो गरुडारूढः प्राग्ज्योतिषपुरं ययौ ॥ २ ॥
गिरिदुर्गैः शस्त्रदुर्गैः जलाग्न्यनिलदुर्गमम्
।
मुरपाशायुतैर्घोरैः दृढैः सर्वत आवृतम् ॥ ३ ॥
गदया निर्बिभेदाद्रीन् शस्त्रदुर्गाणि सायकैः ।
चक्रेणाग्निं जलं वायुं
मुरपाशांस्तथासिना ॥ ४ ॥
शङ्खनादेन यन्त्राणि हृदयानि मनस्विनाम् ।
प्राकारं गदया गुर्व्या निर्बिभेद गदाधरः ॥ ५ ॥
पाञ्चजन्यध्वनिं श्रुत्वा युगान्तशनिभीषणम् ।
मुरः शयान उत्तस्थौ दैत्यः पञ्चशिरा जलात् ॥ ६ ॥
त्रिशूलमुद्यम्य
सुदुर्निरीक्षणो
युगान्तसूर्यानलरोचिरुल्बणः ।
ग्रसंस्त्रिलोकीमिव पञ्चभिर्मुखैः
अभ्यद्रवत्तार्क्ष्यसुतं यथोरगः ॥ ७ ॥
आविध्य शूलं तरसा गरुत्मते
निरस्य वक्त्रैर्व्यनदत् स पञ्चभिः ।
स रोदसी सर्वदिशोऽन्तरं महान्
आपूरयन् अण्डकटाहमावृणोत् ॥ ८ ॥
तदापतद् वै त्रिशिखं गरुत्मते
हरिः शराभ्यां अभिनत्त्रिधौजसा ।
मुखेषु तं चापि शरैरताडयत्
तस्मै गदां सोऽपि रुषा व्यमुञ्चत ॥ ९ ॥
तामापतन्तीं गदया गदां मृधे
गदाग्रजो निर्बिभिदे सहस्रधा ।
उद्यम्य बाहूनभिधावतोऽजितः
शिरांसि चक्रेण जहार लीलया ॥ १० ॥
व्यसुः पपाताम्भसि कृत्तशीर्षो
निकृत्तशृङ्गोऽद्रिरिवेन्द्रतेजसा ।
तस्यात्मजाः सप्त पितुर्वधातुराः
प्रतिक्रियामर्षजुषः समुद्यताः ॥ ११ ॥
ताम्रोऽन्तरिक्षः श्रवणो विभावसुः
वसुर्नभस्वानरुणश्च सप्तमः ।
पीठं पुरस्कृत्य चमूपतिं मृधे
भौमप्रयुक्ता निरग धृतायुधाः ॥ १२ ॥
प्रायुञ्जतासाद्य शरानसीन् गदाः
शक्त्यृष्टिशूलान्यजिते रुषोल्बणाः ।
तच्छस्त्रकूटं भगवान् स्वमार्गणैः
अमोघवीर्यस्तिलशश्चकर्त ह ॥ १३ ॥
तान्पीठमुख्याननयद् यमक्षयं
निकृत्तशीर्षोरुभुजाङ्घ्रिवर्मणः ।
स्वानीकपानच्युतचक्रसायकैः
तथा निरस्तान् नरको धरासुतः ॥ १४ ॥
निरीक्ष्य
दुर्मर्षण आस्रवन्मदैः
गजैः पयोधिप्रभवैर्निराक्रमात् ।
दृष्ट्वा सभार्यं गरुडोपरि स्थितं
सूर्योपरिष्टात् सतडिद्घनं यथा ।
कृष्णं स तस्मै व्यसृजच्छतघ्नीं
योधाश्च सर्वे युगपत् च विव्यधुः ॥ १५ ॥
तद्भौमसैन्यं भगवान् गदाग्रजो
विचित्रवाजैर्निशितैः शिलीमुखैः ।
निकृत्तबाहूरुशिरोध्रविग्रहं
चकार तर्ह्येव हताश्वकुञ्जरम् ॥ १६ ॥
राजा
परीक्षित्ने पूछा—भगवन् ! भगवान् श्रीकृष्णने
भौमासुरको, जिसने उन स्त्रियोंको बंदीगृहमें डाल रखा था,
क्यों और कैसे मारा ? आप कृपा करके
शार्ङ्ग-धनुषधारी भगवान् श्रीकृष्णका वह विचित्र चरित्र सुनाइये ।। १ ।।
श्रीशुकदेवजीने
कहा—परीक्षित् ! भौमासुरने
वरुणका छत्र, माता अदितिके कुण्डल और मेरु पर्वतपर स्थित
