शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— साठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— साठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-संवाद

 

श्रीबादरायणिरुवाच

कर्हिचित्सुखमासीनं स्वतल्पस्थं जगद्गुरुम्

पतिं पर्यचरद्भैष्मी व्यजनेन सखीजनैः १

यस्त्वेतल्लीलया विश्वं सृजत्यत्त्यवतीश्वरः

स हि जातः स्वसेतूनां गोपीथाय यदुष्वजः २

तस्मिनन्तर्गृहे भ्राजन् मुक्तादामविलम्बिना

विराजिते वितानेन दीपैर्मणिमयैरपि ३

मल्लिकादामभिः पुष्पैर्द्विरेफकुलनादिते

जालरन्ध्रप्रविष्टैश्च गोभिश्चन्द्रमसोऽमलैः ४

पारिजातवनामोद वायुनोद्यानशालिना

धूपैरगुरुजै राजन्जालरन्ध्रविनिर्गतैः ५

पयःफेननिभे शुभ्रे पर्यङ्के कशिपूत्तमे

उपतस्थे सुखासीनं जगतामीश्वरं पतिम् ६

वालव्यजनमादाय रत्नदण्डं सखीकरात्

तेन वीजयती देवी उपासांचक्र ईश्वरम् ७

सोपाच्युतं क्वणयती मणिनूपुराभ्यां

रेजेऽङ्गुलीयवलयव्यजनाग्रहस्ता

वस्त्रान्तगूढकुचकुङ्कुमशोणहार

भासा नितम्बधृतया च परार्ध्यकाञ्च्या ८

तां रूपिणीं श्रीयमनन्यगतिं निरीक्ष्य

या लीलया धृततनोरनुरूपरूपा

प्रीतः स्मयन्नलककुण्डलनिष्ककण्ठ

वक्त्रोल्लसत्स्मितसुधां हरिराबभाषे ९

 

