॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उनसठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
भौमासुर का
उद्धार और सोलह हजार एक सौ राजकन्याओं के साथ
भगवान् का
विवाह
श्रीशुक उवाच -
इति
भूम्यर्थितो वाग्भिः भगवान् भक्तिनम्रया ।
दत्त्वाभयं भौमगृहं प्राविशत् सकलर्द्धिमत् ॥ ३२
॥
तत्र राजन्यकन्यानां षट्सहस्राधिकायुतम् ।
भौमाहृतानां विक्रम्य राजभ्यो ददृशे हरिः ॥ ३३ ॥
तं प्रविष्टं स्त्रियो वीक्ष्य नरवर्यं
विमोहिताः ।
मनसा वव्रिरेऽभीष्टं पतिं दैवोपसादितम् ॥ ३४ ॥
भूयात् पतिरयं मह्यं धाता तदनुमोदताम् ।
इति सर्वाः पृथक् कृष्णे भावेन हृदयं दधुः ॥ ३५
॥
ताः प्राहिणोद् द्वारवतीं सुमृष्टविरजोऽम्बराः ।
नरयानैर्महाकोशान् रथाश्वान् द्रविणं महत् ॥ ३६
॥
ऐरावतकुलेभांश्च
चतुर्दन्तांस्तरस्विनः ।
पाण्डुरांश्च चतुःषष्टिं प्रेरयामास केशवः ॥ ३७
॥
गत्वा सुरेन्द्रभवनं दत्त्वादित्यै च कुण्डले ।
पूजितस्त्रिदशेन्द्रेण सहेन्द्र्याण्या च
सप्रियः ॥ ३८ ॥
चोदितो भार्ययोत्पाट्य पारीजातं गरुत्मति ।
आरोप्य सेन्द्रान् विबुधान् निर्जित्योपानयत्
पुरम् ॥ ३९ ॥
स्थापितः सत्यभामाया गृहोद्यानोपशोभनः ।
अन्वगुर्भ्रमराः स्वर्गात् तद् गन्धासवलम्पटाः ॥
४० ॥
ययाच
आनम्य किरीटकोटिभिः
पादौ स्पृशन् अच्युतमर्थसाधनम् ।
सिद्धार्थ एतेन विगृह्यते महान्
अहो सुराणां च तमो धिगाढ्यताम् ॥ ४१ ॥
अथो
मुहूर्त एकस्मिन् नानागारेषु ताः स्त्रियः ।
यथोपयेमे भगवान् तावद् रूपधरोऽव्ययः ॥ ४२ ॥
गृहेषु
तासामनपाय्यतर्ककृत्
निरस्तसाम्यातिशयेष्ववस्थितः ।
रेमे रमाभिर्निजकामसम्प्लुतो
यथेतरो गार्हकमेधिकांश्चरन् ॥ ४३ ॥
इत्थं
रमापतिमवाप्य पतिं स्त्रियस्ता
ब्रह्मादयोऽपि न विदुः पदवीं यदीयाम् ।
भेजुर्मुदाविरतमेधितयानुराग
हासावलोकनवसङ्गमजल्पलज्जाः ॥ ४४ ॥
प्रत्युद्गमासनवरार्हणपदशौच
ताम्बूलविश्रमणवीजनगन्धमाल्यैः ।
केशप्रसारशयनस्नपनोपहार्यैः
दासीशता अपि विभोर्विदधुः स्म दास्यम् ॥ ४५
॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! जब पृथ्वीने
भक्तिभावसे विनम्र होकर इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति-प्रार्थना की,
तब उन्होंने भगदत्तको अभयदान दिया और भौमासुरके समस्त सम्पत्तियोंसे
सम्पन्न महलमें प्रवेश किया ।। ३२ ।। वहाँ जाकर भगवान् ने देखा कि भौमासुरने
बलपूर्वक राजाओंसे सोलह हजार राजकुमारियाँ छीनकर अपने यहाँ रख छोड़ी थीं ।। ३३ ।।
जब उन राजकुमारियों ने अन्त:पुर में पधारे हुए नरश्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्णको देखा,
तब वे मोहित हो गयीं और उन्होंने उनकी अहैतुकी कृपा तथा अपना
सौभाग्य समझकर मन-ही-मन भगवान् को अपने परम प्रियतम पतिके रूपमें वरण कर लिया ।।
३४ ।। उन राजकुमारियों में से प्रत्येक ने अलग-अलग अपने मनमें यही निश्चय किया कि ‘ये श्रीकृष्ण ही मेरे पति हों और विधाता मेरी इस अभिलाषाको पूर्ण करें।’
इस प्रकार उन्होंने प्रेम-भावसे अपना हृदय भगवान्के प्रति निछावर
कर दिया ।। ३५ ।। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने उन राजकुमारियोंको सुन्दर-सुन्दर निर्मल
वस्त्राभूषण पहनाकर पालकियों- से द्वारका भेज दिया और उनके साथ ही बहुत-से खजाने,
रथ, घोड़े तथा अतुल सम्पत्ति भी भेजी ।। ३६ ।।
ऐरावतके वंशमें उत्पन्न हुए अत्यन्त वेगवान् चार-चार दाँतोंवाले सफेद रंगके चौंसठ
