॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)
वेदस्तुति
द्युपतय एव ते न ययुरन्तमनन्ततया
त्वमपि
यदन्तराण्डनिचया ननु सावरणाः ।
ख इव रजांसि वान्ति
वयसा सह यत् श्रुतयः
त्वयि हि
फलन्त्यतन्निरसनेन भवन्निधनाः ॥ ४१ ॥
श्रीभगवानुवाच -
इत्येतद्ब्रह्मणः पुत्रा आश्रुत्यात्मानुशासनम् ।
सनन्दनमथानर्चुः
सिद्धा ज्ञात्वाऽऽत्मनो गतिम् ॥ ४२ ॥
इत्यशेषसमाम्नाय
पुराणोपनिषद्रसः ।
समुद्धृतः
पूर्वजातैः व्योमयानैर्महात्मभिः ॥ ४३ ॥
त्वं चैतद्ब्रह्मदायाद
श्रद्धयाऽऽत्मानुशासनम् ।
धारयंश्चर गां कामं
कामानां भर्जनं नृणाम् ॥ ४४ ॥
श्रीशुक उवाच -
एवं स ऋषिणाऽऽदिष्टं
गृहीत्वा श्रद्धयात्मवान् ।
पूर्णः श्रुतधरो राजन् आह
वीरव्रतो मुनिः ॥ ४५ ॥
श्रीनारद उवाच -
नमस्तस्मै भगवते
कृष्णायामलकीर्तये ।
यो धत्ते सर्वभूतानां
अभवायोशतीः कलाः ॥ ४६ ॥
इत्याद्यमृषिमानम्य
तच्छिष्यांश्च महात्मनः ।
ततोऽगाद् आश्रमं साक्षात्
पितुर्द्वैपायनस्य मे ॥ ४७ ॥
सभाजितो भगवता
कृतासनपरिग्रहः ।
तस्मै तद् वर्णयामास
नारायणमुखाच्छ्रुतम् ॥ ४८ ॥
इत्येतद् वर्णितं राजन्
यन्नः प्रश्नः कृतस्त्वया ।
यथा ब्रह्मण्यनिर्देश्ये
नीऋगुणेऽपि मनश्चरेत् ॥ ४९ ॥
योऽस्योत्प्रेक्षक
आदिमध्यनिधने योऽव्यक्तजीवेश्वरो
यः सृष्ट्वेदमनुप्रविश्य
ऋषिणा चक्रे पुरः शास्ति ताः ।
यं सम्पद्य जहात्यजामनुशयी
सुप्तः कुलायं यथा
तं कैवल्यनिरस्तयोनिमभयं
ध्यायेदजस्रं हरिम् ॥ ५० ॥
भगवन् ! स्वर्गादि लोकोंके अधिपति इन्द्र, ब्रह्मा प्रभृति भी आपकी थाह—आपका पार न
पा सके; और आश्चर्यकी बात तो यह है कि आप भी उसे नहीं जानते।
क्योंकि जब अन्त है ही नहीं, तब कोई जानेगा कैसे ? प्रभो ! जैसे आकाशमें हवासे धूलके नन्हें-नन्हें कण उड़ते रहते हैं,
वैसे ही आपमें कालके वेगसे अपनेसे उत्तरोत्तर दसगुने सात आवरणोंके
सहित असंख्य ब्रह्माण्ड एक साथ ही घूमते रहते हैं। तब भला, आपकी
सीमा कैसे मिले। हम श्रुतियाँ भी आपके स्वरूपका साक्षात् वर्णन नहीं कर सकतीं,
आपके अतिरिक्त वस्तुओंका निषेध करते-करते अन्तमें अपना भी निषेध कर
देती हैं और आपमें ही अपनी सत्ता खोकर सफल हो जाती हैं[28] ॥
४१ ॥
भगवान् नारायण ने कहा—देवर्षे!