श्रीभगवानुवाच

राजपुत्रीप्सिता भूपैर्लोकपालविभूतिभिः

महानुभावैः श्रीमद्भी रूपौदार्यबलोर्जितैः १०

तान्प्राप्तानर्थिनो हित्वा चैद्यादीन्स्मरदुर्मदान्

दत्ता भ्रात्रा स्वपित्रा च कस्मान्नो ववृषेऽसमान् ११

राजभ्यो बिभ्यतः सुभ्रु समुद्रं शरणं गतान्

बलवद्भिः कृतद्वेषान्प्रायस्त्यक्तनृपासनान् १२

अस्पष्टवर्त्मनाम्पुंसामलोकपथमीयुषाम्

आस्थिताः पदवीं सुभ्रु प्रायः सीदन्ति योषितः १३

निष्किञ्चना वयं शश्वन्निष्किञ्चनजनप्रियाः

तस्मात्प्रायेण न ह्याढ्या मां भजन्ति सुमध्यमे १४

ययोरात्मसमं वित्तं जन्मैश्वर्याकृतिर्भवः

तयोर्विवाहो मैत्री च नोत्तमाधमयोः क्वचित् १५

वैदर्भ्येतदविज्ञाय त्वया दीर्घसमीक्षया

वृता वयं गुणैर्हीना भिक्षुभिः श्लाघिता मुधा १६

अथात्मनोऽनुरूपं वै भजस्व क्षत्रियर्षभम्

येन त्वमाशिषः सत्या इहामुत्र च लप्स्यसे १७

चैद्यशाल्वजरासन्ध दन्तवक्त्रादयो नृपाः

मम द्विषन्ति वामोरु रुक्मी चापि तवाग्रजः १८

तेषां वीर्यमदान्धानां दृप्तानां स्मयनुत्तये

आनितासि मया भद्रे तेजोपहरता सताम् १९

उदासीना वयं नूनं न स्त्र्यपत्यार्थकामुकाः

आत्मलब्ध्यास्महे पूर्णा गेहयोर्ज्योतिरक्रियाः २०

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! एक दिन समस्त जगत् के परमपिता और ज्ञानदाता भगवान्‌ श्रीकृष्ण रुक्मिणीजी के पलँग पर आराम से बैठे हुए थे। भीष्मकनन्दिनी श्रीरुक्मिणीजी सखियोंके साथ अपने पतिदेव की सेवा कर रही थीं, उन्हें पंखा झल रही थीं ।। १ ।। परीक्षित्‌ ! जो सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ खेल-खेल में ही इस जगत् की रचना, रक्षा और प्रलय करते हैंवही अजन्मा प्रभु अपनी बनायी हुई धर्म-मर्यादाओं की रक्षा करनेके लिये यदुवंशियों में अवतीर्ण हुए हैं ।। २ ।। रुक्मिणी जी का महल बड़ा ही सुन्दर था। उसमें ऐसे-ऐसे चँदोवे तने हुए थे, जिन में मोतियों की लडिय़ों की झालरें लटक रही थीं। मणियों के दीपक जगमगा रहे थे ।।३।। बेला-चमेली के फूल और हार मँह-मँह मँहक रहे थे। फूलों पर झुंड-के-झुंड भौंरे गुंजार कर रहे थे। सुन्दर-सुन्दर झरोखों की जालियों में से चन्द्र माकी शुभ्र किरणें महल के भीतर छिटक रही थीं ।। ४ ।। उद्यान में पारिजात के उपवनकी सुगन्ध लेकर मन्द-मन्द शीतल वायु चल रही थी। झरोखोंकी जालियोंमेंसे अगरुके धूपका धूआँ बाहर निकल रहा था ।। ५ ।। ऐसे महलमें दूधके फेनके समान कोमल और उज्ज्वल बिछौनोंसे युक्त सुन्दर पलँगपर भगवान्‌ श्रीकृष्ण बड़े आनन्दसे विराजमान थे और रुक्मिणीजी त्रिलोकीके स्वामीको पतिरूपमें प्राप्त करके उनकी सेवा कर रही थीं ।। ६ ।। रुक्मिणीजीने अपनी सखीके हाथसे वह चँवर ले लिया, जिसमें रत्नोंकी डाँडी लगी थी और परमरूपवती लक्ष्मीरूपिणी देवी रुक्मिणीजी उसे डुला-डुलाकर भगवान्‌की सेवा करने लगीं ।। ७ ।। उनके करकमलों में जड़ाऊ अँगूठियाँ, कंगन और चँवर शोभा पा रहे थे। चरणोंमें मणिजटित पायजेब रुनझुन-रुनझुन कर रहे थे। अञ्चलके नीचे छिपे हुए स्तनोंकी केशरकी लालिमासे हार लाल-लाल जान पड़ता था और चमक रहा था। नितम्बभागमें बहुमूल्य करधनीकी लडिय़ाँ लटक रही थीं। इस प्रकार वे भगवान्‌के पास ही रहकर उनकी सेवामें संलग्र थीं ।। ८ ।। रुक्मिणीजीकी घुँघराली अलकें, कानोंके कुण्डल और गलेके स्वर्णहार अत्यन्त विलक्षण थे। उनके मुखचन्द्रसे मुसकराहटकी अमृतवर्षा हो रही थी। ये रुक्मिणीजी अलौकिक रूपलाव- ण्यवती लक्ष्मीजी ही तो हैं। उन्होंने जब देखा कि भगवान्‌ ने लीलाके लिये मनुष्यका-सा शरीर ग्रहण किया है, तब उन्होंने भी उनके अनुरूप रूप प्रकट कर दिया। भगवान्‌ श्रीकृष्ण यह देखकर बहुत प्रसन्न हुए कि रुक्मिणीजी मेरे परायण हैं, मेरी अनन्य प्रेयसी हैं। तब उन्होंने बड़े प्रेमसे मुसकराते हुए उनसे कहा ।। ९ ।।