देवताओंका मणिपर्वत नामक स्थान छीन लिया था। इसपर सबके राजा इन्द्र द्वारकामें आये
और उसकी एक-एक करतूत उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णको सुनायी। अब भगवान् श्रीकृष्ण
अपनी प्रिय पत्नी सत्यभामाके साथ गरुड़पर सवार हुए और भौमासुरकी राजधानी
प्राग्ज्योतिषपुर में गये ।। २ ।। प्राग्ज्योतिषपुर में प्रवेश करना बहुत कठिन था।
पहले तो उसके चारों ओर पहाड़ोंकी किलेबंदी थी, उसके बाद
शस्त्रोंका घेरा लगाया हुआ था। फिर जलसे भरी खार्ईं थी, उसके
बाद आग या बिजलीकी चहारदीवारी थी और उसके भीतर वायु (गैस) बंद करके रखा गया था।
इससे भी भीतर मुर दैत्यने नगरके चारों ओर अपने दस हजार घोर एवं सुदृढ फंदे (जाल)
बिछा रखे थे ।। ३ ।। भगवान् श्रीकृष्णने अपनी गदाकी चोटसे पहाड़ोंको तोड़-फोड़
डाला और शस्त्रोंकी मोरचेबंदीको बाणोंसे छिन्न-भिन्न कर दिया। चक्रके द्वारा अग्रि,
जल और वायुकी चहारदीवारियोंको तहस-नहस कर दिया और मुर दैत्यके
फंदोंको तलवारसे काट-कूटकर अलग रख दिया ।। ४ ।। जो बड़े-बड़े यन्त्र—मशीनें वहाँ लगी हुई थीं, उनको तथा वीर-पुरुषोंके
हृदयको शङ्खनादसे विदीर्ण कर दिया और नगरके परकोटेको गदाधरभगवान्ने अपनी भारी
गदासे ध्वंस कर डाला ।। ५ ।।
भगवान् के
पाञ्चजन्य शङ्खकी ध्वनि प्रलयकालीन बिजली की कडक़ के समान महाभयङ्कर थी। उसे सुनकर
मुर दैत्यकी नींद टूटी और वह बाहर निकल आया। उसके पाँच सिर थे और अबतक वह जलके
भीतर सो रहा था ।। ६ ।। वह दैत्य प्रलयकालीन सूर्य और अग्रिके समान प्रचण्ड
तेजस्वी था। वह इतना भयङ्कर था कि उसकी ओर आँख उठाकर देखना भी आसान काम नहीं था।
उसने त्रिशूल उठाया और इस प्रकार भगवान्की ओर दौड़ा, जैसे साँप गरुडज़ीपर टूट पड़े। उस समय ऐसा
मालूम होता था मानो वह अपने पाँचों मुखोंसे त्रिलोकीको निगल जायगा ।। ७ ।। उसने
अपने त्रिशूलको बड़े वेगसे घुमाकर गरुडज़ीपर चलाया और फिर अपने पाँचों मुखोंसे घोर सिंहनाद
करने लगा। उसके सिंहनाद का महान् शब्द पृथ्वी, आकाश, पाताल और दसों दिशाओंमें फैलकर सारे ब्रह्माण्डमें भर गया ।। ८ ।। भगवान्
श्रीकृष्णने देखा कि मुर दैत्यका त्रिशूल गरुडक़ी ओर बड़े वेगसे आ रहा है। तब अपना
हस्तकौशल दिखाकर फुर्तीसे उन्होंने दो बाण मारे, जिनसे वह
त्रिशूल कटकर तीन टूक हो गया। इसके साथ ही मुर दैत्यके मुखोंमें भी भगवान् ने