इस प्रकार सनकादि ऋषियोंने आत्मा और ब्रह्मकी एकता बतलानेवाला उपदेश सुनकर
आत्मस्वरूपको जाना और नित्य सिद्ध होनेपर भी इस उपदेशसे कृतकृत्य-से होकर उन
लोगोंने सनन्दनकी पूजा की ॥ ४२ ॥ नारद ! सनकादि ऋषि सृष्टिके आरम्भमें उत्पन्न हुए
थे, अतएव वे सबके पूर्वज हैं। उन आकाशगामी महात्माओंने इस
प्रकार समस्त वेद, पुराण और उपनिषदोंका रस निचोड़ लिया है,
यह सबका सार-सर्वस्व है ॥ ४३ ॥ देवर्षे ! तुम भी उन्हींके समान
ब्रह्माके मानस-पुत्र हो—उनकी ज्ञान-सम्पत्तिके उत्तराधिकारी
हो। तुम भी श्रद्धाके साथ इस ब्रह्मात्मविद्याको धारण करो और स्वच्छन्दभावसे
पृथ्वीमें विचरण करो। यह विद्या मनुष्योंकी समस्त वासनाओंको भस्म कर देनेवाली है ॥
४४ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्
! देवर्षि नारद बड़े संयमी, ज्ञानी, पूर्णकाम
और नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं। वे जो कुछ सुनते हैं, उन्हें
उसकी धारणा हो जाती है। भगवान् नारायण ने उन्हें जब इस प्रकार उपदेश किया,
तब उन्होंने बड़ी श्रद्धासे उसे ग्रहण किया और उनसे यह कहा ॥ ४५ ॥
देवर्षि
नारदने कहा—भगवन् ! आप सच्चिदानन्दस्वरूप
श्रीकृष्ण हैं। आपकी कीर्ति परम पवित्र है। आप समस्त प्राणियोंके परम कल्याण—मोक्षके लिये कमनीय कलावतार धारण किया करते हैं। मैं आपको नमस्कार करता
हूँ ॥ ४६ ॥
परीक्षित् !
इस प्रकार महात्मा देवर्षि नारद आदि ऋषि भगवान् नारायणको और उनके शिष्योंको
नमस्कार करके स्वयं मेरे पिता श्रीकृष्णद्वैपायनके आश्रमपर गये ॥ ४७ ॥ भगवान्
वेदव्यासने उनका यथोचित सत्कार किया। वे आसन स्वीकार करके बैठ गये, इसके बाद देवर्षि नारद ने जो कुछ भगवान्
नारायणके मुँहसे सुना था, वह सब कुछ मेरे पिताजीको सुना दिया
॥ ४८ ॥ राजन् ! इस प्रकार मैंने तुम्हें बतलाया कि मन-वाणीसे अगोचर और समस्त
प्राकृत गुणोंसे रहित परब्रह्म परमात्माका वर्णन श्रुतियाँ किस प्रकार करती हैं और
उसमें मनका कैसे प्रवेश होता है ? यही तो तुम्हारा प्रश्न था
॥ ४९ ॥ परीक्षित् ! भगवान् ही इस विश्वका सङ्कल्प करते हैं तथा उसके आदि,
मध्य और अन्तमें स्थित रहते हैं। वे प्रकृति और जीव दोनोंके स्वामी
हैं। उन्होंने ही इसकी सृष्टि करके जीवके साथ इसमें प्रवेश किया है और शरीरोंका
निर्माण करके वे ही उनका नियन्त्रण करते हैं। जैसे गाढ़ निद्रा—सुषुप्तिमें मग्न पुरुष अपने शरीरका अनुसन्धान छोड़ देता है, वैसे ही भगवान्को पाकर यह जीव मायासे मुक्त हो जाता है। भगवान् ऐसे
विशुद्ध, केवल चिन्मात्र तत्त्व हैं कि उनमें जगत् के कारण
माया अथवा प्रकृतिका रत्तीभर भी अस्तित्व नहीं है। वे ही वास्तवमें अभय-स्थान हैं।
उनका चिन्तन निरन्तर करते रहना चाहिये ॥ ५० ॥
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[28]द्युपतयो विदुरन्तमनन्त ते
न च भवान्न गिर: श्रुतिमौलय:॥१९॥
त्वयि फलन्ति
यतो नम इत्यतो जय जयेति भजे तव तत्पदम्॥२८॥
हे अनन्त !
