॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उनसठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
भौमासुर का
उद्धार और सोलह हजार एक सौ राजकन्याओं के साथ
भगवान् का
विवाह
यानि
योधैः प्रयुक्तानि शस्त्रास्त्राणि कुरूद्वह ।
हरिस्तान्यच्छिनत् तीक्ष्णैः शरैरेकैक
शस्त्रीभिः ॥ १७ ॥
उह्यमानः सुपर्णेन पक्षाभ्यां निघ्नता गजान् ।
गुरुत्मता हन्यमानाः तुण्डपक्षनखैर्गजाः ॥ १८ ॥
पुरमेवाविशन्नार्ता नरको युध्ययुध्यत ।
दृष्ट्वा विद्रावितं सैन्यं गरुडेनार्दितं स्वकं
॥ १९ ॥
तं भौमः प्राहरच्छक्त्या वज्रः प्रतिहतो यतः ।
नाकम्पत तया विद्धो मालाहत इव द्विपः ॥ २० ॥
शूलं भौमोऽच्युतं हन्तुं आददे वितथोद्यमः ।
तद्विसर्गात् पूर्वमेव नरकस्य शिरो हरिः ।
अपाहरद् गजस्थस्य चक्रेण क्षुरनेमिना ॥ २१ ॥
सकुण्डलं
चारुकिरीटभूषणं
बभौ पृथिव्यां पतितं समुज्ज्वलम् ।
हा हेति साध्वित्यृषयः सुरेश्वरा
माल्यैर्मुकुन्दं विकिरन्त ईडिरे ॥ २२ ॥
ततश्च भूः कृष्णमुपेत्य कुण्डले ।
प्रतप्तजाम्बूनदरत्नभास्वरे ।
सवैजयन्त्या वनमालयार्पयत्
प्राचेतसं छत्रमथो महामणिम् ॥ २३ ॥
अस्तौषीदथ
विश्वेशं देवी देववरार्चितम् ।
प्राञ्जलिः प्रणता राजन् भक्तिप्रवणया धिया ॥ २४
॥
भूमिरुवाच
नमस्ते देवदेवेश शङ्खचक्रगदाधर ।
भक्तेच्छोपात्तरूपाय परमात्मन्नमोऽस्तु ते ॥ २५
॥
नमः पङ्कजनाभाय नमः पङ्कजमालिने ।
नमः पङ्कजनेत्राय नमस्ते पङ्कजाङ्घ्रये ॥ २६ ॥
नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय विष्णवे ।
पुरुषायादिबीजाय पूर्णबोधाय ते नमः ॥ २७ ॥
अजाय जनयित्रेऽस्य ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये ।
परावरात्मन् भूतात्मन् परमात्मन् नमोऽस्तु ते ॥
२८ ॥
त्वं
वै सिसृक्षुरज उत्कटं प्रभो
तमो निरोधाय बिभर्ष्यसंवृतः ।
स्थानाय सत्त्वं जगतो जगत्पते
कालः प्रधानं पुरुषो भवान् परः ॥ २९ ॥
अहं पयो ज्योतिरथानिलो नभो
मात्राणि देवा मन इन्द्रियाणि ।
कर्ता महानित्यखिलं चराचरं
त्वय्यद्वितीये भगवन्नयं भ्रमः ॥ ३० ॥
तस्यात्मजोऽयं तव पादपङ्कजं
भीतः प्रपन्नार्तिहरोपसादितः ।
तत् पालयैनं कुरु हस्तपङ्कजं
शिरस्यमुष्याखिलकल्मषापहम् ॥ ३१ ॥
परीक्षित् !
