शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— साठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— साठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-संवाद

 

श्रीशुक उवाच

एतावदुक्त्वा भगवानात्मानं वल्लभामिव

मन्यमानामविश्लेषात्तद्दर्पघ्न उपारमत् २१

इति त्रिलोकेशपतेस्तदात्मनः

प्रियस्य देव्यश्रुतपूर्वमप्रियम्

आश्रुत्य भीता हृदि जातवेपथु-

श्चिन्तां दुरन्तां रुदती जगाम ह २२

पदा सुजातेन नखारुणश्रिया

भुवं लिखन्त्यश्रुभिरञ्जनासितैः

आसिञ्चती कुङ्कुमरूषितौ स्तनौ

तस्थावधोमुख्यतिदुःखरुद्धवाक् २३

तस्याः सुदुःखभयशोकविनष्टबुद्धेर्

हस्ताच्छ्लथद्वलयतो व्यजनं पपात

देहश्च विक्लवधियः सहसैव मुह्यन्

रम्भेव वायुविहतो प्रविकीर्य केशान् २४

तद्दृष्ट्वा भगवान्कृष्णः प्रियायाः प्रेमबन्धनम्

हास्यप्रौढिमजानन्त्याः करुणः सोऽन्वकम्पत २५

पर्यङ्कादवरुह्याशु तामुत्थाप्य चतुर्भुजः

केशान्समुह्य तद्वक्त्रं प्रामृजत्पद्मपाणिना २६

प्रमृज्याश्रुकले नेत्रे स्तनौ चोपहतौ शुचा

आश्लिष्य बाहुना राजननन्यविषयां सतीम् २७

सान्त्वयामास सान्त्वज्ञः कृपया कृपणां प्रभुः

हास्यप्रौढिभ्रमच्चित्तामतदर्हां सतां गतिः २८

 

श्रीभगवानुवाच

मा मा वैदर्भ्यसूयेथा जाने त्वां मत्परायणाम्

त्वद्वचः श्रोतुकामेन क्ष्वेल्याचरितमङ्गने २९

मुखं च प्रेमसंरम्भ स्फुरिताधरमीक्षितुम्

कटाक्षेपारुणापाङ्गं सुन्दरभ्रुकुटीतटम् ३०

अयं हि परमो लाभो गृहेषु गृहमेधिनाम्

यन्नर्मैरीयते यामः प्रियया भीरु भामिनि ३१

 