ब्रह्मा आदि देवता आपका अन्त नहीं जानते, न आप ही जानते और न तो वेदोंकी मुकुटमणि उपनिषदें ही जानती
हैं; क्योंकि आप अनन्त हैं। उपनिषदें ‘नमो
नम:’, ‘जय हो, जय हो’ यह कहकर आपमें चरितार्थ होती हैं। इसलिये मैं भी ‘नमो
नम:’, ‘जय हो’ ‘जय हो’ यही कहकर आपके चरण-कमलकी उपासना करता हूँ
[1] इन श्लोकों पर श्री श्रीधरस्वामी
ने बहुत सुन्दर श्लोक लिखे हैं, वे अर्थसहित यहाँ दिये जाते
है—
जय जयाजित
जह्यगजङ्गमावृतिमजामुपनीतमृषागुणाम्॥
न हि
भवन्तमृते प्रभवन्त्यमी निगमगीतगुणार्णवता तव॥१॥
अजित ! आपकी
जय हो; जय हो ! झूठे गुण धारण करके
चराचर जीवको आच्छादित करनेवाली इस मायाको नष्ट कर दीजिये। आपके बिना बेचारे जीव
इसको नहीं मार सकेंगे—नहीं पार कर सकेंगे। वेद इस बातका गान
करते रहते हैं कि आप सकल सद्गुणोंके समुद्र हैं।
[2] द्रुहिणवह्निरवीन्द्रमुखामरा
जगदिदं न भवेत्पृथगुत्थितम्॥
बहुमुखैरपि
मन्त्रगणैरजस्त्वमुरुमूर्तिरतो विनिगद्यसे॥२॥
ब्रह्मा, अग्नि, सूर्य,
इन्द्र आदि देवता तथा यह सम्पूर्ण जगत् प्रतीत होनेपर भी आपसे पृथक्
नहीं है। इसलिये अनेक देवताओंका प्रतिपादन करनेवाले वेद- मन्त्र उन देवताओंके
नामसे पृथक्-पृथक् आपकी ही विभिन्न मूर्तियोंका वर्णन करते हैं। वस्तुत: आप अजन्मा
हैं; उन मूर्तियोंके रूपमें भी आपका जन्म नहीं होता।
[3] सकलवेदगणेरितसद्गुणस्त्वमिति
सर्वमनीषिजना रता:॥३॥
त्वयि
सुभद्रगुणश्रवणादिभिस्तव पदस्मरणेन गतक्लमा:॥३॥
सारे वेद आपके
सद्गुणोंका वर्णन करते हैं। इसलिये संसारके सभी विद्वान् आपके मङ्गलमय कल्याणकारी
गुणोंके श्रवण, स्मरण आदिके द्वारा आपसे ही
प्रेम करते हैं, और आपके चरणोंका स्मरण करके सम्पूर्ण
क्लेशोंसे मुक्त हो जाते हैं।
[4]नरवपु: प्रतिपद्य यदि त्वयि
श्रवणवर्णनसंस्मरणादिभि:॥४॥
नरहरे ! न
भजन्ति नृणामिदं दृतिवदुच्छ्वसितं विफलं तत:॥४॥
नरहरे !
