॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)
वेदस्तुति
सत इदं उत्थितं सदिति चेन्ननु तर्कहतं
व्यभिचरति क्व
च क्व च मृषा न तथोभययुक् ।
व्यवहृतये विकल्प
इषितोऽन्धपरम्परया
भ्रमयति भारती
त उरुवृत्तिभिरुक्थजडान् ॥ ३६ ॥
न यदिदमग्र आस न
भविष्यदतो निधनाद्
अनु मितमन्तरा
त्वयि विभाति मृषैकरसे ।
अत उपमीयते
द्रविणजातिविकल्पपथैः
वितथमनोविलासमृतमित्यवयन्त्यबुधाः ॥ ३७ ॥
स यदजया
त्वजामनुशयीत गुणांश्च जुषन्
भजति सरूपतां
तदनु मृत्युमपेतभगः ।
त्वमुत जहासि
तामहिरिव त्वचमात्तभगो
महसि
महीयसेऽष्टगुणितेऽपरिमेयभगः ॥ ३८ ॥
भगवन् ! जैसे मिट्टीसे बना हुआ घड़ा मिट्टीरूप ही होता है, वैसे ही सत्से बना हुआ जगत् भी सत् ही है—यह बात युक्तिसङ्गत नहीं है। क्योंकि कारण और कार्यका निर्देश ही उनके
भेदका द्योतक है। यदि केवल भेद का निषेध करनेके लिये ही ऐसा कहा जा रहा हो तो पिता
और पुत्र में, दण्ड और घटनाश में कार्य-कारण-भाव होनेपर भी
एक वे दूसरेसे भिन्न हैं। इस प्रकार कार्य- कारणकी एकता सर्वत्र एक-सी नहीं देखी
जाती। यदि कारण-शब्द से निमित्त-कारण न लेकर केवल उपादान-कारण लिया जाय—जैसे कुण्डल का सोना—तो भी कहीं-कहीं कार्य की
असत्यता प्रमाणित होती है; जैसे रस्सी में साँप। यहाँ
उपादान-कारण के सत्य होनेपर भी उसका कार्य सर्प सर्वथा असत्य है। यदि यह कहा जाय
कि प्रतीत होनेवाले सर्प का उपादान-कारण केवल रस्सी नहीं है, उसके साथ अविद्या का—भ्रम का मेल भी है, तो यह समझना चाहिये कि अविद्या और सत् वस्तुके संयोगसे ही इस जगत् की
उत्पत्ति हुई है। इसलिये जैसे रस्सी में प्रतीत होनेवाला सर्प मिथ्या है, वैसे ही सत् वस्तुमें अविद्या के संयोग से प्रतीत होनेवाला नाम-रूपात्मक
जगत् भी मिथ्या है। यदि केवल व्यवहारकी सिद्धिके लिये ही जगत्की सत्ता अभीष्ट हो,
तो उसमें कोई आपत्ति नहीं; क्योंकि वह
पारमार्थिक सत्य न होकर केवल व्यावहारिक सत्य है। यह भ्रम व्यावहारिक जगत् में
माने हुए कालकी दृष्टिसे अनादि है; और अज्ञानीजन बिना विचार
किये पूर्व-पूर्वके भ्रमसे प्रेरित होकर अन्धपरम्परासे इसे मानते चले आ रहे हैं।
ऐसी स्थितिमें कर्मफलको सत्य बतलानेवाली श्रुतियाँ केवल उन्हीं लोगोंको भ्रममें
डालती हैं, जो कर्ममें जड़ हो रहे हैं और यह नहीं समझते कि
इनका तात्पर्य कर्मफलकी नित्यता बतलानेमें नहीं, बल्कि उनकी
प्रशंसा करके उन कर्मोंमें लगानेमें है[23] ॥ ३६ ॥ भगवन् !
