॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— साठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-संवाद
श्रीरुक्मिण्युवाच
नन्वेवमेतदरविन्दविलोचनाह
यद्वै भवान्भगवतोऽसदृशी विभूम्नः
क्व स्वे महिम्न्यभिरतो भगवांस्त्र्यधीशः
क्वाहं गुणप्रकृतिरज्ञगृहीतपादा ३४
सत्यं भयादिव गुणेभ्य उरुक्रमान्तः
शेते समुद्र उपलम्भनमात्र आत्मा
नित्यं कदिन्द्रियगणैः कृतविग्रहस्त्वं
त्वत्सेवकैर्नृपपदं विधुतं तमोऽन्धम् ३५
त्वत्पादपद्ममकरन्दजुषां मुनीनां
वर्त्मास्फुटं नृपशुभिर्ननु दुर्विभाव्यम्
यस्मादलौकिकमिवेहितमीश्वरस्य
भूमंस्तवेहितमथो अनु ये भवन्तम् ३६
निष्किञ्चनो ननु भवान्न यतोऽस्ति किञ्चिद्
यस्मै बलिं बलिभुजोऽपि हरन्त्यजाद्याः
न त्वा विदन्त्यसुतृपोऽन्तकमाढ्यतान्धाः
प्रेष्ठो भवान्बलिभुजामपि तेऽपि तुभ्यम् ३७
त्वं वै समस्तपुरुषार्थमयः फलात्मा
यद्वाञ्छया सुमतयो विसृजन्ति कृत्स्नम्
तेषां विभो समुचितो भवतः समाजः
पुंसः स्त्रियाश्च रतयोः सुखदुःखिनोर्न ३८
त्वं न्यस्तदण्डमुनिभिर्गदितानुभाव
आत्मात्मदश्च जगतामिति मे वृतोऽसि
हित्वा भवद्भ्रुव उदीरितकालवेग
ध्वस्ताशिषोऽब्जभवनाकपतीन्कुतोऽन्ये ३९
जाड्यं वचस्तव गदाग्रज यस्तु भूपान्
विद्राव्य शार्ङ्गनिनदेन जहर्थ मां त्वम्
सिंहो यथा स्वबलिमीश पशून्स्वभागं
तेभ्यो भयाद्यदुदधिं शरणं प्रपन्नः ४०
यद्वाञ्छया नृपशिखामणयोऽङ्गवैन्य
जायन्तनाहुषगयादय ऐक्यपत्यम्
राज्यं विसृज्य विविशुर्वनमम्बुजाक्ष
सीदन्ति तेऽनुपदवीं त इहास्थिताः किम् ४१
कान्यं श्रयेत तव पादसरोजगन्धम्
आघ्राय सन्मुखरितं जनतापवर्गम्
लक्ष्म्यालयं त्वविगणय्य गुणालयस्य
मर्त्या सदोरुभयमर्थविवीतदृष्टिः ४२
तं त्वानुरूपमभजं जगतामधीशम्
आत्मानमत्र च परत्र च कामपूरम्
स्यान्मे तवाङ्घ्रिररणं सृतिभिर्भ्रमन्त्या
यो वै भजन्तमुपयात्यनृतापवर्गः ४३
तस्याः स्युरच्युत नृपा भवतोपदिष्टाः
स्त्रीणां गृहेषु खरगोश्वविडालभृत्याः
यत्कर्णमूलमरिकर्षण नोपयायाद्
युष्मत्कथा मृडविरिञ्चसभासु गीता ४४
त्वक्श्मश्रुरोमनखकेशपिनद्धमन्तर्
मांसास्थिरक्तकृमिविट्कफपित्तवातम्
जीवच्छवं भजति कान्तमतिर्विमूढा
या ते पदाब्जमकरन्दमजिघ्रती स्त्री ४५
अस्त्वम्बुजाक्ष मम ते चरणानुराग
आत्मन्रतस्य मयि चानतिरिक्तदृष्टेः
यर्ह्यस्य वृद्धय उपात्तरजोऽतिमात्रो
मामीक्षसे तदु ह नः परमानुकम्पा ४६
नैवालीकमहं मन्ये वचस्ते मधुसूदन
अम्बाया एव हि प्रायः कन्यायाः स्याद्रतिः क्वचित् ४७
व्यूढायाश्चापि पुंश्चल्या मनोऽभ्येति नवं नवम्
बुधोऽसतीं न बिभृयात्तां बिभ्रदुभयच्युतः ४८
रुक्मिणीजीने
कहा—कमलनयन ! आपका यह कहना ठीक है
कि ऐश्वर्य आदि समस्त गुणोंसे युक्त, अनन्त भगवान् के
अनुरूप मैं नहीं हूँ। आपकी समानता मैं किसी प्रकार नहीं कर सकती। कहाँ तो अपनी