मनुष्य शरीर प्राप्त करके यदि जीव आपके श्रवण,
वर्णन और संस्मरण आदि के द्वारा आपका भजन नहीं करते तो जीवों का
श्वास लेना धौंकनीं के समान ही सर्वथा व्यर्थ है।
[5] उदरादिषु य: पुंसां
चिन्तितो मुनिवत्र्मभि:॥५॥
हन्ति
मृत्युभयं देवो हृद्गतं तमुपास्महे॥५॥
मनुष्य
ऋषि-मुनियोंके द्वारा बतलायी हुई पद्धतियोंसे उदर आदि स्थानोंमें जिनका चिन्तन
करते हैं और जो प्रभु उनके चिन्तन करनेपर मृत्यु-भयका नाश कर देते हैं, उन हृदयदेशमें विराजमान प्रभुकी हम उपासना
करते हैं।
[6] स्वनिर्मितेषु कार्येषु
तारतम्यविवॢजतम्॥६॥
सर्वानुस्यूतसन्मात्रं
भगवन्तं भजामहे॥६॥
अपने द्वारा
निर्मित सम्पूर्ण कार्योंमें जो न्यूनाधिक श्रेष्ठ-कनिष्ठके भावसे रहित एवं सबमें
भरपूर हैं, इस रूपमें अनुभवमें आनेवाली
निर्विशेष सत्ताके रूपमें स्थित हैं, उन भगवान्का हम भजन
करते हैं।
[7] त्वदंशस्य ममेशान
त्वन्मायाकृतबन्धनम्॥
त्वदङ्घ्रिसेवामादिश्य
परानन्द निवर्तय॥७॥
मेरे
परमानन्दस्वरूप स्वामी ! मैं आपका अंश हूँ। अपने चरणोंकी सेवाका आदेश देकर अपनी
मायाके द्वारा निर्मित मेरे बन्धनको निवृत्त कर दो।
[8] त्वत्कथामृतपाथोधौ
विहरन्तो महामुद:॥८॥
कुर्वन्ति
कृतिन: केचिच्चतुर्वर्गं तृणोपमम्॥८॥
कोई-कोई विरले
शुद्धान्त:करण महापुरुष आपके अमृतमय कथा-समुद्रमें विहार करते हुए परमानन्दमें
मग्र रहते हैं और धर्म, अर्थ, काम,
मोक्ष—इन चारों पुरुषार्थोंको तृणके समान
तुच्छ बना देते हैं।
[9] त्वय्यात्मनि जगन्नाथे
मन्मनो रमतामिह॥९॥
कदा ममेदृशं
जन्म मानुषं सम्भविष्यति॥९॥
आप जगत् के
स्वामी हैं और अपनी आत्मा ही हैं। इस जीवनमें ही मेरा मन आपमें रम जाय। मेरे
स्वामी ! मेरा ऐसा सौभाग्य कब होगा,
जब मुझे इस प्रकारका मनुष्यजन्म प्राप्त होगा ?
[10] चरणस्मरणं प्रेम्णा तव
देव सुदुर्लभम्॥१०॥
यथाकथञ्चिन्नृहरे
मम भूयादहॢनशम्॥१०॥
देव ! आपके
चरणोंका प्रेमपूर्वक स्मरण अत्यन्त दुर्लभ है। चाहे जैसे-कैसे भी हो, नृसिंह ! मुझे तो आपके चरणोंका स्मरण
दिन-रात बना रहे।
[11] क्वाहं
बुद्ध्यादिसंरुद्ध: क्व च भूमन्महस्तव॥११॥
दीनबन्धो
दयासिन्धो भङ्क्षक्त मे नृहरे दिश॥११॥
अनन्त ! कहाँ
बुद्धि आदि परिच्छिन्न उपाधियोंसे घिरा हुआ मैं और कहाँ आपका मन, वाणी आदिके अगोचर स्वरूप ! (आपका ज्ञान तो
बहुत ही कठिन है) इसलिये दीनबन्धु, दयासिन्धु ! नरहरि देव !
