॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)
वेदस्तुति
यदि न समुद्धरन्ति यतयो हृदि कामजटा
दुरधिगमोऽसतां
हृदि गतोऽस्मृतकण्ठमणिः ।
असुतृपयोगिनामुभयतोऽप्यसुखं भगवन्न्
अनपगतान्तकादनधिरूढपदाद्भवतः ॥ ३९ ॥
त्वदवगमी न वेत्ति
भवदुत्थशुभाशुभयोः
गुणविगुणान्वयांस्तर्हि देहभृतां च गिरः ।
अनुयुगमन्वहं सगुण
गीतपरम्परया
श्रवणभृतो
यतस्त्वमपवर्गगतिर्मनुजैः ॥ ४० ॥
न् ! यदि मनुष्य योगी-यति होकर भी हृदयकी विषय-वासनाओंको
उखाड़ नहीं फेंकते तो उन असाधकोंके लिये आप हृदयमें रहनेपर भी वैसे ही दुर्लभ हैं, जैसे कोई अपने गलेमें मणि पहने हुए हो, परन्तु
उसकी याद न रहनेपर उसे ढूँढ़ता फिरे इधर-उधर। जो साधक अपनी इन्द्रियोंको तृप्त
करनेमें ही लगे रहते हैं, विषयोंसे विरक्त नहीं होते,
उन्हें जीवनभर और जीवनके बाद भी दु:ख-ही- दु:ख भोगना पड़ता है।
क्योंकि वे साधक नहीं, दम्भी हैं। एक तो अभी उन्हें मृत्युसे
छुटकारा नहीं मिला है, लोगोंको रिझाने, धन कमाने आदिके क्लेश उठाने पड़ रहे हैं, और दूसरे
आपका स्वरूप न जाननेके कारण अपने धर्म-कर्मका उल्लङ्घन करनेसे परलोकमें नरक आदि
प्राप्त होनेका भय भी बना ही रहता है[26] ॥ ३९ ॥
भगवन् ! आपके वास्तविक स्वरूपको जाननेवाला पुरुष आपके दिये
हुए पुण्य और पाप- कर्मोंके फल सुख एवं दु:खोंको नहीं जानता, नहीं भोगता; वह भोग्य और भोक्तापनके
भावसे ऊपर उठ जाता है। उस समय विधि-निषेधके प्रतिपादक शास्त्र भी उससे निवृत्त हो
जाते हैं; क्योंकि वे देहाभिमानियोंके लिये हैं। उनकी ओर तो
उसका ध्यान ही नहीं जाता। जिसे आपके स्वरूपका ज्ञान नहीं हुआ है, वह भी यदि प्रतिदिन आपकी प्रत्येक युगमें की हुई लीलाओं, गुणोंका गान सुन- सुनकर उनके द्वारा आपको अपने हृदयमें बैठा लेता है तो
अनन्त, अचिन्त्य, दिव्यगुणगणोंके
निवासस्थान प्रभो ! आपका वह प्रेमी भक्त भी पाप-पुण्योंके फल सुख-दु:खों और
विधि-निषेधोंसे अतीत हो जाता है। क्योंकि आप ही उनकी मोक्षस्वरूप गति हैं। (परन्तु
इन ज्ञानी और प्रेमियोंको छोडक़र और सभी शास्त्र बन्धनमें हैं तथा वे उसका उल्लङ्घन
करनेपर दुर्गतिको प्राप्त होते हैं)[27] ॥ ४० ॥
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[26] दम्भन्यासमिषेण वञ्चितजनं
भोगैकचिन्तातुरं॥१९॥
सम्मुह्यन्तमहॢनशं
विरचितोद्योगक्लमैराकुलम्॥१९॥
आज्ञालङ्घिनमज्ञमज्ञजनतासम्माननासन्मदं
॥१९॥
दीनानाथ
दयानिधान परमानन्द प्रभो पाहि माम्॥२६॥
प्रभो ! मैं
दम्भपूर्ण संन्यासके बहाने लोगोंको ठग रहा हूँ। एकमात्र भोगकी चिन्तासे ही आतुर
हूँ तथा रात-दिन नाना प्रकारके उद्योगोंकी रचनाकी थकावटसे व्याकुल तथा बे-सुध हो
रहा हूँ। मैं आपकी आज्ञाका उल्लङ्घन करता हूँ,
अज्ञानी हूँ और अज्ञानी लोगोंके द्वारा प्राप्त सम्मानसे ‘मैं सन्त हूँ’ ऐसा घमण्ड कर बैठा हूँ। दीनानाथ,
दयानिधान, परमानन्द ! मेरी रक्षा कीजिये।
[27] अवगमं तव मे दिशि माधव
स्फुरति यन्न सुखासुखसङ्गम:॥१९॥
श्रवणवर्णनभावमथापि
वा न हि भवामि यथा विधिकिङ्कर:॥२७॥
माधव ! आप
मुझे अपने स्वरूपका अनुभव कराइये, जिससे फिर सुख-दु:खके संयोगकी स्फूर्ति नहीं होती। अथवा मुझे अपने गुणोंके
श्रवण और वर्णनका प्रेम ही दीजिये, जिससे कि मैं
विधि-निषेधका किङ्कर न होऊँ।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
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