अखण्ड महिमामें स्थित, तीनों गुणोंके स्वामी तथा ब्रह्मा आदि
देवताओंसे सेवित आप भगवान्; और कहाँ तीनों गुणोंके अनुसार
स्वभाव रखनेवाली गुणमयी प्रकृति मैं, जिसकी सेवा कामनाओंके
पीछे भटकनेवाले अज्ञानी लोग ही करते हैं ।। ३४ ।। भला, मैं
आपके समान कब हो सकती हूँ। स्वामिन् ! आपका यह कहना भी ठीक ही है कि आप राजाओंके
भयसे समुद्रमें आ छिपे हैं। परंतु राजा शब्दका अर्थ पृथ्वीके राजा नहीं, तीनों गुणरूप राजा हैं। मानो आप उन्हींके भयसे अन्त:करणरूप समुद्रमें
चैतन्यघन अनुभूतिस्वरूप आत्माके रूपमें विराजमान रहते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि आप
राजाओंसे वैर रखते हैं, परंतु वे राजा कौन हैं ? यही अपनी दुष्ट इन्द्रियाँ। इनसे तो आपका वैर है ही। और प्रभो ! आप राजसिंहासन
से रहित हैं, यह भी ठीक ही है। क्योंकि आपके चरणों की सेवा
करनेवालों ने भी राजाके पद को घोर अज्ञानान्धकार समझकर दूरसे ही दुत्कार रखा है।
फिर आपके लिये तो कहना ही क्या है ।। ३५ ।। आप कहते हैं कि हमारा मार्ग स्पष्ट
नहीं है और हम लौकिक पुरुषों-जैसा आचरण भी नहीं करते; यह बात
भी निस्सन्देह सत्य है। क्योंकि जो ऋषि-मुनि आपके पादपद्मों का मकरन्द-रस सेवन
करते हैं, उनका मार्ग भी अस्पष्ट रहता है और विषयोंमें उलझे
हुए नरपशु उसका अनुमान भी नहीं लगा सकते। और हे अनन्त ! आपके मार्गपर चलनेवाले
आपके भक्तोंकी भी चेष्टाएँ जब प्राय: अलौकिक ही होती हैं, तब
समस्त शक्तियों और ऐश्वर्यों के आश्रय आपकी चेष्टाएँ अलौकिक हों इसमें तो कहना ही
क्या है ?।। ३६ ।। आपने अपने को अकिञ्चन बतलाया है। परंतु
आपकी अकिञ्चनता दरिद्रता नहीं है। उसका अर्थ यह है कि आपके अतिरिक्त और कोई वस्तु
न होनेके कारण आप ही सब कुछ हैं। आपके पास रखनेके लिये कुछ नहीं है। परंतु जिन
ब्रह्मा आदि देवताओंकी पूजा सब लोग करते हैं, भेंट देते हैं,
वे ही लोग आपकी पूजा करते रहते हैं। आप उनके प्यारे हैं, और वे आपके प्यारे हैं। (आपका यह कहना भी सर्वथा उचित है कि धनाढ्य लोग
मेरा भजन नहीं करते;) जो लोग अपनी धनाढ्यता के अभिमानसे अंधे
हो रहे हैं और इन्द्रियोंको तृप्त करनेमें ही लगे हैं, वे न
तो आपका भजन-सेवन ही करते और न तो यह जानते हैं कि आप मृत्युके रूपमें उनके सिरपर
सवार हैं ।। ३७ ।। जगत् में जीवके लिये जितने भी वाञ्छनीय पदार्थ हैं—धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—उन सबके रूपमें आप ही प्रकट हैं। आप समस्त
वृत्तियों—प्रवृत्तियों, साधनों,
सिद्धियों और साध्योंके फलस्वरूप हैं। विचारशील पुरुष आपको प्राप्त
करनेके लिये सब कुछ छोड़ देते हैं। भगवन् ! उन्हीं विवेकी पुरुषोंका आपके साथ
सम्बन्ध होना चाहिये। जो लोग स्त्री-पुरुषके सहवाससे प्राप्त होनेवाले सुख या
दु:खके वशीभूत हैं, वे कदापि आपका सम्बन्ध प्राप्त करनेके