मुझे तो अपनी भक्ति ही दीजिये।
[12] मिथ्यातर्कसुकर्कशेरितमहावादान्धकारान्तरभ्राम्यन्मन्दमतेरमन्दमहिमंस्त्वज्ज्ञानवत्र्मास्फुटम्
।
श्रीमन्माधव
वामन त्रिनयन श्रीशङ्कर श्रीपते गोविन्देति मुदा वदन् मधुपते मुक्त: कदा
स्यामहम्॥१२॥
अनन्त
महिमाशाली प्रभो ! जो मन्दमति पुरुष झूठे तर्कोंके द्वारा प्रेरित अत्यन्त कर्कश
वाद-विवादके घोर अन्धकारमें भटक रहे हैं,
उनके लिये आपके ज्ञानका मार्ग स्पष्ट सूझना सम्भव नहीं है। इसलिये
मेरे जीवनमें ऐसी सौभाग्यकी घड़ी कब आवेगी कि मैं श्रीमन्माधव, वामन, त्रिलोचन, श्रीशङ्कर,
श्रीपते, गोविन्द, मधुपते—इस प्रकार आपको आनन्दमें भरकर पुकारता हुआ मुक्त हो जाऊँगा।
[13] यत्सत्त्वत: सदाभाति
जगदेतदसत् स्वत:॥१३॥
सदाभासमसत्यस्मिन्
भगवन्तं भजाम तम्॥१३॥
यह जगत् अपने
स्वरूप, नाम और आकृतिके रूपमें असत्
है, फिर भी जिस अधिष्ठान-सत्ताकी सत्यतासे यह सत्य जान पड़ता
है तथा जो इस असत्य प्रपञ्चमें सत्यके रूपसे सदा प्रकाशमान रहता है, उस भगवान्का हम भजन करते हैं।
[14] तपन्तु तापै: प्रपतन्तु
पर्वतादटन्तु तीर्थानि पठन्तु चागमान्॥१४॥
यजन्तु यागैर्विवदन्तु
वादैहर्ङ्क्षर विना नैव मृङ्क्षत तरन्ति॥१४॥
लोग पञ्चाग्नि
आदि तापोंसे तप्त हों, पर्वतसे गिरकर आत्मघात कर
लें, तीर्थोंका पर्यटन करें, वेदोंका
पाठ करें, यज्ञोंके द्वारा यजन करें अथवा भिन्न-भिन्न
मतवादोंके द्वारा आपसमें विवाद करें, परन्तु भगवान्के बिना
इस मृत्युमय संसार-सागरसे पार नहीं जाते।
[15] अनिन्द्रियोऽपि यो देव:
सर्वकारकशक्तिधृक्॥१५॥
सर्वज्ञ:
सर्वकर्ता च सर्वसेव्यं नमामि तम्॥१५॥
जो प्रभु
इन्द्रियरहित होनेपर भी समस्त बाह्य और आन्तरिक इन्द्रियकी शक्तिको धारण करता है
और सर्वज्ञ एवं सर्वकर्ता है, उस सबके सेवनीय प्रभुको मैं नमस्कार करता हूँ।
[16] त्वदीक्षणवशक्षोभमायाबोधितकर्मभि:॥१६॥
जातान् संसरत:
खिन्नान्नृहरे पाहि न: पित:॥१६॥
नृसिंह ! आपके
सृष्टि-सङ्कल्पसे क्षुब्ध होकर मायाने कर्मोंको जाग्रत् कर दिया है। उन्हींके कारण
हम लोगोंका जन्म हुआ और अब आवागमनके चक्करमें भटककर हम दु:खी हो रहे हैं। पिताजी !
आप हमारी रक्षा कीजिये।
[17] अन्तर्यन्ता सर्वलोकस्य
गीत: श्रुत्या युक्त्या चैवमेवावसेय:॥१७॥
य: सर्वज्ञ:
सर्वशक्तिर्नृसिंह: श्रीमन्तं तं चेतसैवावलम्बे॥१७॥
श्रुतिने
समस्त दृश्यप्रपञ्चके अन्तर्यामीके रूपमें जिनका गान किया है, और युक्तिसे भी वैसा ही निश्चय होता है। जो
सर्वज्ञ, सर्वशक्ति और नृसिंह—पुरुषोत्तम
हैं, उन्हीं सर्वसौन्दर्य-माधुर्यनिधि प्रभुका मैं मन-ही-मन
आश्रय ग्रहण करता हूँ।
[18] यस्मिन्नुद्यद् विलयमपि
यद् भाति विश्वं लयादौ॥१८॥
जीवोपेतं
गुरुकरुणया केवलात्मावबोधे॥१८॥
अत्यन्तान्तं
व्रजति सहसा सिन्धुवत्सिन्धुमध्ये॥१८॥
मध्येचित्तं
त्रिभुवनगुरुं भावये तं नृसिंहम्॥१८॥
जीवोंके सहित