श्रीशुक उवाच

सैवं भगवता राजन्वैदर्भी परिसान्त्विता

ज्ञात्वा तत्परिहासोक्तिं प्रियत्यागभयं जहौ ३२

बभाष ऋषभं पुंसां वीक्षन्ती भगवन्मुखम्

सव्रीडहासरुचिर स्निग्धापाङ्गेन भारत ३३

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके क्षणभरके लिये भी अलग न होनेके कारण रुक्मिणीजीको यह अभिमान हो गया था कि मैं इनकी सबसे अधिक प्यारी हूँ। इसी गर्वकी शान्तिके लिये इतना कहकर भगवान्‌ चुप हो गये ।। २१ ।। परीक्षित्‌ ! जब रुक्मिणीजीने अपने परम प्रियतम पति त्रिलोकेश्वर भगवान्‌ की यह अप्रिय वाणी सुनीजो पहले कभी नहीं सुनी थी, तब वे अत्यन्त भयभीत हो गयीं; उनका हृदय धडक़ने लगा, वे रोते-रोते चिन्ताके अगाध समुद्रमें डूबने-उतराने लगीं ।। २२ ।। वे अपने कमलके समान कोमल और नखोंकी लालिमासे कुछ-कुछ लाल प्रतीत होनेवाले चरणोंसे धरती कुरेदने लगीं। अञ्जनसे मिले हुए काले-काले आँसू केशरसे रँगे हुए वक्ष:स्थलको धोने लगे। मुँह नीचेको लटक गया। अत्यन्त दु:खके कारण उनकी वाणी रुक गयी और वे ठिठकी-सी रह गयीं ।। २३ ।। अत्यन्त व्यथा, भय और शोकके कारण विचारशक्ति लुप्त हो गयी, वियोगकी सम्भावनासे वे तत्क्षण इतनी दुबली हो गयीं कि उनकी कलाई का कंगन तक खिसक गया। हाथका चँवर गिर पड़ा, बुद्धिकी विकलताके कारण वे एकाएक अचेत हो गयीं, केश बिखर गये और वे वायुवेग से उखड़े हुए केलेके खंभेकी तरह धरतीपर गिर पडीं ।। २४ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरी प्रेयसी रुक्मिणीजी हास्य-विनोदकी गम्भीरता नहीं समझ रही हैं और प्रेम-पाशकी दृढ़ताके कारण उनकी यह दशा हो रही है। स्वभावसे ही परम कारुणिक भगवान्‌ श्रीकृष्णका हृदय उनके प्रति करुणासे भर गया ।। २५ ।। चार भुजाओंवाले वे भगवान्‌ उसी समय पलँग से उतर पड़े और रुक्मिणीजीको उठा लिया तथा उनके खुले हुए केशपाशों को बाँधकर अपने शीतल करकमलों से उनका मुँह पोंछ दिया ।। २६ ।। भगवान्‌ ने उनके नेत्रों के आँसू और शोक के आँसुओं से भींगे हुए स्तनों को पोंछकर अपने प्रति अनन्य प्रेमभाव रखनेवाली उन सती रुक्मिणीजीको बाँहोंमें भरकर छातीसे लगा लिया ।। २७ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्ण समझाने-बुझानेमें बड़े कुशल और अपने प्रेमी भक्तोंके एकमात्र आश्रय हैं। जब उन्होंने देखा कि हास्यकी गम्भीरताके कारण रुक्मिणीजीकी बुद्धि चक्करमें पड़ गयी है और वे अत्यन्त दीन हो रही हैं, तब उन्होंने इस अवस्थाके अयोग्य अपनी प्रेयसी रुक्मिणीजीको समझाया ।। २८ ।।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहाविदर्भनन्दिनी ! तुम मुझसे बुरा मत मानना। मुझसे रूठना नहीं। मैं जानता हूँ कि तुम एकमात्र मेरे ही परायण हो। मेरी प्रिय सहचरी ! तुम्हारी प्रेमभरी बात सुननेके लिये ही मैंने हँसी-हँसीमें यह छलना की थी ।। २९ ।। मैं देखना चाहता था कि मेरे यों कहनेपर तुम्हारे लाल-लाल होठ प्रणय-कोपसे किस प्रकार फडक़ने लगते हैं। तुम्हारे कटाक्षपूर्वक देखनेसे नेत्रोंमें कैसी लाली छा जाती है और भौंहें चढ़ जानेके कारण तुम्हारा मुँह कैसा सुन्दर लगता है ।। ३० ।। मेरी परमप्रिये ! सुन्दरी ! घरके काम-धंधोंमें रात-दिन लगे रहनेवाले गृहस्थोंके लिये घर-गृहस्थीमें इतना ही तो परम लाभ है कि अपनी प्रिय अद्र्धाङ्गिनीके साथ हास-परिहास करते हुए कुछ घडिय़ाँ सुखसे बिता ली जाती हैं ।। ३१ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैंराजन् ! जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपनी प्राणप्रियाको इस प्रकार समझाया-बुझाया, तब उन्हें इस बातका विश्वास हो गया कि मेरे प्रियतमने केवल परिहासमें ही ऐसा कहा था। अब उनके हृदय से यह भय जाता रहा कि प्यारे हमें छोड़ देंगे ।। ३२ ।। परीक्षित्‌ ! अब वे सलज्ज हास्य और प्रेमपूर्ण मधुर चितवन से पुरुषभूषण भगवान्‌ श्रीकृष्ण का मुखारविन्द निरखती हुई उनसे कहने लगीं।। ३३ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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