योग्य नहीं हैं ।। ३८ ।। यह ठीक है कि भिक्षुकोंने आपकी प्रशंसा की है। परंतु किन
भिक्षुकोंने ? उन परमशान्त संन्यासी महात्माओंने आपकी महिमा
और प्रभावका वर्णन किया है, जिन्होंने अपराधी-से-अपराधी
व्यक्तिको भी दण्ड न देनेका निश्चय कर लिया है। मैंने अदूरदर्शिता से नहीं,
इस बातको समझते हुए आपको वरण किया है कि आप सारे जगत्के आत्मा हैं
और अपने प्रेमियोंको आत्मदान करते हैं। मैंने जानबूझकर उन ब्रह्मा और देवराज
इन्द्र आदिका भी इसलिये परित्याग कर दिया है कि आपकी भौंहोंके इशारेसे पैदा
होनेवाला काल अपने वेगसे उनकी आशा-अभिलाषाओंपर पानी फेर देता है। फिर दूसरोंकी—शिशुपाल, दन्तवक्र या जरासन्धकी तो बात ही क्या है ?।। ३९ ।।
सर्वेश्वर
आर्यपुत्र ! आपकी यह बात किसी प्रकार युक्तिसङ्गत नहीं मालूम होती कि आप राजाओंसे
भयभीत होकर समुद्रमें आ बसे हैं। क्योंकि आपने केवल अपने शार्ङ्गधनुष के टङ्कार से
मेरे विवाहके समय आये हुए समस्त राजाओंको भगाकर अपने चरणोंमें समॢपत मुझ दासी को
उसी प्रकार हरण कर लिया, जैसे सिंह अपनी कर्कश
ध्वनिसे वन-पशुओंको भगाकर अपना भाग ले आवे ।। ४० ।। कमलनयन ! आप कैसे कहते हैं कि
जो मेरा अनुसरण करता है, उसे प्राय: कष्ट ही उठाना पड़ता है।
प्राचीन कालके अङ्ग, पृथु, भरत,
ययाति और गय आदि जो बड़े-बड़े राज- राजेश्वर अपना-अपना एकछत्र
साम्राज्य छोडक़र आपको पानेकी अभिलाषासे तपस्या करने वनमें चले गये थे, वे आपके मार्गका अनुसरण करनेके कारण क्या किसी प्रकारका कष्ट उठा रहे हैं
।। ४१ ।। आप कहते हैं कि तुम और किसी राजकुमारका वरण कर लो। भगवन् ! आप समस्त
गुणोंके एकमात्र आश्रय हैं। बड़े-बड़े संत आपके चरणकमलोंकी सुगन्धका बखान करते
रहते हैं। उसका आश्रय लेनेमात्रसे लोग संसारके पाप-तापसे मुक्त हो जाते हैं।
लक्ष्मी सर्वदा उन्हींमें निवास करती हैं। फिर आप बतलाइये कि अपने स्वार्थ और
परमार्थको भली-भाँति समझनेवाली ऐसी कौन-सी स्त्री है, जिसे
एक बार उन चरणकमलोंकी सुगन्ध सूँघनेको मिल जाय और फिर वह उनका तिरस्कार करके ऐसे
लोगोंको वरण करे जो सदा मृत्यु, रोग, जन्म,
जरा आदि भयोंसे युक्त हैं ! कोई भी बुद्धिमती स्त्री ऐसा नहीं कर
सकती ।। ४२ ।। प्रभो ! आप सारे जगत्के एकमात्र स्वामी हैं। आप ही इस लोक और
परलोकमें समस्त आशाओंको पूर्ण करनेवाले एवं आत्मा हैं। मैंने आपको अपने अनुरूप
समझकर ही वरण किया है। मुझे अपने कर्मोंके अनुसार विभिन्न योनियोंमें भटकना पड़े,
इसकी मुझको परवा नहीं है। मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि मैं सदा
अपना भजन करनेवालोंका मिथ्या संसारभ्रम निवृत्त करनेवाले तथा उन्हें अपना स्वरूपतक
दे डालनेवाले आप परमेश्वरके चरणोंकी शरणमें रहूँ ।। ४३ ।। अच्युत ! शत्रुसूदन !