बहुत-से बाण मारे। इससे वह दैत्य अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा और उसने भगवान् पर अपनी
गदा चलायी ।। ९ ।। परंतु भगवान् श्रीकृष्णने अपनी गदाके प्रहारसे मुर दैत्यकी
गदाको अपने पास पहुँचनेके पहले ही चूर-चूर कर दिया। अब वह अस्त्रहीन हो जानेके
कारण अपनी भुजाएँ फैलाकर श्रीकृष्णकी ओर दौड़ा और उन्होंने खेल-खेलमें ही चक्रसे
उसके पाँचों सिर उतार लिये ।। १० ।। सिर कटते ही मुर दैत्यके प्राण-पखेरू उड़ गये
और वह ठीक वैसे ही जलमें गिर पड़ा, जैसे इन्द्रके वज्रसे
शिखर कट जानेपर कोई पर्वत समुद्रमें गिर पड़ा हो। मुर दैत्यके सात पुत्र थे—ताम्र, अन्तरिक्ष, श्रवण,
विभावसु, वसु, नभस्वान्
और अरुण। ये अपने पिता की मृत्यु से अत्यन्त शोकाकुल हो उठे और फिर बदला लेनेके
लिये क्रोध से भरकर शस्त्रास्त्र से सुसज्जित हो गये तथा पीठ नामक दैत्य को अपना
सेनापति बनाकर भौमासुर के आदेश से श्रीकृष्णपर चढ़ आये ।। ११-१२ ।। वे वहाँ आकर
बड़े क्रोधसे भगवान् श्रीकृष्णपर बाण, खड्ग, गदा, शक्ति, ऋष्टि और त्रिशूल
आदि प्रचण्ड शस्त्रोंकी वर्षा करने लगे। परीक्षित् ! भगवान्की शक्ति अमोघ और
अनन्त है। उन्होंने अपने बाणों से उनके कोटि-कोटि शस्त्रास्त्र तिल-तिल करके काट
गिराये ।। १३ ।। भगवान् के शस्त्रप्रहार से सेनापति पीठ और उसके साथी दैत्योंके
सिर, जाँघें, भुजा, पैर और कवच कट गये और उन सभीको भगवान् ने यमराज के घर पहुँचा दिया। जब
पृथ्वीके पुत्र नरकासुर (भौमासुर) ने देखा कि भगवान् श्रीकृष्णके चक्र और बाणोंसे
हमारी सेना और सेनापतियोंका संहार हो गया, तब उसे असह्य
क्रोध हुआ। वह समुद्रतटपर पैदा हुए बहुत-से मदवाले हाथियोंकी सेना लेकर नगरसे बाहर
निकला। उसने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण अपनी पत्नीके साथ आकाशमें गरुड़पर स्थित
हैं, जैसे सूर्यके ऊपर बिजलीके साथ वर्षाकालीन श्याममेघ
शोभायमान हो। भौमासुर ने स्वयं भगवान् के ऊपर शतघ्नी नाम की शक्ति चलायी और उसके
सब सैनिकों ने भी एक ही साथ उनपर अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र छोड़े ।। १४-१५ ।। अब
भगवान् श्रीकृष्ण भी चित्र-विचित्र पंखवाले तीखे-तीखे बाण चलाने लगे। इससे उसी
समय भौमासुर के सैनिकों की भुजाएँ, जाँघें, गर्दन और धड़ कट-कटकर गिरने लगे; हाथी और घोड़े भी
मरने लगे ।। १६ ।।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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