भौमासुरके सैनिकोंने भगवान् पर जो-जो अस्त्र-शस्त्र चलाये थे, उनमेंसे प्रत्येकको भगवान् ने तीन-तीन
तीखे बाणोंसे काट गिराया ।। १७ ।। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण गरुडज़ीपर सवार थे और
गरुडज़ी अपने पंखोंसे हाथियोंको मार रहे थे। उनकी चोंच, पंख
और पंजोंकी मारसे हाथियोंको बड़ी पीड़ा हुई और वे सब-के-सब आर्त होकर युद्धभूमिसे
भागकर नगरमें घुस गये। अब वहाँ अकेला भौमासुर ही लड़ता रहा। जब उसने देखा कि
गरुडज़ीकी मारसे पीडि़त होकर मेरी सेना भाग रही है, तब उसने
उनपर वह शक्ति चलायी, जिसने वज्रको भी विफल कर दिया था।
परंतु उसकी चोटसे पक्षिराज गरुड़ तनिक भी विचलित न हुए, मानो
किसीने मतवाले गजराजपर फूलोंकी मालासे प्रहार किया हो ।। १८—२०
।। अब भौमासुरने देखा कि मेरी एक भी चाल नहीं चलती, सारे
उद्योग विफल होते जा रहे हैं, तब उसने श्रीकृष्णको मार
डालनेके लिये एक त्रिशूल उठाया। परंतु उसे अभी वह छोड़ भी न पाया था कि भगवान्
श्रीकृष्णने छुरेके समान तीखी धारवाले चक्रसे हाथीपर बैठे हुए भौमासुरका सिर काट
डाला ।। २१ ।। उसका जगमगाता हुआ सिर कुण्डल और सुन्दर किरीटके सहित पृथ्वीपर गिर
पड़ा। उसे देखकर भौमासुरके सगे-सम्बन्धी हाय-हाय पुकार उठे, ऋषिलोग
‘साधु साधु’ कहने लगे और देवतालोग
भगवान् पर पुष्पोंकी वर्षा करते हुए स्तुति करने लगे ।। २२ ।।
अब पृथ्वी
भगवान्के पास आयी। उसने भगवान् श्रीकृष्णके गले में वैजयन्ती के साथ वनमाला पहना
दी और अदिति माताके जगमगाते हुए कुण्डल,
जो तपाये हुए सोनेके एवं रत्नजटित थे, भगवान्को
दे दिये तथा वरुणका छत्र और साथ ही एक महामणि भी उनको दी ।। २३ ।। राजन् ! इसके
बाद पृथ्वीदेवी बड़े-बड़े देवताओंके द्वारा पूजित विश्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्णको
प्रणाम करके हाथ जोडक़र भक्तिभावभरे हृदयसे उनकी स्तुति करने लगीं ।। २४ ।।
पृथ्वीदेवीने
कहा—शङ्खचक्रगदाधारी देवदेवेश्वर
! मैं आपको नमस्कार करती हूँ। परमात्मन् ! आप अपने भक्तोंकी इच्छा पूर्ण करनेके
लिये उसीके अनुसार रूप प्रकट किया करते हैं। आपको मैं नमस्कार करती हूँ ।। २५ ।।
प्रभो ! आपकी नाभिसे कमल प्रकट हुआ है। आप कमलकी माला पहनते हैं। आपके नेत्र
कमल-से खिले हुए और शान्तिदायक हैं। आपके चरण कमलके समान सुकुमार और भक्तोंके
हृदयको शीतल करनेवाले हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ ।। २६ ।। आप समग्र
ऐश्वर्य, धर्म, यश, सम्पत्ति, ज्ञान और वैराग्यके आश्रय हैं। आप
सर्वव्यापक होनेपर भी स्वयं वसुदेवनन्दनके रूपमें प्रकट हैं। मैं आपको नमस्कार
करती हूँ। आप ही पुरुष हैं और समस्त कारणोंके भी परम कारण हैं। आप स्वयं पूर्ण
ज्ञानस्वरूप हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ ।। २७ ।। आप स्वयं तो हैं जन्मरहित,
परंतु इस जगत्के जन्मदाता आप ही हैं। आप ही अनन्त शक्तियोंके आश्रय
ब्रह्म हैं। जगत्का जो कुछ भी कार्य-कारणमय रूप है, जितने भी
प्राणी या अप्राणी हैं—सब आपके ही स्वरूप हैं। परमात्मन् !
आपके चरणोंमें मेरे बार-बार नमस्कार ।। २८ ।। प्रभो ! जब आप जगत्की रचना करना
चाहते हैं, तब उत्कट रजोगुणको, और जब
इसका प्रलय करना चाहते हैं तब तमोगुणको, तथा जब इसका पालन
करना चाहते हैं तब सत्त्वगुणको स्वीकार करते हैं। परंतु यह सब करनेपर भी आप इन
गुणोंसे ढकते नहीं, लिप्त नहीं होते। जगत्पते ! आप स्वयं ही
प्रकृति, पुरुष और दोनोंके संयोग-वियोगके हेतु काल हैं,
तथा उन तीनोंसे परे भी हैं ।। २९ ।। भगवन् ! मैं (पृथ्वी), जल, अग्रि, वायु, आकाश, पञ्चतन्मात्राएँ, मन,
इन्द्रिय और इनके अधिष्ठातृ-देवता, अहंकार और
महत्तत्त्व— कहाँतक कहूँ, यह सम्पूर्ण
चराचर जगत् आपके अद्वितीय स्वरूपमें भ्रमके कारण ही पृथक् प्रतीत हो रहा है ।। ३०
।। शरणागत-भय-भञ्जन प्रभो ! मेरे पुत्र भौमासुरका यह पुत्र भगदत्त अत्यन्त भयभीत
हो रहा है। मैं इसे आपके चरणकमलोंकी शरणमें ले आयी हूँ। प्रभो ! आप इसकी रक्षा
कीजिये और इसके सिरपर अपना वह करकमल रखिये जो सारे जगत् के समस्त पाप-तापोंको नष्ट
करनेवाला है ।। ३१ ।।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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