गधोंके समान घरका बोझा ढोनेवाले, बैलोंके समान गृहस्थीके
व्यापारोंमें जुते रहकर कष्ट उठानेवाले, कुत्तोंके समान
तिरस्कार सहनेवाले, बिलावके समान कृपण और हिंसक तथा क्रीत
दासोंके समान स्त्रीकी सेवा करनेवाले शिशुपाल आदि राजालोग, जिन्हें
वरण करनेके लिये आपने मुझे संकेत किया है—उसी अभागिनी
स्त्रीके पति हों, जिनके कानोंमें भगवान् शङ्कर, ब्रह्मा आदि देवेश्वरोंकी सभामें गायी जानेवाली आपकी लीलाकथाने प्रवेश
नहीं किया है ।। ४४ ।। यह मनुष्यका शरीर जीवित होनेपर भी मुर्दा ही है। ऊपरसे
चमड़ी, दाढ़ी-मूँछ, रोएँ, नख और केशोंसे ढका हुआ है; परंतु इसके भीतर मांस,
हड्डी, खून, कीड़े,
मल-मूत्र, कफ, पित्त और
वायु भरे पड़े हैं। इसे वही मूढ स्त्री अपना प्रियतम पति समझकर सेवन करती है,
जिसे कभी आपके चरणारविन्दके मकरन्दकी सुगन्ध सूँघनेको नहीं मिली है
।। ४५ ।। कमलनयन ! आप आत्माराम हैं। मैं सुन्दरी अथवा गुणवती हूँ, इन बातोंपर आपकी दृष्टि नहीं जाती। अत: आपका उदासीन रहना स्वाभाविक है,
फिर भी आपके चरणकमलोंमें मेरा सुदृढ़ अनुराग हो, यही मेरी अभिलाषा है। जब आप इस संसारकी अभिवृद्धिके लिये उत्कट रजोगुण
स्वीकार करके मेरी ओर देखते हैं, तब वह भी आपका परम अनुग्रह
ही है ।। ४६ ।। मधुसूदन ! आपने कहा कि किसी अनुरूप वरको वरण कर लो। मैं आपकी इस
बातको भी झूठ नहीं मानती। क्योंकि कभी-कभी एक पुरुषके द्वारा जीती जानेपर भी
काशी-नरेशकी कन्या अम्बाके समान किसी-किसीकी दूसरे पुरुषमें भी प्रीति रहती है ।।
४७ ।। कुलटा स्त्रीका मन तो विवाह हो जानेपर भी नये-नये पुरुषोंकी ओर खिंचता रहता है।
बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह ऐसी कुलटा स्त्रीको अपने पास न रखे। उसे
अपनानेवाला पुरुष लोक और परलोक दोनों खो बैठता है, उभयभ्रष्ट
हो जाता है ।। ४८ ।।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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