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहाराजकुमारी ! बड़े-बड़े नरपति, जिनके पास लोकपालोंके समान ऐश्वर्य और सम्पत्ति है, जो बड़े महानुभाव और श्रीमान् हैं, तथा सुन्दरता, उदारता और बलमें भी बहुत आगे बढ़े हुए हैं, तुमसे विवाह करना चाहते थे ।। १० ।। तुम्हारे पिता और भाई भी उन्हींके साथ तुम्हारा विवाह करना चाहते थे, यहाँतक कि उन्होंने वाग्दान भी कर दिया था। शिशुपाल आदि बड़े-बड़े वीरोंको, जो कामोन्मत्त होकर तुम्हारे याचक बन रहे थे, तुमने छोड़ दिया और मेरे- जैसे व्यक्तिको, जो किसी प्रकार तुम्हारे समान नहीं है, अपना पति स्वीकार किया। ऐसा तुमने क्यों किया ? ।। ११ ।। सुन्दरी ! देखो, हम जरासन्ध आदि राजाओंसे डरकर समुद्रकी शरणमें आ बसे हैं। बड़े-बड़े बलवानोंसे हमने वैर बाँध रखा है और प्राय: राजङ्क्षसहासनके अधिकारसे भी हम वञ्चित ही हैं ।। १२ ।। सुन्दरी ! हम किस मार्गके अनुयायी हैं, हमारा कौन-सा मार्ग है, यह भी लोगोंको अच्छी तरह मालूम नहीं है। हमलोग लौकिक व्यवहारका भी ठीक-ठीक पालन नहीं करते, अनुनय-विनयके द्वारा स्त्रियोंको रिझाते भी नहीं। जो स्त्रियाँ हमारे-जैसे पुरुषोंका अनुसरण करती हैं, उन्हें प्राय: कलेश-ही-कलेश भोगना पड़ता है ।। १३ ।। सुन्दरी ! हम तो सदाके अकिञ्चन हैं। न तो हमारे पास कभी कुछ था और न रहेगा। ऐसे ही अकिञ्चन लोगोंसे हम प्रेम भी करते हैं, और वे लोग भी हमसे प्रेम करते हैं। यही कारण है कि अपनेको धनी समझनेवाले लोग प्राय: हमसे प्रेम नहीं करते हमारी सेवा नहीं करते ।। १४ ।। जिनका धन, कुल, ऐश्वर्य, सौन्दर्य और आय अपने समान होती हैउन्हींसे विवाह और मित्रताका सम्बन्ध करना चाहिये। जो अपनेसे श्रेष्ठ या अधम हों, उनसे नहीं करना चाहिये ।। १५ ।। विदर्भराजकुमारी ! तुमने अपनी अदूरदर्शिताके कारण इन बातोंका विचार नहीं किया और बिना जाने-बूझे भिक्षुकोंसे मेरी झूठी प्रशंसा सुनकर मुझ गुणहीनको वरण कर लिया ।। १६ ।। अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है। तुम अपने अनुरूप किसी श्रेष्ठ क्षत्रियको वरण कर लो। जिसके द्वारा तुम्हारी इहलोक और परलोककी सारी आशा- अभिलाषाएँ पूरी हो सकें ।। १७ ।। सुन्दरी ! तुम जानती ही हो कि शिशुपाल, शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्र आदि नरपति और तुम्हारा बड़ा भाई रुक्मी सभी मुझसे द्वेष करते थे ।। १८ ।। कल्याणी ! वे सब बल-पौरुषके मदसे अंधे हो रहे थे, अपने सामने किसीको कुछ नहीं गिनते थे। उन दुष्टोंका मान मर्दन करनेके लिये ही मैंने तुम्हारा हरण किया था। और कोई कारण नहीं था ।। १९ ।। निश्चय ही हम उदासीन हैं। हम स्त्री, सन्तान और धनके लोलुप नहीं हैं। निष्क्रिय और देह-गेहसे सम्बन्धरहित दीपशिखाके समान साक्षीमात्र हैं। हम अपने आत्माके साक्षात्कारसे ही पूर्णकाम हैं, कृतकृत्य हैं ।। २० ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



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