यह सम्पूर्ण विश्व जिनमें उदय होता है और सुषुप्ति आदि अवस्थाओंमें विलयको प्राप्त
होता है तथा भान होता है, गुरुदेवकी करुणा प्राप्त
होनेपर जब शुद्ध आत्माका ज्ञान होता है, तब समुद्रमें नदीके
समान सहसा यह जिनमें आत्यन्तिक प्रलयको प्राप्त हो जाता है, उन्हीं
त्रिभुवनगुरु नृसिंह भगवान्की मैं अपने हृदयमें भावना करता हूँ।
[19] संसारचक्रक्रकचैर्विदीर्णमुदीर्णनानाभवतापतप्तम्॥१९॥
कथञ्चिदापन्नमिह
प्रपन्नं त्वमुद्धर श्रीनृहरे नृलोकम्॥१९॥
नृसिंह ! यह
जीव संसार-चक्रके आरेसे टुकड़े-टुकड़े हो रहा है और नाना प्रकारके सांसारिक
पापोंकी धधकती हुई लपटोंसे झुलस रहा है। यह आपत्तिग्रस्त जीव किसी प्रकार आपकी
कृपासे आपकी शरणमें आया है। आप इसका उद्धार कीजिये।
[20]यदा परानन्दगुरो भवत्पदे
पदं मनो मे भगवँल्लभेत॥१९॥
तदा
निरस्ताखिलसाधनश्रम: श्रयेय सौख्यं भवत: कृपात:॥२०॥
परमानन्दमय
गुरुदेव ! भगवन् ! जब मेरा मन आपके चरणोंमें स्थान प्राप्त कर लेगा, तब मैं आपकी कृपासे समस्त साधनोंके
परिश्रमसे छुटकारा पाकर परमानन्द प्राप्त करूँगा।
[21] भजतां हि भवान्
साक्षात्परमानन्दचिद्घन:॥२१॥
आत्मैव किमत:
कृत्यं तुच्छदारसुतादिभि:॥२१॥
जो आपका भजन
करते हैं, उनके लिये आप स्वयं साक्षात्
परमानन्दचिद्घन आत्मा ही हैं। इसलिये उन्हें तुच्छ स्त्री, पुत्र,
धन आदिसे क्या प्रयोजन है ?
[22] मुञ्चन्नङ्गतदङ्गसङ्गमनिशं
त्वामेव सञ्चिन्तयन्॥१९॥
सन्त: सन्ति
यतो यतो गतमदास्तानाश्रमानावसन्॥१९॥
नित्यं
तन्मुखपङ्कजाद्विगलितत्वत्पुण्यगाथामृत-॥१९॥
स्रोत:सम्प£वसंप्लुतो नरहरे न स्यामहं देहभृत्॥२२॥
मैं शरीर और
उसके सम्बन्धियोंकी आसक्ति छोडक़र रात-दिन आपका ही चिन्तन करूँगा और जहाँ-जहाँ
निरभिमान सन्त निवास करते हैं, उन्हीं-उन्हीं आश्रमोंमें रहूँगा। उन सत्पुरुषोंके मुख-कमलसे नि:सृत आपकी
पुण्यमयी कथा-सुधाकी नदियोंकी धारामें प्रतिदिन स्नान करूँगा और नृसिंह ! फिर मैं
कभी देहके बन्धनमें नहीं पडूँगा।
[23] उद्भूतं भवत: सतोऽपि
भुवनं सन्नैव सर्प: स्रज:॥१९॥
कुर्वत्
कार्यमपीह कूटकनकं वेदोऽपि नैवंपर:॥१९॥
अद्वैतं तव
सत्परं तु परमानन्दं पदं तन्मुदा॥१९॥
वन्दे
सुन्दरमिन्दिरानुत हरे मा मुञ्च मामानतम्॥२३॥
मालामें
प्रतीयमान सर्पके समान सत्यस्वरूप आपसे उदय होनेपर भी यह त्रिभुवन सत्य नहीं है।
झूठा सोना बाजारमें चल जानेपर भी सत्य नहीं हो जाता। वेदोंका तात्पर्य भी जगत्की
सत्यतामें नहीं है। इसलिये आपका जो परम सत्य परमानन्दस्वरूप अद्वैत सुन्दर पद है, हे इन्दिरावन्दित श्रीहरे ! मैं उसीकी
वन्दना करता हूँ। मुझ शरणागतको मत छोडिय़े।
[24] मुकुटकुण्डलकङ्कणकिङ्किणीपरिणतं
कनकं परमार्थत:॥१९॥
महदहङ्कृतिखप्रमुखं
तथा नरहरे न परं परमार्थत:॥२४॥
सोना मुकुट, कुण्डल, कङ्कण और
किङ्किणीके रूपमें परिणत होनेपर भी वस्तुत: सोना ही है। इसी प्रकार नृसिंह !