वास्तविक बात तो यह है कि यह जगत् उत्पत्तिके पहले नहीं था और प्रलयके बाद नहीं
रहेगा; इससे यह सिद्ध होता है कि यह बीचमें भी एकरस
परमात्मामें मिथ्या ही प्रतीत हो रहा है। इसीसे हम श्रुतियाँ इस जगत्का वर्णन ऐसी
उपमा देकर करती हैं कि जैसे मिट्टीमें घड़ा, लोहेमें शस्त्र
और सोनेमें कुण्डल आदि नाममात्र हैं, वास्तवमें मिट्टी,
लोहा और सोना ही हैं। वैसे ही परमात्मामें वर्णित जगत् नाममात्र है,
सर्वथा मिथ्या और मनकी कल्पना है। इसे नासमझ मूर्ख ही सत्य मानते
हैं[24] ॥ ३७ ॥
भगवन् ! जब जीव मायासे मोहित होकर अविद्याको अपना लेता है, उस समय उसके स्वरूपभूत आनन्दादि गुण ढक जाते हैं; वह गुणजन्य वृत्तियों, इन्द्रियों और देहोंमें फँस
जाता है तथा उन्हींको अपना आपा मानकर उनकी सेवा करने लगता है। अब उनकी
जन्म-मृत्युमें अपनी जन्म- मृत्यु मानकर उनके चक्कर में पड़ जाता है। परन्तु प्रभो
! जैसे साँप अपने केंचुलसे कोई सम्बन्ध नहीं रखता, उसे छोड़
देता है—वैसे ही आप माया—अविद्यासे कोई
सम्बन्ध नहीं रखते, उसे सदा-सर्वदा छोड़े रहते हैं। इसीसे
आपके सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सदा-सर्वदा आपके साथ रहते हैं। अणिमा
आदि अष्टसिद्धियोंसे युक्त परमैश्वर्यमें आपकी स्थिति है। इसीसे आपका ऐश्वर्य,
धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य अपरिमित है, अनन्त है; वह देश, काल और वस्तुओंकी सीमासे आबद्ध नहीं है [25]
॥ ३८ ॥
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[23] उद्भूतं भवत: सतोऽपि
भुवनं सन्नैव सर्प: स्रज:॥१९॥
कुर्वत्
कार्यमपीह कूटकनकं वेदोऽपि नैवंपर:॥१९॥
अद्वैतं तव
सत्परं तु परमानन्दं पदं तन्मुदा॥१९॥
वन्दे
सुन्दरमिन्दिरानुत हरे मा मुञ्च मामानतम्॥२३॥
मालामें
प्रतीयमान सर्पके समान सत्यस्वरूप आपसे उदय होनेपर भी यह त्रिभुवन सत्य नहीं है।
झूठा सोना बाजारमें चल जानेपर भी सत्य नहीं हो जाता। वेदोंका तात्पर्य भी जगत्की
सत्यतामें नहीं है। इसलिये आपका जो परम सत्य परमानन्दस्वरूप अद्वैत सुन्दर पद है, हे इन्दिरावन्दित श्रीहरे ! मैं उसीकी
वन्दना करता हूँ। मुझ शरणागतको मत छोडिय़े।
[24] मुकुटकुण्डलकङ्कणकिङ्किणीपरिणतं
कनकं परमार्थत:॥१९॥
महदहङ्कृतिखप्रमुखं
तथा नरहरे न परं परमार्थत:॥२४॥
सोना मुकुट, कुण्डल, कङ्कण और
किङ्किणीके रूपमें परिणत होनेपर भी वस्तुत: सोना ही है। इसी प्रकार नृसिंह !
महत्तत्त्व, अहङ्कार और आकाश, वायु
आदिके रूपमें उपलब्ध होनेवाला यह सम्पूर्ण जगत् वस्तुत: आपसे भिन्न नहीं है।
[25] नृत्यन्ती तव
वीक्षणाङ्गणगता कालस्वभावादिभि-॥१९॥
र्भावान्
सत्त्वरजस्तमोगुणमयानुन्मीलयन्ती बहून्॥२५॥
मामाक्रम्य
पदा शिरस्यतिभरं सम्मर्दयन्त्यातुरं॥१९॥
माया ते शरणं
गतोऽस्मि नृहरे त्वामेव तां वारय॥२५॥
प्रभो ! आपकी यह माया आपकी दृष्टिके आँगनमें
आकर नाच रही है और काल, स्वभाव आदिके द्वारा
सत्त्वगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी अनेकानेक भावोंका प्रदर्शन
कर रही है। साथ ही यह मेरे सिरपर सवार होकर मुझ आतुरको बलपूर्वक रौंद रही है।
नृसिंह ! मैं आपकी शरणमें आया हूँ, आप ही इसे रोक दीजिये।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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