हाथी भी भगवान् ने वहाँसे द्वारका भेजे ।। ३७ ।।
इसके बाद
भगवान् श्रीकृष्ण अमरावती में स्थित देवराज इन्द्रके महलोंमें गये। वहाँ देवराज इन्द्रने अपनी पत्नी
इन्द्राणीके साथ सत्यभामा जी और भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा की, तब भगवान् ने अदितिके कुण्डल उन्हें दे
दिये ।। ३८ ।। वहाँसे लौटते समय सत्यभामाजीकी प्रेरणासे भगवान् श्रीकृष्णने
कल्पवृक्ष उखाडक़र गरुड़पर रख लिया और देवराज इन्द्र तथा समस्त देवताओंको जीतकर उसे
द्वारकामें ले आये ।। ३९ ।। भगवान् ने उसे सत्यभामाके महलके बगीचेमें लगा दिया।
इससे उस बगीचेकी शोभा अत्यन्त बढ़ गयी। कल्पवृक्षके साथ उसके गन्ध और मकरन्दके
लोभी भौंरे स्वर्गसे द्वारकामें चले आये थे ।। ४० ।। परीक्षित् ! देखो तो सही,
जब इन्द्रको अपना काम बनाना था, तब तो
उन्होंने अपना सिर झुकाकर मुकुटकी नोकसे भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंका स्पर्श करके
उनसे सहायताकी भिक्षा माँगी थी, परंतु जब काम बन गया,
तब उन्होंने उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णसे लड़ाई ठान ली। सचमुच ये
देवता भी बड़े तमोगुणी हैं और सबसे बड़ा दोष तो उनमें धनाढ्यताका है। धिक्कार है
ऐसी धनाढ्यताको ।। ४१ ।।
तदनन्तर
भगवान् श्रीकृष्णने एक ही मुहूर्तमें अलग-अलग भवनोंमें अलग-अलग रूप धारण करके एक
ही साथ सब राजकुमारियोंका शास्त्रोक्त विधिसे पाणिग्रहण किया। सर्वशक्तिमान्
अविनाशी भगवान् के लिये इसमें आश्चर्यकी कौन-सी बात है ।। ४२ ।। परीक्षित् !
भगवान् की पत्नियोंके अलग-अलग महलोंमें ऐसी दिव्य सामग्रियाँ भरी हुई थीं, जिनके बराबर जगत् में कहीं भी और कोई भी
सामग्री नहीं है; फिर अधिककी तो बात ही क्या है। उन महलोंमें
रहकर मति- गतिके परेकी लीला करनेवाले अविनाशी भगवान् श्रीकृष्ण अपने आत्मानन्दमें
मग्र रहते हुए लक्ष्मीजीकी अंशस्वरूपा उन पत्नियोंके साथ ठीक वैसे ही विहार करते
थे, जैसे कोई साधारण मनुष्य घर-गृहस्थीमें रहकर
गृहस्थ-धर्मके अनुसार आचरण करता हो ।। ४३ ।। परीक्षित् ! ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े
देवता भी भगवान्के वास्तविक स्वरूपको और उनकी प्राप्तिके मार्गको नहीं जानते।
उन्हीं रमारमण भगवान् श्रीकृष्णको उन स्त्रियोंने पतिके रूपमें प्राप्त किया था।
अब नित्य-निरन्तर उनके प्रेम और आनन्दकी अभिवृद्धि होती रहती थी और वे प्रेमभरी
मुसकराहट, मधुर चितवन, नवसमागम,
प्रेमालाप तथा भाव बढ़ाने-वाली लज्जासे युक्त होकर सब प्रकारसे
भगवान्की सेवा करती रहती थीं ।। ४४ ।। उनमेंसे सभी पत्नियोंके साथ सेवा करनेके
लिये सैकड़ों दासियाँ रहतीं, फिर भी जब उनके महलमें भगवान्
पधारते तब वे स्वयं आगे जाकर आदरपूर्वक उन्हें लिवा लातीं, श्रेष्ठ
आसनपर बैठातीं, उत्तम सामग्रियों से पूजा करतीं, चरणकमल पखारतीं, पान लगाकर खिलातीं, पाँव दबाकर थकावट दूर करतीं, पंखा झलतीं, इत्र-फुलेल, चन्दन आदि लगातीं, फूलोंके हार पहनातीं, केश सँवारतीं, सुलातीं, स्नान करातीं और अनेक प्रकार के भोजन कराकर
अपने ही हाथों भगवान् की सेवा करतीं ।। ४५ ।।
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे
उत्तरार्धे पारिजातहरणनरकवधो नाम एकोनषष्टितमोऽध्यायः ॥ ५९ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें