॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— साठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-संवाद
श्रीभगवानुवाच
साध्व्येतच्छ्रोतुकामैस्त्वं राजपुत्री प्रलम्भिता
मयोदितं यदन्वात्थ सर्वं तत्सत्यमेव हि ४९
यान्यान्कामयसे कामान्मय्यकामाय भामिनि
सन्ति ह्येकान्तभक्तायास्तव कल्याणि नित्यद ५०
उपलब्धं पतिप्रेम पातिव्रत्यं च तेऽनघे
यद्वाक्यैश्चाल्यमानाया न धीर्मय्यपकर्षिता ५१
ये मां भजन्ति दाम्पत्ये तपसा व्रतचर्यया
कामात्मानोऽपवर्गेशं मोहिता मम मायया ५२
मां प्राप्य मानिन्यपवर्गसम्पदं
वाञ्छन्ति ये सम्पद एव तत्पतिम्
ते मन्दभागा निरयेऽपि ये नृणां
मात्रात्मकत्वात्निरयः सुसङ्गमः ५३
दिष्ट्या गृहेश्वर्यसकृन्मयि त्वया
कृतानुवृत्तिर्भवमोचनी खलैः
सुदुष्करासौ सुतरां दुराशिषो
ह्यसुंभराया निकृतिं जुषः स्त्रियाः ५४
न त्वादृशीम्प्रणयिनीं गृहिणीं गृहेषु
पश्यामि मानिनि यया स्वविवाहकाले
प्राप्तान्नृपान्न विगणय्य रहोहरो मे
प्रस्थापितो द्विज उपश्रुतसत्कथस्य ५५
भ्रातुर्विरूपकरणं युधि निर्जितस्य
प्रोद्वाहपर्वणि च तद्वधमक्षगोष्ठ्याम्
दुःखं समुत्थमसहोऽस्मदयोगभीत्या
नैवाब्रवीः किमपि तेन वयं जितास्ते ५६
दूतस्त्वयात्मलभने सुविविक्तमन्त्रः
प्रस्थापितो मयि चिरायति शून्यमेतत्
मत्वा जिहास इदं अङ्गमनन्ययोग्यं
तिष्ठेत तत्त्वयि वयं प्रतिनन्दयामः ५७
श्रीशुक उवाच
एवं सौरतसंलापैर्भगवान्जगदीश्वरः
स्वरतो रमया रेमे नरलोकं विडम्बयन् ५८
तथान्यासामपि विभुर्गृहेषु गृहवानिव
आस्थितो गृहमेधीयान्धर्मांल्लोकगुरुर्हरिः ५९
भगवान्
श्रीकृष्णने कहा—साध्वी! राजकुमारी ! यही
बातें सुननेके लिये तो मैंने तुमसे हँसी- हँसीमें तुम्हारी वञ्चना की थी, तुम्हें छकाया था। तुमने मेरे वचनोंकी जैसी व्याख्या की है, वह अक्षरश: सत्य है ।। ४९ ।। सुन्दरी ! तुम मेरी अनन्य प्रेयसी हो। मेरे
प्रति तुम्हारा अनन्य प्रेम है। तुम मुझसे जो-जो अभिलाषाएँ करती हो, वे तो तुम्हें सदा-सर्वदा प्राप्त ही हैं। और यह बात भी है कि मुझसे की
हुई अभिलाषाएँ सांसारिक कामनाओंके समान बन्धनमें डालनेवाली नहीं होतीं, बल्कि वे समस्त कामनाओंसे मुक्त कर देती हैं ।। ५० ।। पुण्यमयी प्रिये !
मैंने तुम्हारा पतिप्रेम और पातिव्रत्य भी भलीभाँति देख लिया। मैंने उलटी-सीधी बात
कह-कहकर तुम्हें विचलित करना चाहा था; परंतु तुम्हारी बुद्धि
मुझसे तनिक भी इधर-उधर न हुई ।। ५१ ।। प्रिये ! मैं मोक्षका स्वामी हूँ। लोगोंको
संसार-सागरसे पार करता हूँ। जो सकाम पुरुष अनेक प्रकारके व्रत और तपस्या करके
दाम्पत्य-जीवनके विषय-सुखकी अभिलाषासे मेरा भजन करते हैं, वे
मेरी मायासे मोहित हैं।। ५२ ।। मानिनी प्रिये ! मैं मोक्ष तथा सम्पूर्ण सम्पदाओंका
आश्रय हूँ, अधीश्वर हूँ। मुझ परमात्मा को प्राप्त करके भी जो
लोग केवल विषयसुख के साधन सम्पत्ति की ही अभिलाषा करते हैं, मेरी
पराभक्ति नहीं चाहते, वे बड़े मन्दभागी हैं, क्योंकि विषयसुख तो नरकमें और नरक के ही समान सूकर-कूकर आदि योनियों में
भी प्राप्त हो सकते हैं। परंतु उन लोगों का मन तो विषयों में ही लगा रहता है,इसलिये उन्हें नरक में जाना भी अच्छा जान पड़ता है ।। ५३ ।। गृहेश्वरी
प्राणप्रिये ! यह बड़े आनन्दकी बात है कि तुमने अबतक निरन्तर संसार-बन्धन से मुक्त
करनेवाली मेरी सेवा की है। दुष्ट पुरुष ऐसा कभी नहीं कर सकते। जिन स्त्रियोंका चित्त
दूषित कामनाओंसे भरा हुआ है और जो अपनी इन्द्रियों की तृप्ति में ही लगी रहनेके
कारण अनेकों प्रकार के छल-छन्द रचती रहती हैं, उनके लिये तो
ऐसा करना और भी कठिन है ।।५४।। मानिनि ! मुझे अपने घरभर में तुम्हारे समान प्रेम
करनेवाली भार्या और कोई दिखायी नहीं देती। क्योंकि जिस समय तुमने मुझे देखा न था,
केवल मेरी प्रशंसा सुनी थी, उस समय भी अपने
विवाह में आये हुए राजाओं की उपेक्षा करके ब्राह्मण के द्वारा मेरे पास गुप्त
सन्देश भेजा था ।। ५५ ।। तुम्हारा हरण करते समय मैंने तुम्हारे भाईको युद्धमें
जीतकर उसे विरूप कर दिया था और अनिरुद्ध के विवाहोत्सव में चौसर खेलते समय बलरामजी
ने तो उसे मार ही डाला। किन्तु हमसे वियोग हो जानेकी आशङ्का से तुमने चुपचाप वह
सारा दु:ख सह लिया। मुझसे एक बात भी नहीं कही। तुम्हारे इस गुणसे मैं तुम्हारे वश
हो गया हूँ ।। ५६ ।। तुमने मेरी प्राप्तिके लिये दूत के द्वारा अपना गुप्त सन्देश
भेजा था; परंतु जब तुमने मेरे पहुँचने में कुछ विलम्ब होता
देखा; तब तुम्हें यह सारा संसार सूना दीखने लगा। उस समय
तुमने अपना यह सर्वाङ्गसुन्दर शरीर किसी दूसरे के योग्य न समझकर इसे छोडऩेका
संकल्प कर लिया था। तुम्हारा यह प्रेमभाव तुम्हारे ही अंदर रहे। हम इसका बदला नहीं
चुका सकते। तुम्हारे इस सर्वोच्च प्रेम-भावका केवल अभिनन्दन करते हैं ।। ५७ ।।
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! जगदीश्वर भगवान्
श्रीकृष्ण आत्माराम हैं। वे जब मनुष्योंकी-सी लीला कर रहे हैं, तब उसमें दाम्पत्य-प्रेमको बढ़ानेवाले विनोदभरे वार्तालाप भी करते हैं और
इस प्रकार लक्ष्मीरूपिणी रुक्मिणीजीके साथ विहार करते हैं ।। ५८ ।। भगवान्
श्रीकृष्ण समस्त जगत् को शिक्षा देनेवाले
और सर्वव्यापक हैं। वे इसी प्रकार दूसरी पत्नियोंके महलोंमें भी गृहस्थोंके समान
रहते और गृहस्थोचित धर्मका पालन करते थे ।। ५९ ।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तार्धे कृष्णरुक्मिणीसंवादो नाम
षष्टितमोऽध्यायः
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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