महत्तत्त्व, अहङ्कार और आकाश, वायु
आदिके रूपमें उपलब्ध होनेवाला यह सम्पूर्ण जगत् वस्तुत: आपसे भिन्न नहीं है।
[25] नृत्यन्ती तव
वीक्षणाङ्गणगता कालस्वभावादिभि-॥१९॥
र्भावान्
सत्त्वरजस्तमोगुणमयानुन्मीलयन्ती बहून्॥२५॥
मामाक्रम्य
पदा शिरस्यतिभरं सम्मर्दयन्त्यातुरं॥१९॥
माया ते शरणं
गतोऽस्मि नृहरे त्वामेव तां वारय॥२५॥
प्रभो ! आपकी
यह माया आपकी दृष्टिके आँगनमें आकर नाच रही है और काल, स्वभाव आदिके द्वारा सत्त्वगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी अनेकानेक भावोंका प्रदर्शन कर रही है। साथ ही यह मेरे
सिरपर सवार होकर मुझ आतुरको बलपूर्वक रौंद रही है। नृसिंह ! मैं आपकी शरणमें आया
हूँ, आप ही इसे रोक दीजिये।
[26] दम्भन्यासमिषेण वञ्चितजनं
भोगैकचिन्तातुरं॥१९॥
सम्मुह्यन्तमहॢनशं
विरचितोद्योगक्लमैराकुलम्॥१९॥
आज्ञालङ्घिनमज्ञमज्ञजनतासम्माननासन्मदं
॥१९॥
दीनानाथ
दयानिधान परमानन्द प्रभो पाहि माम्॥२६॥
प्रभो ! मैं
दम्भपूर्ण संन्यासके बहाने लोगोंको ठग रहा हूँ। एकमात्र भोगकी चिन्तासे ही आतुर
हूँ तथा रात-दिन नाना प्रकारके उद्योगोंकी रचनाकी थकावटसे व्याकुल तथा बे-सुध हो
रहा हूँ। मैं आपकी आज्ञाका उल्लङ्घन करता हूँ,
अज्ञानी हूँ और अज्ञानी लोगोंके द्वारा प्राप्त सम्मानसे ‘मैं सन्त हूँ’ ऐसा घमण्ड कर बैठा हूँ। दीनानाथ,
दयानिधान, परमानन्द ! मेरी रक्षा कीजिये।
[27] अवगमं तव मे दिशि माधव
स्फुरति यन्न सुखासुखसङ्गम:॥१९॥
श्रवणवर्णनभावमथापि
वा न हि भवामि यथा विधिकिङ्कर:॥२७॥
माधव ! आप
मुझे अपने स्वरूपका अनुभव कराइये, जिससे फिर सुख-दु:खके संयोगकी स्फूर्ति नहीं होती। अथवा मुझे अपने गुणोंके
श्रवण और वर्णनका प्रेम ही दीजिये, जिससे कि मैं
विधि-निषेधका किङ्कर न होऊँ।
[28]द्युपतयो विदुरन्तमनन्त ते
न च भवान्न गिर: श्रुतिमौलय:॥१९॥
त्वयि फलन्ति
यतो नम इत्यतो जय जयेति भजे तव तत्पदम्॥२८॥
हे अनन्त !
ब्रह्मा आदि देवता आपका अन्त नहीं जानते,
न आप ही जानते और न तो वेदोंकी मुकुटमणि उपनिषदें ही जानती हैं;
क्योंकि आप अनन्त हैं। उपनिषदें ‘नमो नम:’,
‘जय हो, जय हो’ यह कहकर
आपमें चरितार्थ होती हैं। इसलिये मैं भी ‘नमो नम:’, ‘जय हो’ ‘जय हो’ यही कहकर आपके
चरण-कमलकी उपासना करता हूँ
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे वेदस्तुति नाम सप्ताशीतितमोऽध्यायः ॥
८७ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
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